बिहार में नीतीश-पासवान-कुशवाहा की तिकड़ी क्या कोई नया गुल खिलाएगी ! जानिए
आरक्षण के मुद्दे को लेकर बिहार में राजनीति की एक नयी कड़ी बनती दिख रही है, या यूं कहें कि आने वाले लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के लिए मुद्दे तलाशकर बिहार में राजनीतिक जमीन की तलाश की जा रही है और भाजपा के साथ रहकर छोटे दल अपनी स्थिति को मजबूत करने की कोशिश में लगे हुए हैं ।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के साथ ही रालोसपा प्रमुख और केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की नजदीकियां बढ़ती जा रही हैं, जो आने वाले समय में आरक्षण के मुद्दे पर एक बड़ी लड़ाई लड़ने का मैदान तैयार करते नजर आ रहे हैं ।
नीतीश की दो टूक, क्या हैं मायने
पिछले दिनों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का दो टूक कि कुछ भी हो, सांप्रदायिक ताकतों से कभी समझौता नहीं कहेंगे। उनकी इस तल्खी के साथ ही विशेष राज्य के दर्जे की मांग को लेकर केंद्र सरकार की ओर कड़ा रूख राजनीतिक जानकारों के हिसाब से उनके बदले रूप का इशारा कर रहा है।
अंबेदकर जयंती के बहाने, मिलेगी तिकड़ी
तिकड़ी का बयान-एनडीए में हैं और रहेंगे
रविवार को पटना में नीतीश कुमार के साथ लगभग डेढ़ घंटे की मुलाकात के बाद रामविलास पासवान ने इस बात को भी साफ कर दिया कि हम सभी एनडीए का हिस्सा हैं और आगे भी रहेंगे। लोजपा सुप्रीमो ने कहा कि हमारी कोशिश होगी कि 2014 की स्थिति फिर से देश में बने और एनडीए की जीत हो। ऐसे में सवाल उठता है कि एनडीए के अंदर नीतीश और पासवान की गुटबंदी के सियासी मायने क्या हैं?
एनडीए के घटक दलों के नेता भी ऑफ रिकॉर्ड लगातार इस बात का जिक्र करते हैं कि वाजपेयी सरकार वाली बात इस गठबंधन में नहीं है। इसके पीछे बीजेपी का मजबूत होना प्रमुख कारण हो सकता है। 1999 की बात करें तो उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी दी को कई दलों के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी थी, जबकि 2014 में बीजेपी अकेले बहुमत में आई। ऐसे में एनडीए के अंदर नीतीश और रामविलास की जुगलबंदी भी 2019 में अपनी स्थिति मजबूत करने की दिशा में एक पहल है।
बिहार में चलती है जाति की राजनीति
बिहार में आज भी जाति आधारित राजनीति चलती है। पिछले आम चुनाव की ही बात करें तो जाति वोट हावी रहा और यही वजह रही कि बिहार में राजद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। इसी आधार पर नीतीश, पासवान और कुशवाहा के साथ मिल जाने से जो समीकरण बन रहा है उस हिसाब से गैर-यादव ओबीसी और महादलितों को मिलाकर 38 प्रतिशत का वोटबैंक बनता है।
बिहार में जातिगत राजनीति की बात करें तो नीतीश कुमार को राज्य में कुर्मी और कोयरी जातियों के प्रतिनिधि के तौर पर देखा जाता है, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा कोयरी वोटबैंक पर पहले ही सेंध लगा चुके हैं। लेकिन अगर कुशवाहा भी नीतीश के साथ आते हैं तो कोयरी वोटबैंक और मजबूत होगा।
वैसे इन तीनों में भी दरार कम नहीं रही है। बता दें कि जब नीतीश कुमार ने पिछले चुनाव में दलितों पर मास्टर स्ट्रोक खेलते हुए दलितों में महादलित की घोषणा की थी तो राम विलास पासवान ने इसका विरोध किया था। इसी तरह उपेंद्र कुशवाहा भी नीतीश कुमार से समय-समय पर दूरी बनाते नजर आते हैं और मानव श्रृंखला में नीतीश के साथ नहीं, राजद के साथ नजर आते हैं।
दे सकते हैं दोस्ती को नया रंग
जाति की बात करें तो महादलित आयोग की सिफारिशों पर, 22 दलित जातियों में से 18 (धोबी, मुसहर, नट, डोम और अन्य) को महादलित का दर्जा दे दिया गया था। दलितों की कुल आबादी में इनकी संख्या 31 फीसदी के लगभग है। इतना ही नहीं चमार, पासी और धोबी को भी इसमें शामिल कर दिया था।
अब सिर्फ पासवान (दुसाध) ही महादलित से बाहर हैं जिन्हें राम विलास पासवान का वोटबैंक कहा जाता है। माना ये जा रहा है कि मुख्यमंत्री दलितों के राष्ट्रीय अधिवेशन में पासवान को महादलित की श्रेणी में शामिल करने की घोषणा कर सकते हैं।एेसे में पासवान और नीतीश की दोस्ती को नया रंग मिल सकेगा।
राजद लगातार डाल रहा है डोरे
अब उपेंद्र कुशवाहा की बात करें तो उन्हें राजद ने खुला आमंत्रण दिया है। कुशवाहा दिल्ली के एम्स अस्पताल में पिछले दिनों लालू यादव से भी मिलने पहुंचे थे, जिसके बाद राजनीतिक महकमे में कई तरह के कयास लगाए गए। वहीं आरजेडी अब यह भी दावा कर रही है कि पासवान जल्द ही महागठबंधन में शामिल हो सकते हैं।
आरजेडी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने कहा कि पासवान और आरजेडी के बीच बातचीत चल रही है। पासवान एनडीए में रहकर घुटन महसूस कर रहे हैं। हालांकि राम विलास पासवान ने इसपर सफाई देते हुए कहा है कि वह एनडीए को छोड़ने नहीं जा रहे हैं, लेकिन राजनीति में अब ऐसे दावों का बहुत ज्यादा महत्व नहीं रह गया है।
भाजपा का दावा-एनडीए से नहीं जाएगी ये तिकड़ी
इसके अलावा बीजेपी के वरिष्ठ नेता ने पासवान का किसी और गठबंधन या पार्टी में शामिल होने की खबरों को सिरे से नकार दिया है। बीजेपी के नेता का कहना था कि 14 अप्रैल को अंबेदकर जयंती के दिन हो रहे दलित अधिवेशन का निमंत्रण तो डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी को भी मिला है और वह भी उस अधिवेशन में शामिल होंगे। इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि वह कोई अलग फ्रंट बनाएंगे। उन्होंने आगे कहा कि सुशील मोदी जैसे लोग बीजेपी के लिए जी भी सकते हैं और मर भी सकते हैं।
दलित राजनीति बनी है हथियार
बिहार में आरक्षण के मुद्दे ने तब तूल पकड़ा जब एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश में दलित राजनीति ने जोर पकड़ लिया है। कोर्ट के निर्णय में भागीदारी ना होने के बावजूद विपक्ष लगातार सरकार को निशाना बना रहा है।
इसका साफ मतलब है कि विपक्ष 2019 में दलित राजनीति के भरोसे ही बीजेपी की बनाई एनडीए को घेरने की कोशिश कर रहा है। बीजेपी ने भी अपने सभी दलित सांसदों से जनता के बीच जाकर आरक्षण के मुद्दे पर सरकार की मंशा से लोगों को रूबरू कराने का निर्देश दिया है।
बीजेपी के स्थापना दिवस के मौके पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने संबोधन में भी कहा था कि मोदी सरकार की ना तो मंशा है आरक्षण हटाने की और ना ही वह किसी को ऐसा करने देगी।