फिर किसलिए मांगा अलग राज्य
राजनीतिज्ञों ने अपनी रोटियां सेंकने के अलावा पहाड़ के लिए कुछ भी काम नहीं किया। पहाड़ के युवा आज बेरोजगारी झेलने को विवश हैं। पहाड़ की महिलाएं घास काटते समय चट्टानों से गिरकर दम तोड़ देती हैं। यही आज प्रदेश की नियति बनी है। फिर क्या इसी दिन के अलग राज्य की मांग की थी, यह सवाल आज बना हुआ है।
गोपाल सिंह, देहरादून
रीब पंद्रह साल पहले लंबे आंदोलन के बाद संयुक्त उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड पृथक राज्य तो बना, लेकिन तत्कालीन राजनीतिज्ञों की लापरवाही के चलते पहाड़ी राज्य की अवधारणा समाप्त हो गई। आज भी पहाड़ के लोग पलायन को मजबूर हैं। अलग राज्य बनने से केवल देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर, नैनीताल जनपदों को ही लाभ मिला। देहरादून व नैनीताल जनपद में भी केवल मैदानी हिस्सों को। पहाड़ को लाभ मिलता तो आज पहाड़ के युवा छोटी-छोटी नौकरियों को पलायन के लिए मजबूर नहीं होते। चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल बड़े-बड़े दावे तो करते हैं, लेकिन कुर्सी मिलते ही पांच साल तक सबकुछ भूल जाते हैं।
दरअसल,उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना और आंदोलन पर्वतीय राज्य की अवधारणा के साथ शुरू हुआ था। बाद में आंदोलनकारी ताकतों के बिखरने पर इस आंदोलन को भाजपा व कांग्रेस ने संगठन के बल पर अपने अनुसार चलाना शुरू कर दिया। बताते चलें कि कांग्रेस इस राज्य के खिलाफ थी। पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने तो यहां तक कह दिया कि उत्तराखंड राज्य मेरी लाश पर बनेगा। हालांकि यह बात अलग है कि राज्य बनने के बाद वह सत्ता सुख भोगने के लिए प्रथम निर्वाचित मुख्यमंत्री बनने इतने छोटे से राज्य में पहुंच गए। उन्होंने पांच साल में पहाड़ के लिए कुछ भी नहीं किया, जो भी कार्य किए हरिद्वार व ऊधमसिंहनगर के लिए ही किए। अब थोड़ा पीछे की ओर मुड़कर देखें तो पर्वतीय राज्य की अवधारणा समाप्त करने का कार्य सबसे पहले भाजपा हाईकमान ने ही किया। उसने वर्ष 1998 में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम बनाया। इसी के तहत वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश का विभाजन कर उत्तराखंड का निर्माण हुआ। इस अधिनियम के प्रावधानों में पर्वतीय राज्य की अवधारणा में काफी प्रहार थे। पुनर्गठन अधिनियम के साथ उत्तर प्रदेश सरकार ने 26 संशोधन नत्थी कर केंद्र सरकार को भेजे थे। इस संशोधन के 11 वें, 12 वें तथा 20 वें बिंदु विभाजन के बनने वाले उत्तराखंड की जल विद्युत परियोजनाओं, सिंचाई नहरों, तथा मूल जल स्रोतों पर उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकार सुरक्षित रखने की सिफारिश करते हैं। इन सिफारिशों को भाजपा की तत्कालीन केंद्र सरकार ने किसी न किसी रूप में स्वीकार किया। इसके अलावा केंद्र सरकार ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए गंगा मैनेजमेंट बोर्ड बनाने का प्रावधान कर उत्तराखंड के अधिकारों का अतिक्रमण किया। यही वजह है कि उत्तराखंड के सबसे बड़े जल संसाधन पर आज भी उत्तर प्रदेश का कब्जा है। पर्वतीय राज्य की जड़ पर भाजपा ने यहीं पर सबसे बड़ा कुठाराघात किया। यहां भाजपा की वैचारिक एकता के भी खूब दर्शन होते हैं। उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविन्द बल्लभ पंत पहले ही कह गए थे कि गंगा, यमुना और शारदा नदी प्रणालियां और पर्वतीय क्षेत्र के सभी जल स्रोत उत्तर प्रदेश के काम आएंगे। उत्तराखंड राज्य बनने के समय तत्कालीन भाजपा सरकार ने गोविंद बल्लभ पंत के इस सिद्धांत का अक्षरश: पालन भी किया। राज्य बनने के बाद अंतरिम सरकार भी सवा साल तक भाजपा की रही। इस सरकार ने आत्ममुग्धता में प्रदेश के लिए कोई भी अच्छा काम नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा पहले चुनाव में बुरी तरह से हार गई और कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई।
इधर राज्य बनाने के धुर विरोधी रहे नारायण दत्त तिवारी के हाथों कांग्रेस हाईकमान ने सत्ता सौंप दी। उत्तराखंड में नई कार्य संस्कृति की आवश्यकता थी, लेकिन तिवारी जी ने उत्तर प्रदेश के सभी विकृत रूपों को उत्तराखंड के शासन तंत्र की धमनियों में प्रवाहित करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी। तिवारी राज के पांच सालों में उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का विकृत रूप बनकर बाहर आ गया। भाजपा सत्ता में आई तो वह भी नेतृत्व परिवर्तन से बाहर नहीं निकल पाई। उसके बाद फिर से एक बार कांग्रेस सत्ता में काबिज हुई। इस बार कांग्रेस ने विजय बहुगुणा को कुर्सी सौंपी, जो पिता के नाम से बहुगुणा जरूर थे, लेकिन पहाड़ के दुख दर्द के बारे में उनको कुछ भी पता नहीं था। उनसे तो पर्वतीय राज्य की अवधारणा आगे बढ़ाने की कल्पना करना भी बेमानी है। वे तो आपदा के पीड़ितों को राहत पहुंचाने तक में विफल रहे। यही कारण रहा कि वर्ष 2013 में आई आपदा में बहुगुणा को भी अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा था। इसके बाद राज्य आंदोलन के दौरान सक्रिय रहे पहाड़ पु़त्र के नाम से विख्यात हरीश रावत को कुर्सी सौंपी। इससे लोगों को लगा कि पहली बार उत्तराखंड के जमीनी नेता को मुख्यमंत्री का ताज मिला है। हांलांकि कई बार लग रहा है कि राज्य की परेशानियों को मुख्यमंत्री हरीश रावत गंभीरता से ले रहे हैं। हालांकि अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। पिछले डेढ़ दशक में पहली बार मुख्यमंत्री आवास पर पहाड़ का प्रमुख त्योहार घी संग्रांद व हरेला धूमधाम से मनाया गया। इसके अलावा पहाड़ से पलायन को रोकने की दिशा में वहां के अनाजों को बढ़ावा देने के लिए कुछ कार्य करते दिख रहे हैं। हालांकि इसमें अभी बहुत कुछ करना बाकी है। अब तक प्रदेश में शासन कर चुकी सरकारों की नाकामियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज रवंई घाटी का सेब कौड़ियों के भाव बिक रहा है, जबकि मिठास में यह कश्मीर के सेब को टक्कर देता है। इसके अलावा रवांई घाटी में टमाटर व राजमा भी बहुतायत में पैदा होता है, लेकिन इसके विपणन व बाजार तक पहुंचाने की उचित व्यवस्था न होने से इसका उचित मूल्य किसानों को नहीं मिल पाता है। उद्यान विभाग की सही नीति न होने के कारण हिमाचल ब्रांड का सेब आज 120 रुपये प्रति किलो बिक रहा है तो दूसरी ओर रवांई का सेब 25 से 60 रुपये प्रति किलो तक बिक रहा है। यही कारण है कि हिमाचल की सीमा से लगे हुए इस क्षेत्र के बागवान अपना सेब हिमाचल ले जा रहे हैं। जहां पर उनका सेब 70 रुपये किलो खरीदा जा रहा है। इसके बाद इसकी हिमाचल ब्रांडिंग कर 120 रुपये किलो बेचा जा रहा है। उत्तराखंड के इन काश्तकारों को इसके लिए दो राज्यों को एंट्री टैक्स भरना पड़ता है। दूसरी ओर जो काश्तकार सेब को देहरादून व सहारनपुर की मंडियों में ला रहे हैं उनको 25 से 60 रुपये तक प्रति किलो मिल रहे हैं। इससे पता चलता है कि जिस पहाड़ी राज्य की अवधारणा को लेकर हमारे शहीदों ने राज्य की मांग की थी वह आज डेढ़ दशक बाद भी अधूरी है। आज पहाड़ के युवा लगातार पलायन को विवश हैं। इसका सीधा कारण है कि वह गांव में कुछ भी करते हैं तो उससे इतना पैसा नहीं मिल पाता है कि उनके परिवार को दो जून की रोटी मिल सके। भले ही सरकार की ओर से गांव हमारी रीढ़ है इनका विकास सरकार की प्राथमिकता जैसे नारे लिखे पोस्टर व बैनर आपको जगह-जगह देखने को मिल जाएंगे, लेकिन राजनीतिज्ञों ने अपनी रोटियां सेंकने के अलावा पहाड़ के लिए कुछ भी काम नहीं किया। पहाड़ के युवा आज बेरोजगारी झेलने को विवश हैं। पहाड़ की महिलाएं घास काटते समय चट्टानों से गिरकर दम तोड़ देती हैं। यही आज प्रदेश की नियति बनी है। फिर क्या इसी दिन के अलग राज्य की मांग की थी, यह सवाल आज बना हुआ है।
जो काश्तकार सेब को देहरादून व सहारनपुर की मंडियों में ला रहे हैं उनको 25 से 60 रुपये तक प्रति किलो मिल रहे हैं। इससे पता चलता है कि जिस पहाड़ी राज्य की अवधारणा को लेकर हमारे शहीदों ने राज्य की मांग की थी वह आज डेढ़ दशक बाद भी अधूरी है।
दस्तक ब्यूरो, देहरादून
राज्य बनने के करीब डेढ़ दशक बाद भी उत्तराखंड के जल संसाधनों पर उत्तर प्रदेश कब्जा जमाए हुए है। इसके मूल में देखा जाए तो सीधे तौर पर इसके लिए तत्कालीन उप्र की भाजपा सरकार व केंद्र में बैठी भाजपा सरकार ही रही हैं। इन दोनों ही सरकार ने राज्य पुनर्गठन अधिनियम में जो कुछ नियम बनाए उनका लाभ अब तक उत्तर प्रदेश को मिल रहा है। इसके बाद से दस साल तक केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही, लेकिन उसने इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। इसका खामियाजा यह हो रहा है कि आज भी देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर व नैनीताल जनपद में कई जल संपत्तियों पर उत्तर प्रदेश कब्जा जमाए बैठा। इससे उत्तराखंड को जो नुकसान हो रहा है इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। हालांकि पिछले दिनों सपा के राष्ट्रीय महासचिव व उप्र सरकार के सलाहकार (राज्य पुनर्गठन समन्वय समिति) विनोद बड़थ्वाल ने कहा कि वर्तमान उप्र के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव व उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत के बीच अच्छे संबंध हैं। यह चाहें तो विवादित संपत्तियों पर मिल बैठकर कुछ फैसला ले सकते हैं। हालांकि प्रदेश सरकार की ओर से इस दिशा में फिलहाल कोई कदम उठता नहीं दिख रहा है।
दरअसल राज्य बनने के समय तत्कालीन भाजपा की सरकार ने उत्तर प्रदेश राज्य पुनर्गठन विधेयक 1998 पारित किया। इस विधेयक में ऐसे प्रावधान किए गए कि राज्य की जल संपत्तियों पर उत्तर प्रदेश का कब्जा हो सके। इस अधिनियम के तहत ही वर्ष 2000 में उत्तराखंड अस्तित्व में आया। इसके आधार पर आज तक उत्तर प्रदेश उत्तराखंड के अंदर जमीन, भवनों, बांधों, बैराजों, झीलों पर कब्जा जमाकर बैठा है। उत्तर प्रदेश का उत्तराखंड की 41 नहरों, छह झीलों और तालाबों, 4027 आवासीय भवनों, 357 अनावासीय भवनों, सिंचाई विभाग की 13813.433 हेक्टेयर भूमि पर काबिज है। इसमें से सिर्फ कुंभ क्षेत्र के अंतर्गत 696.576 हेक्टेयर भूमि पर उत्तराखंड को हस्तांतरित की है। इसके अलावा उत्तराखंड जल विद्युत निगम को हस्तांतरित राम गंगा बांध तथा उसकी संरचनाएं शारदा नहर, खटीमा विद्युत गृह की संरचनाएं, पथरी व मुहम्मदपुर विद्युतगृहोंकी संरचनाओं पर भी उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग का कब्जा है। टिहरी जल विद्युत परियोजना पूरी तरह से उत्तराखंड की भूमि पर है,लेकिन इसमें भी उत्तर प्रदेश का पूजी अंश 25 प्रतिशत है। इन सब मामलों पर केंद्र सरकार भी उत्तराखंड की मदद नहीं करती है। इसकी वजह उत्तर प्रदेश का वोट बैंक है। उत्तराखंड से महज पांच सांसद हैं, जबकि उत्तर प्रदेश से 80 सांसद। ऐसे में प्रदेश सरकार को इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है, ताकि अपना हक उत्तर प्रदेश से मिल सके।