पितृपक्ष में रखें इन बातों का ध्यान, पूर्वज करेंगे सभी मनोकामनाएं पूरी
भारत देश में प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक का समय पितृपक्ष यानी श्राद्ध कर्म के रूप में जाना जाता है। वर्तमान वर्ष में पांच सितंबर 2016 को पूर्णिमा तिथि के दिन से श्राद्ध का आरंभ होगा और 19 सितम्बर 2016 तक चलेगा।
भारतीय शास्त्रानुसार, श्रद्धयां इदम् श्राद्ध यानी पूर्वजों के नाम से पितरों के लिए श्रृद्धापूर्वक जो कर्म किया जाता है, वही श्राद्ध है। श्राद्ध के बारे में शास्त्रों में कहा गया है कि जिस कर्म विशेष से अच्छी प्रकार से पकाए हुए उत्तम व्यंजन को दूध, घी व शहद के साथ श्रृद्धापूर्वक पितरों के नाम से गाय, ब्राम्हण आदि को प्रदान किया जाता है, वही श्राद्ध है।
पूर्वजों के ऋण चुकाने का समय होता है पितृकाल
भारतीय संस्कृति में माता-पिता को देवताओं के समान माना जाता है और शास्त्रों के अनुसार यदि माता-पिता प्रसन्न होते हैं, तो सभी देवतादि स्वयं ही प्रसन्न हो जाते हैं। ब्रम्हपुराण में तो यहां तक कहा गया है कि श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाला मनुष्य अपने पितरों के अलावा ब्रम्हा, रूद्र, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, वायु, विश्वेदेव व मनुष्यगण को भी प्रसन्न करता है।
वेदों और शास्त्रों में कहा गया है कि पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है, जब वह अपने जीवन-काल में जीवित माता-पिता की सेवा करे और मरणोपरांत उनकी मृत्यु तिथि (बरसी) और पितृपक्ष में उनका विधिवत श्राद्ध करे। पुराणों में कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आता है तब पितृ पक्ष शुरू होता है।
हिन्दू धर्म के शास्त्रों में तीन प्रकार के ऋण कहे गए हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण व पितृ ऋण और इन में से पितृ ऋण के निवारण के लिए ही पितृ यज्ञ का वर्णन किया गया है, जिसे सरल शब्दों में श्राद्ध कर्म भी कहा जाता है।
हिन्दू धर्म की मान्यता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य का पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश) से बना स्थूल शरीर तो यहीं रह जाता है, लेकिन सूक्ष्म शरीर ( अर्थात- आत्मा) मनुष्य के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर द्वारा बनाए गए कुल 14 लोकों में से किसी एक लोक को जाती है।
यदि मनुष्य ने अपने जीवन में अच्छे कर्म किए होते हैं, तो उसकी आत्मा स्वर्ग लोक, ब्रम्ह लोक या विष्णु लोक जैसे उच्च लोकों में जाती है, जबकि यदि मनुष्य ने पापकर्म ही अधिक किए हों, तो उसकी आत्मा पितृलोक में चली जाती है और इस लोक में गमन करने के लिए उन्हें भी शक्ति की आवश्यकता होती है, जिसे वे अपनी संतति द्वारा पितृ पक्ष में किए जाने वाले श्राद्ध के भोजन द्वारा प्राप्त करते हैं।
पितृपक्ष में पृथ्वी लोक में विचरण करते हैं हमारे पूर्वज
शास्त्रों में बताया गया है, मृत्यु के देवता यमराज पितृ काल में जीव को सभी बंधनों से मुक्त कर देते हैं। उस ग्रह योग (श्रवण पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या तक) में पितृलोक पृथ्वी के सबसे करीब होता है। मृत्यु लोक में आए पितर कुशा की नोकों पर विराजमान होकर अपने-अपने स्वजनों के यहां बिना आह्वान किए भी पहुंचते हैं और उनके द्वारा किए गए तर्पण और भोजन से तृप्त होकर आशीर्वाद देते हैं। पितरों के प्रसन्न रहने से घर में सुख-शांति और धन-संपदा आती है।
शास्त्रों में पितरों को चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी सहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं। गरुड़ पुराण व मत्स्य पुराण में उल्लखित है कि श्रद्धा से तर्पण की गई वस्तुएं पितरों को उस लोक एवं शरीर के अनुसार प्राप्त होती हैं, जिसमें वे रहते हैं। कुछ लोग कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं। मान्यता है कि कुत्ता और कौआ यम के नजदीकी हैं और गाय वैतरणी पार कराती है। हमारे शरीर को जो चेतना संचालित करती है, उसे आत्मा कहा गया है। अध्यात्म विज्ञान की माने तो आत्मा का अस्तित्व इहलोक और परलोक दोनों में समान रूप से है।
शास्त्रों में इस बात का उल्लेख है कि मृत्यु पश्चात मनुष्य चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। मृत्यु के पश्चात आत्मा की तीन स्थितियां बताई गई हैं। पहला, अधोगति यानी भूत-प्रेत-पिशाच आदि योनि में जन्म लेना। दूसरा, स्वर्ग प्राप्ति और तीसरा मोक्ष।
गरुड़ पुराण में उल्लेख है कि इसके अलावा भी जीव को एक ऐसी गति मिलती है, जिसमें उसे भटकना पड़ता है। इसे प्रतीक्षा काल कहा जाता है। इन्हीं भटकी हुई आत्माओं की मुक्ति के लिए पितरों का तर्पण किया जाता है।
मान्यता है कि मृत्यु के बाद आत्मा जब देह छोड़ती है तो जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति की स्थिति के अनुसार तीन दिन के भीतर वह पितृलोक चली जाती है। इसलिए तीज का प्रावधान है। कुछ आत्माएं 13 दिन में पितृलोक जाती हैं, इसीलिए त्रयोदशाकर्म किया जाता है। कुछ सवा माह अर्थात् 37वें या 40वें दिन या फिर एक वर्ष बाद पितृलोक जाती हैं। इसीलिए तर्पण किया जाता है। पितृलोक के बाद उन्हें पुन: धरती पर कर्मानुसार जन्म मिलता है। अगर वे ध्यानमार्गी रही हैं तो उन्हें जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है, जिसे मोक्ष कहा जाता है।
तिथि के अनुसार होता है पूर्वजों का श्राद्ध
भारतीय संस्कृति के अनुसार पितृपक्ष में तर्पण व श्राद्ध करने से व्यक्ति को पूर्वजों का आर्शीवाद प्राप्त होता है, जिससे घर में सुख-शान्ति व समृद्धि बनी रहती है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार जिस तिथि को जिस व्यक्ति की मृत्यु होती है, पितर पक्ष में उसी तिथि को उस मृतक का श्राद्ध किया जाता है।
पितृपक्ष में रखें इन विशेष बातों का ध्यान
श्राद्ध में सात पदार्थ- गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल महत्वपूर्ण हैं। तुलसी से पितृगण प्रलयकाल तक प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं। मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। श्राद्ध सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र से या पत्तल के प्रयोग से करना चाहिए। श्राद्ध में लोहे का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। पीतल की थाली में विशुद्ध जल भरकर, उसमें थोड़े काले तिल व दूध डालकर अपने समक्ष रख लें एवं उसके आगे दूसरा खाली पात्र रख लें। तर्पण करते समय दोनों हाथ के अंगूठे और तर्जनी के मध्य कुश लेकर अंजली बना लें अर्थात दोनों हाथों को परस्पर मिलाकर उस मृत प्राणी का नाम लेकर तृप्यन्ताम कहते हुए अंजली में भरेे हुए जल को दूसरे खाली पात्र में छोड़ दें।
एक-एक व्यक्ति के लिए कम से कम तीन-तीन अंजली तर्पण करना उत्तम रहता है। जल के थोड़े भाग को ऑखों में लगाएं और ऊॅ त्रिपुरायै च विद्महे भैरव्यै च धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदयात्। इस मन्त्र की दो माला जाप करने के पश्चात पूजन स्थान पर रखे हुए जल के थोड़े भाग को ऑखों में लगाएं, थोड़ा जल घर में छिड़क दें और बचे हुए जल को पीपल के पेड़ में अर्पित कर दें। ऐसा करने से घर से नकारात्मक उर्जा निकल जायेगी और घर की लगभग हर प्रकार की समस्या से आप मुक्त हो जायेंगे।