निर्बल की हाय
प्रसंगवश : ज्ञानेन्द्र शर्मा
हम इस बुलेटिन की शुरुआत करते हैं दिनांक 12 अप्रैल 2015 के अखबारों में छपी कुछ सुर्खियों के साथ:-़
:: अवध में तीन, सूबे में 55 किसानों की मौत
:: मुआवजा है या मजाक- 5 बीघा गेहूं बर्बाद, राहत सिर्फ 100 रु0
:: 43 और किसान हार गए जिंदगी की जंग
:: आपदा से सूबे में 2500 करोड़ की क्षति का अनुमान अब साथ में पेश हैं ये सुर्खियां भी, जो इन्हीं खबरों के आसपास छपी हैं:-
:: फिक्की की महिला शाखा के शुभारम्भ पर राजधानी लखनऊ के सबसे महंगे होटल ताज में मुख्यमंत्री, उनकी पत्नी प्रसन्न मुद्रा में (फोटो सहित)
:: अधिकारियों ने खूब बहाया पसीना- अखिल भारतीय सेवाओं की खेल प्रतियोगिताएं शुरू
:: सांस्कृतिक संध्या में अधिकारियों और उनकी पत्नियों ने प्रस्तुत किए अद्भुत कार्यक्रम
:: मंत्री/अफसरों के साथ मुख्यमंत्री जाएंगे जर्मनी
उत्तर प्रदेश की ये हैं वे खबरें जो रुलाती भी हैं और सामान्य जन को क्रोधित भी करती हैं। प्राकृतिक आपदा से किसान मर रहे हैं। खेतों में कुछ नहीं बचा। जो थोड़े से आंसू आंखों में थे, वे भी खत्म हो गए। जो आखें पथरा गईं, उनके धारक खेतों-खलिहानों में बर्बादी देखकर बेसुध और फिर बेदम हो गए। अनाज की बालियां मुरझा गईं, पूरी फसल जमीन में बिछ गई, जो थोड़ी सी बची भी उसके दाने टूट गए या फिर काले पड़ गए- ऐसे कि जानवर भी देखकर दूसरी तरफ मुंह कर लें। दर्जनों किसान अपनी खुद की हालत देखकर मरे। न जाने कितने ऐसे परिवार हैं जिनके पास अपनों का अंतिम संस्कार करने के पैसे नहीं। हजारों हजार लड़कियां इन गर्मियों में भी बेब्याही रह जाने वाली हैं। आखिर कहां हैं उनके हाथ पीले करने के लिए पैसे? 5 बीघा में लगा गेहूं बर्बाद होने पर मिल रहे 100 रुपए। जो थोड़ी राहत मिल रही है, उसमें भी घूस लग रही है। नतीजा- पेट भी खाली, हाथ भी खाली।
लेकिन राजधानी लखनऊ के शाही दरबारों में दसियों साल बाद आई ऐसी महा आफत की आहट भी नहीं है। मुख्यमंत्री उद्योगपतियों की पत्नियों और रईस महिला उद्यमियों के साथ प्रसन्न हो होकर फोटो खिंचवा रहे हैं तो दूसरी तरफ आला अफसर खेलकूद और रंगारंग सांस्कृतिक संध्याओं के लुत्फ में सराबोर हैं। किसान मरे तो मरे। गलती उसी की है, वह किसान के घर में क्यों पैदा हुआ, खेत में वह हल क्यों चलाता है, बीज क्यों डालता है, पसीने से उसको क्यों सींचता है?
सूबे के मुख्यमंत्री ने पिछली 11 अप्रैल को 600 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नोयडा और ग्रेटर नोयडा की 63 परियोजनाओं का शिलान्यास लखनऊ के अपने सरकारी निवास से कर दिया। उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया कि हवाई जहाज से उनका वहां तक जाने-आने और वहां सरकारी पैसे पर होने वाले तामझाम पर खर्च होने वाला पैसा बचेगा बल्कि इसलिए किया कि प्रदेश के किसी भी मुख्यमंत्री का नोयडा जाना अशुभ माना जाता है। नोयडा जो मुख्यमंत्री जाता है, उसकी कुर्सी चली जाती है, भले ही वह विधानसभा में पूर्ण बहुमत रखता हो। सो अपने समाजवादी मुख्यमंत्री नोयडा नहीं गए। पहले दो तीन बार नोयडा जाने के अवसर आए तब भी नहीं गए थे। फिक्की का जो समारोह शानदार ताज होटल में हुआ, उसमें प्राकृतिक आपदा को देखते हुए वे वहां जाने से इन्कार कर सकते थे। उसी 11 अप्रैल को मुख्यमंत्री यह आदेश दे सकते थे कि फिक्की का समारोह भी उनके आवास 5, कालिदास मार्ग से होगा और फिक्की जो खर्च ताज होटल के आयोजन पर करने वाला है, उसे वह आपदा कोष में जमा कर दे ताकि उससे किसानों की मदद हो सके।
अब अफसरों की बात, जिन्हें मुख्यमंत्री को बार-बार कहना पड़ता है कि किसानों की मदद के लिए काम करो, दौरा करो, परेशान लोगों तक सरकारी मदद का हाथ पहुंचाओ।
वे सब 11 अप्रैल को, जिसके पिछले 24 घंटों में कई किसानों की मौत की खबरें छपी थीं, लखनऊ में पसीना बहा रहे थे! यह पसीना वे किसानों के लिए या उस आमजन के लिए नहीं बहा रहे थे, जिसके पैसे से वे वेतन पाते हैं, वे तो आईएएस, आईपीएस और आईएफएस के संघों के तत्वावधान में आयोजित खेलकूद प्रतियोगिता में शामिल होकर अपनी खेल प्रतिभा दिखा रहे थे, अपने-अपने मैच जीतने के लिए पसीना बहा रहे थे! और दूसरी तरफ उनकी पत्नियॉ शाम को आयोजित रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होकर म्यूजिक की धुन पर डांस का तड़का लगा रही थीं और रंग-बिरंगे कपड़ों में लिपट कर फैशन शो कर रही थीं।
कहीं पता चलता है कि प्रदेश में किसान भुखमरी से मर रहे हैं! पर ये सब भूल जाते हैं कि निर्बल ही हाय बहुत भारी होती है। कबीर दास ने ऐसे ही नहीं कहा था।
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय मरी खाल की सॉस से, लोह भसम हो जाय।।
अफसर लोग एक और गेंद भी खेल रहे हैं। यह खेल खेलकर वे अपने राजनीतिक आकाओं की मदद जरूर कर रहे थे। वे ऐसे दस्तावेज तैयार करने में जुटे थे कि जिससे साबित हो कि प्राकृतिक आपदा से प्रदेश में किसानों को भारी नुकसान हो रहा है। पहले राज्य सरकार ने कहा था कि नुकसान 1100 करोड़ का है। बाद में कहा 2500 करोड़ का है। इसकी रिपोर्ट केन्द्र को भेजकर गेंद केन्द्र के पाले में डाली जा रही थी। इससे ज्यादा अफसर क्या कर सकते थे आखिर?
अब दो प्रमुख राजनीतिक नेताओं के बयानों को गुनिए। केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी किसानों को यह ज्ञान दे रहे हैं कि वे न तो सरकार के भरोसे रहें और न भगवान के। पर उन्होंने यह नहीं बताया कि किसान आखिर किसके भरोसे रहें, अपनी जन्मकुण्डली के, झाड़फूंक कर विपदाएं टालने का दावा करने वालों के या कि उनके अनाज का व्यापार करने वाले बिचौलियों और उधार देने वाले साहूकारों के? सालों से राजनीतिक लोगों और सरकारों को एक बड़ा आराम रहा है। ओले पड़ें, बाढ़ आए, सूखा पड़ जाए, कोई भी आफत आ जाय किसान अपनी किस्मत को रोता है, वह मानता है, कहता फिरता है कि भगवान यही चाहता है तो कोई क्या करे? उसके पास तर्क है- मेरे खेत में तो ओला पड़ा मगर प्रधान जी के खेत में नहीं पड़ा। यह भगवान की ही तो मर्जी है। आजादी के इतने साल बाद भी किसान अभी यह नहीं कहता कि यह सरकार की लापरवाही है, उसका उपेक्षा भाव है कि जो सूखा और बाढ़, अल्पवृष्टि और अतिवृष्टि सब कुछ लील लेते हैं। अभी भी वह भगवान पर सब कुछ डाल देता है और सरकार को कटघरे में खड़ा नहीं करता। जब तक सरकार पर किसान का मुकदमा नहीं चलता, सरकारें सुखी हैं, नेता खुश हैं, अफसर मौज में हैं। पर कितने दिन चलेगा यह? ज्यादा नहीं। छत्तीसगढ़ के आदिवासी अपने यहां से लौह अयस्क की खुदाई नहीं करने देते, पेड़़ नहीं काटने देते, सरकार को खुली चुनौती देते हैं। वे हथियारबंद हो गए हैं तो यह ऐसे ही नहीं हुआ है। वे मानने लग गए हैं कि कटघरे में भगवान को नहीं, सरकार को होना चाहिए। पता नहीं नितिन गडकरी यह बात समझना चाहेंगे या नहीं।
किसी ने मुझे एक संदेश भेजा है। आप भी पढ़िए:-
– शराब के बिना हम जी सकते हैं फिर भी शराब बनाने वाले अरबपति
– मोबाइल के बिना हम जी सकते हैं लेकिन मोबाइल बनाने वाले अरबपति
– कार के बिना भी हम जी सकते हैं लेकिन कार बनाने वाले भी अरबपति
– अन्न के बिना हम कदापि नहीं जी सकते लेकिन अन्न पैदा करने वाला किसान निर्धन और दरिद्र। यह है एक कटु सत्य।
‘पद्म’ सम्मान
एक बड़े नेता शरद यादव ने ‘पद्म’ पुरस्कारों पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने प्रश्न किया है कि किसी दलित, आदिवासी या किसान को पद्म पुरस्कार क्यों नहीं दिया जाता। वे कहते हैं कि ईमानदारी से काम करने वालों को कोई पद्म अवार्ड नहीं देता। शरद यादव कट्टर समाजवादी हैं, लोहियावादी हैं, उनकी सोच प्रगतिशील है। जिस संदर्भ में उन्होंने यह बात कही है, उस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी लगता है कि कोई इस बात पर अंगुली उठाता है कि मदर टेरेसा को भारत रत्न क्यों दिया गया तो कोई यह सम्मान मदन मोहन मालवीय को दिए जाने पर विरोध प्रकट करता है। यह भी प्रश्न उठाया जा रहा है कि मदर टेरेसा को बाबा साहब अम्बेडकर से दस साल पहले भारत रत्न क्यों दे दिया गया।
इस पूरे वाद विवाद और उससे जन्मे कोलाहल में यह सवाल डूब गया है कि हाकी के जादूगर ध्यानचंद और आवाज के जादूगर मोहम्मद रफी को भारत रत्न से क्यों नहीं नवाजा गया। शरद यादव ने कोई नाम नहीं गिनाए लेकिन आम जनता नाम गिनाती है। वह पूछती है कि ध्यानचंद से बड़ा कोई हाकी खिलाड़ी क्या दुनिया में हुआ है? वह यह भी पूछती है कि मोहम्मद रफी से बड़ा पाश्र्वगायक क्या कोई हमारे मुल्क में हुआ है। उन्होंने जो गीत दिए हैं, जो गाने गाए हैं, कोई और गा सकता है क्या कोई? फिर वे इस सबसे बड़े सम्मान से वंचित क्यों रखे गए?
इस बात पर बहस होनी चाहिए कि पद्म अवार्ड देने की पूरी प्रक्रिया क्या है और क्या यह औचित्यपूर्ण है? क्या प्रधानमंत्री यह तय करेंगे कि किसे कौन से सम्मान मिलने चाहिए या कि किसी मुख्यमंत्री को क्या इसका अधिकार दिया जाना चाहिए कि वह अपनी मनमर्जी से अपने राज्य के कुछ अपने पसंदीदा लोगों के नाम इन पुरस्कारों के लिए केन्द्र को भिजवा दे। आखिर पद्म सम्मान लायक प्रतिभा को तलाशने और उसकी योग्यता व क्षमता का आकलन करने की सरकार के पास मशीनरी है क्या? किसी ठोस और निष्पक्ष चयन प्रक्रिया को निर्धारित किए बिना साल दर साल ये सम्मान दिए जाते हैं और जगमगाते अलंकरण समारोहों में राष्ट्रपति उन्हें अलंकृत करते हैं।
शरद यादव ने एकदम ठीक कहा कि गांव, गरीब, किसान इन सम्मानों से पूरी तरह अछूता रखा जाता है। उसकी यह तमन्ना कभी पूरी नहीं होती कि राष्ट्रपति भवन के अलंकरण समारोह की चकमक रौशनी उसके चेहरे पर भी पड़े। लेकिन शरद यादव को उन मानकों पर भी तो सवाल उठाना चाहिए जिनके आधार पर उत्तर प्रदेश की सरकार हर साल ‘यश भारती’ सम्मान देती है। अब तो उत्तर प्रदेश की सरकार शरद यादव के दल की ही सरकार है, उन्हें यहां के बारे में न केवल बोलना चाहिए बल्कि पूरे जोरशोर से बोलना चाहिए। उन्हें उत्तर प्रदेश की सरकार को न केवल कारगर सुझाव देना चाहिए बल्कि ऐसी आदर्श प्रक्रिया तय करानी चाहिए कि जिससे सबको यह लगे कि यश भारती सम्मान सत्ताधारी किसी व्यक्ति या व्यक्ति-समूह की मनमर्जी से चुन चुन कर नहीं दिए जा रहे हैं। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि इतने साल बाद भी यह नहीं सोचा जा रहा है कि चयन की प्रक्रिया कैसे पारदर्शी बनाई जाय, कैसे उसकी निष्पक्षता पर आंच न आने दी जाय। ये चाहे राष्ट्रीय सम्मान हों या प्रादेशिक सम्मान, उनके लिए चयन की जो पद्धति हो, वह न केवल निष्पक्ष होनी चाहिए बल्कि निष्पक्ष दिखनी भी चाहिए। जब ऐसा होगा तभी इन सम्मानों के प्रति लोगों के दिलों में सम्मान बढ़ेगा और सम्मान पाने वाले ज्यादा गौरवान्वित महसूस कर सकेंगे।
पी.एस.सी. यानी कमीशन से पाओ सेवा
दुर्भाग्य की बात इतनी भर नहीं है कि उत्तर प्रदेश के पब्लिक सर्विस कमीशन के खिलाफ गंभीर किस्म के आरोप हैं, दर्द इस बात का कहीं ज्यादा है कि लोहिया-भक्त राज्य सरकार इस लोक सेवा आयोग की मनमर्जी और बेइमानियों के आरोपों की जांच की मांग करने वालों पर लाठियां चलवा रही है और ऐसा करने वाले युवाओं को जेल में ठूंस रही है। प्रदेश के हर कोने से और युवाओं के हर वर्ग से यह मांग उठ रही है कि परीक्षाओं में गड़बड़ी करने वाले इस आयोग के अध्यक्ष को उनकी कुर्सी से हटाया जाय और उनके कारनामों की जांच कराई जाय। लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं है। प्रदेश भर में इसके खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं और इलाहाबाद में तो लगभग रोजाना छात्र-युवा प्रदर्शन कर रहे हैं, धरना दे रहे हैं, आंदोलन कर रहे हैं। मगर सरकार टस से मस नहीं हो रही। बात यह है कि लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एक सत्तारूढ़ नेता के खासमखास हैं, उन्हीं के द्वारा कुर्सी पर बिठाए गए हैं, इसलिए सरकार उनके खिलाफ कुछ नहीं कर पा रही है। ये बात अलग है कि यदि ऐसा किसी और सरकार में हो रहा होता तो समाजवादी पार्टी धरना प्रदर्शन कर रही होती और नारे लगा रही होती: ‘लाठी गोली की सरकार नहीं चलेगी’। अध्यक्ष पर दो तरह के आरोप हैं। एक तो यह कि हाल की सिविल परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक हो गया। पहले तो आयोग इससे इन्कार करता रहा लेकिन बाद में इसकी परीक्षा रद कर दी गई। यह मांग की जा रही है कि दोनों प्रश्नपत्र रद्द कर नए सिरे से परीक्षा का आयोजन किया जाय। दूसरी मांग यह है कि भर्तियों में हुई गड़बड़ियों की जांच सी0बी0आई0 से कराई जाय। सरकार ने न तो कोई मांग मानी है और न मानने के मूड में दिखती है।
श्री अनिल यादव की अध्यक्षता वाले इस आयोग के खिलाफ नित्य कोई न कोई गंभीर आरोप लगते रहे हैं। अब जो ताजा आरोप सामने आया है, वह कम चौंकाने वाला नहीं है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक उ0प्र0 लोक सेवा आयोग ने शारीरिक रूप से वंचित अभ्यर्थियों के लिए अपनी विकलांगता का फोटो प्रमाण प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया है। यह केन्द्रीय सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय के 2009 में जारी किए गए दिशानिर्देशों के सर्वथा विपरीत है। इसे विकलांग अभ्यर्थी अपमानकारक मान रहे हैं। लोक सेवा आयोग प्रदेश में सरकारी सेवाओं में भर्तियों के लिए सुयोग्य व्यक्तियों का चयन करने वाली सर्वोच्च संस्था है। यह पी0सी0एस0, पी0पी0एस0 के जरिए डिप्टी कलेक्टर, डिप्टी एस0पी0 और दर्जनों नौकरियों के लिए परीक्षाएं लेती है, इंटरव्यू लेती है। सालों की मेहनत और कड़ी होड़ के बाद चयनित उम्मीदवार उच्च सेवाओं में भर्ती पाते हैं और उनके कैरियर बनते हैं। ऐसे में परीक्षाओं, इंटरव्यू या भर्ती की किसी भी अन्य प्रक्रिया में अनियमितता व बेईमानी की जरा भी गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। जरा सी गड़बड़ किसी भी काबिल युवा का कैरियर बिगाड़ सकती है और अयोग्य को भर्ती दिला सकती है। इसलिए भी लोकसेवा आयोग में बैठे अध्यक्ष और सदस्यों का आचरण किसी तरह के भी संदेह, शंका या आशंका से ग्रसित नहीं होना चाहिए। पर खेदजनक बात यह है कि यही सब हो रहा है। जब इतनी बड़ी संस्था के लोगों के प्रति ऐसा अविश्वास हो तो कोई यह कैसे मान ले कि सब कुछ ईमानदारी से होगा और किसी भी युवा के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं होगा।
सरकार एक निष्पक्ष जांच बिठा दे तो सब कुछ सामने आ जाएगा और यदि आरोप बेबुनियाद होंगे तो आयोग में लोगों की आस्था कायम तो होगी। समाजवादी पार्टी की सरकार को यह समझना चाहिए कि महज सत्तारूढ़ हो जाने से उसके नजरिए में ऐसा परिवर्तन नहीं हो जाना चाहिए कि वह न्याय की बात पूरी तरह अनसुनी कर दे।
आसमान छूता हवाई किराया
हवाई जहाज से यात्रा करने वाले तमाम यात्री इस बात को लेकर हमेशा परेशान रहते हैं कि एयरलाइन्स कम्पनियां जब देखो मनमर्जी से किराया बढ़ा देती हैं-खास तौर पर तब जब कोई त्योहार पड़ता है या छुट्टियां होती हैं। यह क्यों और कैसे होता है और सरकार इसकी अनुमति क्यों देती है, यह किसी के समझ में नहीं आता। लखनऊ से दिल्ली के बीच रोजाना 14 फ्लाइट चलती हैं जो चार एयरलाइन्स कम्पनियां संचालित करती हैं। इतनी ही फ्लाइट्स रोजाना दिल्ली से लखनऊ के बीच चलती हैं। इसके अलावा लखनऊ-मुम्बई सेक्टर पर 7 जहाज रोज जाते हैं और इतने ही आते हैं। रोजाना इंडिगो 6, जैट 4, एयर इंडिया 3 और गो एयर एक फ्लाइट लखनऊ से दिल्ली के बीच चलाता है। ये ही वहां से लखनऊ लौटती भी हैं। इनके अलावा कोलकाता, अहमदाबाद, बंगलुरू, हैदराबाद, पटना के बीच करीब 16 जहाज रोज जाते हैं और इतने ही आते हैं। इनमें से कुछ सीधे इन शहरों को जाते हैं, कुछ अन्य दिल्ली या दूसरे शहरों से होकर। इस तरह कुल मिलाकर देखा जाय तो लखनऊ से देश के विभिन्न शहरों को तीन दर्जन से अधिक फ्लाइट्स रोजाना आती-जाती हैं। इनके अलावा कई अंतर्राष्ट्रीय विमान सेवाएं भी यहां से संचालित होती हैं।
होली हो या दीवाली या गर्मियों की छुट्टियां या अन्य कोई त्योहार या विशेष मौका, एयरलाइन्स कम्पनियां मांग के बढ़ते ही अपने दाम बढ़ा देती हैं। एक मशहूर ट्रैवेल कम्पनी के अधिकारी बताते हैं कि पीक सीजन में लखनऊ से दिल्ली तक का किराया 13-14 हजार रुपए तक पहुंच जाता है जबकि सामान्य किराया 2 से 3 हजार के बीच होता है। सीधे से कहा जाय तो हवाई जहाज के टिकट इन खास मौकों पर ब्लैक में बेचे जाते हैं और लखनऊ-दिल्ली के बीच एक टिकट पर दस-दस हजार से भी ज्यादा का ब्लैक होता है। इसी तरह का हाल दूसरे शहरों को जाने वाली सेवाओं का होता है। मतलब यह है कि लखनऊ और दिल्ली के बीच जिस टिकट का दाम सामान्यत: दो से तीन हजार होता है, वह मांग बढ़ने पर 13-14 हजार हो जाता है। मुम्बई व दूसरे शहरों को जाने वाले विमानों का किराया इससे भी ज्यादा होता है। (एक गिलास पानी छोड़कर जहाज में अब बिना पैसे के खाने-पीने को कुछ नहीं मिलता, सो अलग)। यह जो अंकगणित है या हवाई कम्पनियों का अर्थशास्त्र है, वह बेईमानी से कम कुछ नहीं। मनमाने ढंग से किराया बढ़ाने का एक सीधा अर्थ तो यह होता है कि विमानों में सीटें तो उपलब्ध होती हैं मगर वे सामान्य किराए पर मुहैया नहीं कराई जातीं। यानी हवाई यात्रियों की खुलेआम लूट होती है। त्योहारों और विशेष मौकों पर अपने गंतव्यों को जाना उनकी मजबूरी होती है और इसी मजबूरी का फायदा खुली लूट के जरिए उठाया जाता है। जो किराया मनमाने ढंग से बढ़ा दिया जाता है, वह किसकी जेब में जाता है? एयरलाइन्स कम्पनियों के ना! इस किराया बढ़ोतरी से न तो विमान कर्मचारियों का कोई लाभ होता है और न ही सरकार का। विमान कंपनियों को बढ़ा हुआ किराया वसूलने के लिए लागत में भी कोई वृद्वि नहीं करनी होती है। वे पूरा पैसा हड़प जाती हैं और सरकार टापती रहती है या यूं कहिए कि यात्रियों की खुली लूट की तरफ देखना भी वह गंवारा नहीं करती। सांसदों का ध्यान अब इस ओर गया है। करीब 100 सांसदों ने नागरिक उड्डयन विभाग से मांग की है कि वह पीक सीजन में मनमाने ढंग से किराया वसूले जाने की प्रक्रिया को रेगुलेट करे। इन सांसदों ने खास मौकों पर खासकर किराया बढ़ाए जाने की आलोचना की है। ये सांसद विभिन्न राजनीतिक दलों और खासकर जम्मू कश्मीर, अंडमान निकोबार, केरल, पूर्वोत्तर के हैं जहां के किराए में भारी मनमानी वृद्धि अकसर विमान कम्पनियां करती हैं। लेकिन सरकार उनकी मांग मानने को फिलहाल उत्सुक नजर नहीं आ रही है। पहले सरकार घरेलू उड़ानों का अधिकतम किराया 20 हजार रुपए की अधिकतम सीमा पर फिक्स करने की सोच रही थी लेकिन अब उसने यह इरादा भी छोड़ दिया है। उसके पांव ठिठक गए हैं। कारण कोई नहीं जानता। सरकार किराया निर्धारण फ्री मार्केट के हवाले करना चाहती है। इसका औचित्य क्या है, कोई नहीं जानता।
विधायक जी, अब सरकारी ठेके नहीं!
विधायक जी अब संभल जाइए। सर्वोच्च न्यायालय ने पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है कि चुनाव में नामांकन के समय जिस किसी विधायक के पास सरकारी ठेके होंगे या चुने जाने के बाद वह सरकारी ठेके लेता है तो वह अपने पद से अयोग्य करार दिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला उत्तर प्रदेश में फरेंदा विधानसभा क्षेत्र के विधायक बजरंग बहादुर सिंह को अयोग्य घोषित कर दिए जाने पर की गई अपील पर आया है। न्यायालय ने उनको अयोग्य घोषित करने सम्बंधी आदेश को सही माना है। यह पंक्तियां प्रकाशित होने तक वहां उपचुनाव हो भी जाएगा।
अदालत ने कहा है कि जिस तरह से धनबल देश के राजनीतिक तंत्र पर अहितकारी प्रभाव डालता है, उसकी तरफ से हम आंख मूंदकर नहीं रख सकते। कोर्ट ने कहा कि विधायी प्रक्रिया की शुद्धता को सर्वोच्च माना जाना चाहिए और जन प्रतिनिधित्व कानून की सम्बंधित धारा की व्याख्या इस तरह की जानी चाहिए कि जिससे व्यक्तिगत हितों और विधायकों के दायित्वों का आपस में टकराव न हो। कानून की धारा 9-ए कहती है कि वह व्यक्ति जिसके और विहित सरकार के बीच कोई कन्ट्रैक्ट विद्यमान हो, विधायक होने के अयोग्य माना जाएगा। अदालत का कहना है कि इस धारा के मायने यह नहीं है कि केवल वे ही व्यक्ति अयोग्य माने जाएंगे, जिनके और सरकार के बीच चुनाव के समय कोई कन्ट्रैक्ट हो। धारा 9-ए का उद्देश्य विधायिका की शुद्धता को बनाए रखना है। यह बहुत विचित्र तर्क होगा कि वे व्यक्ति जो इस तरह के ठेके लिए हों चुनाव के समय तो अयोग्य मान लिए जाएं लेकिन चुने जाने के बाद विधायक मनमर्जी से ठेकेदारी करते रहें। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला दूरगामी प्रभाव डालने वाला है और इसका भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन कुछ असल सवाल दूसरे ही हैं। मसलन उन विधायकों का क्या होगा जो खुद ठेके नहीं लेते, दूसरों को दिलाते हैं और जैसा कि मुलायम सिंह यादव ने कहा विधायकों और सांसदों को अपनी निधि से खर्च करते समय अपने कमीशन की फिक्र ज्यादा रहती है। कुछ प्रभावशाली राजनीतिक नेता अपने समर्थकों को सरकारी ठेके दिलाते हैं और उन्हें उपकृत करते हैं। ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है कि ठेका चाहे कोई ले, उनसे आशीर्वाद लिए बिना कहानी आगे नहीं बढ़ सकती। सर्वोच्च न्यायालय के इस ताजा आदेश के बाद अब चुनाव आयोग को ऐसे सख्त उपाय करने चाहिए कि सरकारी ठेकों में प्रत्यक्ष के अलावा परोक्ष रूप से भी किसी की कोई दखलंदाजी न हो। क्या ही अच्छा हो कि सरकार खुद अपने स्तर से भी इसके उपाय करे। हालांकि इसके लिए बड़ी राजनीतिक इच्छा-शक्ति चाहिए होगी। आदर्श परिस्थिति यह होगी कि सभी सरकारी ठेके केवल बेरोजगार इंजीनियरों व दूसरे बेरोजगार तकनीकी युवाओं को दिए जाएं। इसके लिए ऐसे युवाओं का किसी एक विभाग में पंजीकरण कराया जा सकता है, उनकी छोटी-छोटी सहकारी समितियां बनाई जा सकती हैं या खुद-ब-खुद 4 या 5 के समूह में बद्ध होकर आने वाले ऐसे बेरोजगारों को पंजीकृत किया जा सकता है और ठेके दिए जा सकते हैं। इससे बहुतों को सरकार को बेरोजगारी भत्ता देने की आवश्यकता नहीं होगी।