दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

वैदिक काल में उन्नतिशील था कृषि कर्म

हृदयनारायण दीक्षित : वैदिक काल में हमारे पूर्वज आर्य कहे जाते थे। ऋग्वेद इन्हीं आर्यो की रचना है। कुछेक विद्वानों द्वारा आर्यो को घुमंतू, चरवाहा या किसान ही बताया गया है। चरवाहा या घुमंतू होना कृषि विकास से पूर्व के सामाजिक विकास का चरण होता है। कृषि करने वाले लोग घुमंतू नहीं हो सकते। कृषि कार्य के लिए स्थान विशेष पर रहना आवश्यक होता है। भूक्षेत्र विशेष में खेती होती है। उसी कृषि क्षेत्र के पास निवास भी जरूरी होता है। ऋग्वेद में कृषि के साथ साथ तमाम अन्य उद्योगों का भी उल्लेख है। किसान भले ही हल स्वयं बना लें लेकिन सुई, तलवार या शिरस्त्राण का निर्माण जरूरी तकनीकी के अभाव में संभव नहीं हो सकता। कृषि अपने आप बड़ा उद्योग है। कृषि कार्य में तमाम उपकरण जरूरी होते हैं। वैदिक काल में कृषि कर्म उन्नतिशील था। इसलिए कृषि कार्य से जुड़े उपकरणों का निर्माण भी आवश्यक था। कृषि उपकरणों की जरूरत को पूरा करने के लिए कुशल कारीगरों का स्वतंत्र वर्ग भी था। लकड़ी के काम करने वाले कारीगर अलग थे और लोहे का फाल, हंसिया आदि बनाने वाले कुशल श्रमिक भी अलग थे। आर्यो को धनुषवाण, कटार और भाला जैसे हथियारों की जानकारी थी। धातु के कृत्रिम पैर भी लगाए जाते थे। ऋग्वेद के एक सूक्त के अनुसार विपश्ला नाम की महिला ने युद्ध में हिस्सा लिया था। तब महिलाएं भी युद्ध में जाती थीं। युद्ध में विपश्शला का पैर टूट गया था। अश्विनी देवों ने उसके टूटे पैर की जगह धातु का अंग लगाया था – आयसी जंघा प्रत्याषत्तम। (1.116.15) अश्विनी देवों को सुयोग्य वैद्य भी बताया गया है। तमाम लोग इस कथा को काल्पनिक कह सकते हैं। वे विपश्शला को काल्पनिक नाम बता सकते हैं और अश्विनी तो देव हैं ही। पूरी कथा को काल्पनिक भी मान लें तो भी दुनिया के इतिहास में कृत्रिम पैर लगाने की कल्पना भी पहली बार ऋग्वेद में ही मिलती है। कल्पना शून्य से नहीं उगती। सारी कल्पनाओं का स्रोत तत्कालीन समाज ही होता है। ऋग्वेद में धातु उद्योग का उल्लेख है और धातु कल्पना नहीं है। ऋग्वेद में रथों का उल्लेख है, रथों को खीचने वाले घोड़ों, के उल्लेख हैं। रथ निर्माण का काम अच्छी तकनीकी के अभाव में नहीं हो सकता। वैदिक पूर्वज दाढ़ी कटवाते थे। अग्नि की स्तुति में कहा गया है कि अग्नि दाढ़ी बनाने वाले व्यक्ति की तरह भूमि के बड़े भाग को अन्न रहित कर देते हैं। (10.14.24) दाढ़ी बनाने वाला धातु के उपकरण से चेहरे को बाल रहित करता है। अग्नि भूमि को अन्न रहित करते हैं। क्या यह भी कल्पना है?
अग्नि प्रिय देवता हैं। ऋषि उनकी व्यापक शक्ति बताते हैं और अग्नि जलाए रखने के लिए लोहार वाली धौंकनी का उदाहरण देते हैं “अग्नि वैसे ही प्रकट व विस्तृत हैं जैसे लोहार धौंकनी द्वारा अग्नि प्रज्जवलित करते हैं।” (5.9.5) ऋग्वेद के रचनाकाल में धातु उद्योग का पर्याप्त विकास हो चुका है। इस उद्योग से जुड़े श्रमिक व कारीगर समाज में सम्मानित भी हैं। तमाम मंत्रों में उनकी स्तुतिपरक प्रशंसा है। इन कारीगरों द्वारा किए गए कई काम वैदिक ऋषियों को आश्चर्यजनक लगते हैं। कारीगर के लिए प्रायः ‘ऋभु’ शब्द का प्रयोग हुआ है। एक मंत्र में ऋभुओं द्वारा अश्विनी कुमारों के लिए बनाए गए विचित्र रथ का उल्लेख है, “ऋभुओं ने अश्विनी कुमारों के लिए बिना घोड़े वाला तीन पहिए का रथ बनाया” (4.36.1) बिना घोड़े वाला रथ कवि ऋषि की कल्पना भी हो सकता है और यंत्र चालित ऊर्जा का उपकरण भी लेकिन यह बात पक्की है कि तब रथ निर्माण की कला का खूबसूरत विकास हो रहा था।


कारीगरों व श्रमिकों के सामजिक सम्मान व यश प्रतिष्ठा के मंत्र सूक्त बड़े प्यारे हैं। आधुनिक काल में सामाजिक न्याय की चर्चा होती है। संप्रति शिक्षित विद्वानों का आदर प्रथम है लेकिन वैदिक समाज के कारीगर ऋषियों से भी ज्यादा सम्मानित है। वे अपनी कर्मकुशलता के दम पर देवता बन गए थे। ऋषि वामदेव ने उनकी स्तुति (4.35.8) में कहा है कि “आप कर्म कुशलता से देवता बने हैं – देवासों अभवता सुकृत्या। आश्चर्यजनक बात है मनुष्य से देवता हो जाना। आचार्य श्रीराम शर्मा ने ऋग्वेद के अनुवाद (मण्डल 4, पृष्ठ 55) में लिखा है, “पौराणिक संदर्भ मंे वे (ऋभु) मनुष्य थे, जो श्रेष्ठ कर्मो के आधार पर देव बने।” बिल्कुल सही लिखा है, देवत्व मनुष्यत्व के विकास का ही महत्वपूर्ण चरण है। ऋग्वेद के रचनाकाल में ‘सुकृत्य’ द्वारा देवत्व की उपलब्धि को भी संभव बताया गया है। ऋषि विश्वामित्र के मंत्र में भी यही बात कही गई है कि “कारीगरों ने कर्म कुशलता के आधार पर देवत्व अमृत्व पाया।” (3.60.1 व 3) मजेदार बात है कि देवों ने कारीगर से देवता बने इन नए देवों से ईष्र्या नहीं की। देवों ने उनके कर्मकौशल की प्रशंसा की (4.33.9) बताते हैं कि अग्नि ने भी उनकी प्रशंसा शुभाशंसा की कि आप अमर पथ पर गमन करें। (4.35.3) कर्मकुशलता और सतत् कर्म जीवन का सौन्दर्य हैं। इसका प्रतिफल प्रत्येक कालखण्ड में सौभाग्यशाली है। वैदिक काल में यह देवत्व देता है, आधुनिक काल में भी यशदायी है। मनुष्य या कारीगर ऋभु ही कर्म कुशलता के कारण देवता नहीं बने। जान पड़ता है कि ऋग्वेद के सुप्रतिष्ठित सभी देवता कर्मकुशलता के कारण ही उच्च पदस्थ बने हैं। ऋषि कवि के अनुसार इन्द्र भी श्रेष्ठ कर्म के कारण यशस्वी बने हैं।” (3.36.1) हम सब अपना ज्यादातर काम दाहिने हाथ से करते है। इन्द्र के दाहिने हाथ में कर्म कुशलता है। (1.100.9) इन्द्र ने अपने देवत्व के बल पर शत्रु नहीं जीते। पुरूषार्थी कर्मठ इन्द्र शत्रुओं पर विजय पाते हैं। (10.29.8) ऋषि बताते हैं कि “इन्द्र ने अपने कर्म पुरूषार्थ के बल पर शत्रुओं को दूर भगाया है।” (वही 10) इन्द्र कर्म करते हैं। कर्मकुशल हैं। स्वाभाविक ही वे अकर्मण्य और आलसी लोगों को पसंद नहीं कर सकते। ऋषि बताते हैं “इन्द्र ने अकर्मण्य और आलसी प्रजाजनों को निन्दनीय बनाया। (4.28.4) इन्द्र आदि देव संभवतः पहले साधारण थे। वे अपनी कर्मकुशलता के कारण देवता बनें। यहां सभी संदर्भो से इन्द्र का नाम हटा दें तो सभी मनुष्य पुरूषार्थ और कर्मकुशलता के कारण दिव्य देवत्व प्राप्त करने के अधिकारी हैं।

ऋग्वेद के ऋषि विश्व मानवता को यही संदेश देना चाहते थे। श्रमिकों को देवत्व मिलने का निष्कर्ष सुंदर हैं। यहां श्रमिक भी देवत्व के अधिकारी हैं। श्रमिकों के शोषण पर तमाम बाते होती हैं। कार्लमाक्र्स ने इसी आधार पर नया अर्थचिंतन प्रस्तुत किया था। वामपंथी स्वयं को श्रमिकों का हितैषी मानते हैं। ऐसा दावा करना किसी भी पक्ष का अधिकार है। उन्होंने इतिहास की नई व्याख्या की लेकिन श्रमिक सम्मान का कोई ऐतिहासिक उदाहरण वे नहीं दे सके। वे सामाजिक विकास के प्रथम चरण को आदिम साम्यवाद कहते हैं। ऋग्वेद का समाज उनके आदिम साम्यवादी प्रथम चरण से काफी विकास कर चुका था। ऋग्वेद में श्रम विभाजन की स्थिति सुस्पष्ट है। प्रकृति की शक्तियों और उनके प्रभाव का अध्ययन विकासशील स्थिति में है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हो चुका है। वामपंथी मित्र ऋग्वेद में श्रम, श्रमिक व कारीगरी की महत्ता नहीं देखते। इन्द्र ऋग्वेद के सर्वोपरि देवता हैं। कारीगर श्रम कुशलता के कारण ही इन्द्र आदि देवों के भाई बने थे (4.33.2) दुनिया के इतिहास में श्रमिक वर्ग के सम्मान का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में ही मिलता है। व्यापारी का उल्लेख भी सर्वप्रथम ऋग्वेद में ही है। भारत के सुदूर अतीत समाज में श्रमिक का आदर काव्य अभिलेखीय साक्ष्य है। इसी से प्रेरित होकर श्रमिक सम्मान का औचित्य आधुनिक काल में भी संभव क्यों नहीं हो सकता?

(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं)

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