दस्तक टाइम्स एजेंसी/ उत्तराखंड में पशुपालन विभाग की ओर से पशुओं के इलाज के लिए खरीदी जाने वाली दवाइयों की गुणवत्ता विवादों के घेरे में है।
विभागीय सूत्रों की मानें तो विभाग की ओर से खरीदी जाने वाली दवाइयां न सिर्फ निम्न गुणवत्ता की हैं, बल्कि तमाम ऐसी कंपनियों से खरीदी जा रही हैं, जिनकी दवाएं बाजार में उपलब्ध ही नहीं हैं। सूत्रों का कहना है कि तमाम ऐसी दवा कंपनियां हैं, जो महज सरकारी आपूर्ति के लिए ही दवाइयां बना रही हैं।
पशुओं को रेंडरपेस्ट, पीपीआर, पशु प्लेग, संक्रामक बोवाइन प्लेरो न्यूमोनिया जैसी कई गंभीर बीमारियों से बचाने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं। पशुओं के टीकाकरण और पशु रोगों के नियंत्रण के लिए वित्तीय वर्ष 2015-16 में भी ढाई करोड़ का बजट खर्च किया गया। जिसमें से 75 फीसदी बजट केंद्र सरकार द्वारा वहन किया गया।
जबकि वित्तीय वर्ष 2014-15 में दो 258.81 लाख रुपये खर्च किए गए। इसके अलावा पशु रोग सूचना तंत्र विकसित करने के लिए भी पांच लाख का बजट खर्च किया गया। लेकिन पशुपालन विभाग की ओर से दवाइयों की खरीद को लेकर सवाल उठने लगे हैं।
नाम न छापने की शर्त पर कई पशु चिकित्सकों का कहना है कि दवाइयों की गुणवत्ता बेहद घटिया है, जो बीमारियों में असर कारक भी नहीं है। दवाइयां ऐसी कंपनियों की हैं, जो बाजार में उपलब्ध ही नहीं हैं। तमाम ऐसी दवा कंपनियां पशुपालन विभाग को दवाओं की आपूर्ति कर रही हैं, जिनका फार्मास्यूटिकल के क्षेत्र में कोई वजूद नहीं है।
दवाओं की खरीद को लेकर विभाग की ओर से टेंडर प्रक्रिया अपनाई जा रही है, लेकिन न्यूनतम दर पर दवाओं की खरीद होने से बड़ी दवा कंपनियां टेंडर प्रक्रिया से बाहर हैं। दवाओं की खरीद के लिए गठित समिति के एक आला अफसर का कहना है कि टेंडर प्रक्रिया में वे कंपनियां हिस्सा ले सकती हैं, जिनका सालाना टर्नओवर दस करोड़ से अधिक हो।
जबकि उत्तराखंड में सालाना एक करोड़ का कारोबार करने वाली कंपनियां टेंडर प्रक्रिया में हिस्सा ले सकती हैं। यदि टेंडर में कंपनियों के सालाना कारोबार को 50 करोड़ से अधिक तय कर दिया जाए तो बड़ी दवा कंपनियां हिस्सा लेने लगेंगी।
उनकी दवा अच्छी होने के साथ ही असर कारक भी साबित होंगी। दूसरी ओर पशुपालन निदेशक डॉ. कमल मेहरोत्रा का कहना है कि दवाओं की खरीद में पूरी पारदर्शिता बरती जा रही है। ई टेंडरिंग के जरिए दवाओं की खरीद की जा रही है। 40 से अधिक दवा कंपनियों की दवाएं खरीदी जा रही हैं। जिसमें कई बड़ी कंपनियां भी शामिल हैं।
विभागीय सूत्रों की मानें तो विभाग की ओर से खरीदी जाने वाली दवाइयां न सिर्फ निम्न गुणवत्ता की हैं, बल्कि तमाम ऐसी कंपनियों से खरीदी जा रही हैं, जिनकी दवाएं बाजार में उपलब्ध ही नहीं हैं। सूत्रों का कहना है कि तमाम ऐसी दवा कंपनियां हैं, जो महज सरकारी आपूर्ति के लिए ही दवाइयां बना रही हैं।
पशुओं को रेंडरपेस्ट, पीपीआर, पशु प्लेग, संक्रामक बोवाइन प्लेरो न्यूमोनिया जैसी कई गंभीर बीमारियों से बचाने के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं। पशुओं के टीकाकरण और पशु रोगों के नियंत्रण के लिए वित्तीय वर्ष 2015-16 में भी ढाई करोड़ का बजट खर्च किया गया। जिसमें से 75 फीसदी बजट केंद्र सरकार द्वारा वहन किया गया।
जबकि वित्तीय वर्ष 2014-15 में दो 258.81 लाख रुपये खर्च किए गए। इसके अलावा पशु रोग सूचना तंत्र विकसित करने के लिए भी पांच लाख का बजट खर्च किया गया। लेकिन पशुपालन विभाग की ओर से दवाइयों की खरीद को लेकर सवाल उठने लगे हैं।
नाम न छापने की शर्त पर कई पशु चिकित्सकों का कहना है कि दवाइयों की गुणवत्ता बेहद घटिया है, जो बीमारियों में असर कारक भी नहीं है। दवाइयां ऐसी कंपनियों की हैं, जो बाजार में उपलब्ध ही नहीं हैं। तमाम ऐसी दवा कंपनियां पशुपालन विभाग को दवाओं की आपूर्ति कर रही हैं, जिनका फार्मास्यूटिकल के क्षेत्र में कोई वजूद नहीं है।
दवाओं की खरीद को लेकर विभाग की ओर से टेंडर प्रक्रिया अपनाई जा रही है, लेकिन न्यूनतम दर पर दवाओं की खरीद होने से बड़ी दवा कंपनियां टेंडर प्रक्रिया से बाहर हैं। दवाओं की खरीद के लिए गठित समिति के एक आला अफसर का कहना है कि टेंडर प्रक्रिया में वे कंपनियां हिस्सा ले सकती हैं, जिनका सालाना टर्नओवर दस करोड़ से अधिक हो।
जबकि उत्तराखंड में सालाना एक करोड़ का कारोबार करने वाली कंपनियां टेंडर प्रक्रिया में हिस्सा ले सकती हैं। यदि टेंडर में कंपनियों के सालाना कारोबार को 50 करोड़ से अधिक तय कर दिया जाए तो बड़ी दवा कंपनियां हिस्सा लेने लगेंगी।
उनकी दवा अच्छी होने के साथ ही असर कारक भी साबित होंगी। दूसरी ओर पशुपालन निदेशक डॉ. कमल मेहरोत्रा का कहना है कि दवाओं की खरीद में पूरी पारदर्शिता बरती जा रही है। ई टेंडरिंग के जरिए दवाओं की खरीद की जा रही है। 40 से अधिक दवा कंपनियों की दवाएं खरीदी जा रही हैं। जिसमें कई बड़ी कंपनियां भी शामिल हैं।