अद्धयात्मदस्तक-विशेषराष्ट्रीय

भारतीय चिन्तन और दर्शन

-हृदयनारायण दीक्षित

ब्रह्माण्ड विराट है। भारतीय चिन्तन का ‘विराट’ बड़ा रम्य है और रहस्यपूर्ण भी है। यह ज्ञात विश्व से भी बड़ा है। इसका बड़ा भाग अज्ञात है। पूर्वज ज्ञात भाग से ही संतुष्ट नहीं हुए। वे ज्ञात भाग के ज्ञान का लोकमंगल सदुपयेाग करते रहे हैं और अज्ञात को जान लेने में सतत् प्रयासरत रहे हैं। प्रत्यक्ष ज्ञात के आधार पर यहां तमाम परंपराओं का विकास हुआ। ऐसी परंपराओं को लोकायत कहा गया है। ‘लोकायत’ चिन्तन में भी कई धाराएं थीं। भिन्न मत और स्वविवेक में रमण का अपना आनंद होता है। लेकिन पूर्वजों ने ज्ञात पर संतोष नहीं किया। इसलिए भारत में सृष्टि उद्भव, संचालन और प्रकृति की गति, प्रगति को लेकर 8 दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ। इनमें कपिल का सांख्य दर्शन प्रतिष्ठित है। योग को सुव्यवस्थित दर्शन बनाया पतंजलि ने। अक्षपाद का ‘न्याय दर्शन, जैमिनि का पूर्व पूर्व मीमांसा व वादरायण का वेदान्त भारत के प्रमुख दर्शनों में हैं। कणाद का वैशेषिक अपने दार्शनिक सूत्रों के साथ आयुर्वेद के ग्रंथ चरक संहिता तक विस्तृत है। बुद्ध दर्शन को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिली। महावीर का जैन दर्शन प्रतिष्ठित है ही। सभी दर्शन जानने योग्य हैं लेकिन इनमें जैमिनी के पूर्व मीमांसा का सम्बंध सामान्य जीवन से ज्यादा है। इसलिए इस आलेख में पूर्वमीमांसा पर विचार किया गया है।

अपनी धरती के दर्शन का दर्शन हम सबका कर्त्तव्य है। मेरा उद्देश्य मीमांसा को समझने का प्रयास है। मीमांसा दर्शन को समझने के इस प्रयास का अर्थ प्रतिबद्धता की उद्घोषणा नहीं है। मीमांसा शब्द का अर्थ स्पष्ट है। विचार करना, तत्व को समझने की उपासना या विवेचन मीमांसा है। इस दर्शन का आधार मंत्रों सूत्रों के प्रयोग विनियोग और जीवन के प्रमुख कर्त्तव्य हैं। संक्षेप में इस दर्शन की पृष्ठभूमि ब्राह्मण ग्रंथ हैं। जैमिनी ने इन्हें व्यवस्था दी और लगभग 2500 सूत्रों की रचना की। इन्हें पूर्व मीमांसा सूत्र कहा जाता है। पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा का अंतर समझना जरूरी है। पूर्वमीमांसा का मुख्य विषय जीवन कर्म या धर्म हैं तो उत्तर मीमांसा का मुख्य विषय आत्मतत्व और ब्रह्म है। पूर्वमीमांसा की नींव शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रंथ हैं तो उत्तर मीमांसा की नींव उपनिषद् है। शंकराचार्य ने उत्तर मीमांसा के आधार ग्रंथ ‘ब्रह्मसूत्र’ का भाष्य किया था। वे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विचित्र दार्शनिक थे। ब्रह्मसूत्रों की शुरूवात ‘अथ’ – अथातो ब्रह्म जिज्ञासा से होती है। उन्होंने अथ का अर्थ अन्-अन्तर या पश्चात बताया है। प्रश्न है कि ब्रह्म जिज्ञासा के पहले क्या? स्पष्ट है कि उत्तर मीमांसा या ब्रह्म जिज्ञासा के पहले लोक जिज्ञासा या पूर्वमीमांसा। पूर्वमीमांसा के पश्चात ब्रह्म जिज्ञासा।

कुछेक आधुनिक विद्वान भारतीय दर्शन को भाववादी बताते हैं और अनेक अंधविश्वासी भी। इस दृष्टि से पूर्व मीमांसा का विवेचन बहुत जरूरी है। इस दर्शन का विषय कर्म-धर्म है। धर्म को अंधविश्वास बताने का फैशन है। भारत में धर्म का अर्थ कर्त्तव्य है और प्रत्येक कर्त्तव्य कर्म है। हरेक कर्म का परिणाम होता है इसलिए प्रत्येक कर्म के साथ कर्म का फल भी है। मीमांसा में ईश्वर कर्म फलदाता नहीं हैं। यहां प्रकृति की गतिविधि भी यज्ञ है। यज्ञ कर्म नष्ट होने के पहले ‘अपूर्व’ नाम के तत्व को पैदा करता है। कह सकते हैं कि कर्म की रूपांतरित ऊर्जा का नाम ‘अपूर्व’ है। अपूर्व कर्मफल देकर नष्ट हो जाता है। वेदात में जगत् अनित्य है। प्रतिपल बदलता है इसीलिए अनित्य है। शंकराचार्य के शब्दों में मिथ्या है। पूर्व मीमांसा में यह जगत् रूपांतर के साथ नित्य है। सृष्टि सृजन के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं। प्रकृति सदा से है। पूर्व मीमांसा सूत्रों में आत्मा नहीं है। आत्मा को कुमारिल भट्ट ने जोड़ा था। कुमारिल ने स्वयं कहा है “पूर्व में विद्वानों ने मीमांसा को लोकायत लोक आधारित बनाया था, मैंने उसे आस्तिक पथ में लाने का काम किया – ताम अस्तिक पथे कर्तुम, अयं यत्नः कृतो मया।

ईश्वर सिद्ध नहीं है। वह होता है या नहीं? यह प्रश्न आस्था का है। ईश्वर निस्संदेह विश्व के अधिकांश लोगों की आस्था है लेकिन दर्शन और विज्ञान में पहले विश्वास नहीं होता। पहले ज्ञान का ध्येय, फिर उपलब्ध प्रमाणों पर संदेह और संशय फिर तर्क और शब्द प्रमाणों की यात्रा। पूर्व मीमांसा में ईश्वर की उपस्थिति कुमारिल के समय स्वीकार हुई। पूर्व मीमांसा का मुख्य विषय वैदिक अनुभूति वाले कर्म हैं। इनमें जीवनयापन वाले आनंददाता कर्मो के साथ यज्ञ भी प्रमुख कर्म है। वैदिक जीवन आनंदमय था। पूर्वमीमांसा में वेद वचनों को स्वयं प्रमाण कहा गया है। इस दर्शन में वैदिक कथन का अर्थ महतवपूर्ण बताया गया है। ऐसा उचित भी हैं शब्द अपने आप में बोली गई ध्वनि होता है या लिखा हुआ सामान्य चित्र। अर्थ की ही महत्ता है। ऋग्वेद (1.164.39) में यही बात बहुत सुंदर ढंग से कही गई है, “यः तत न वेद, किम् ऋचा करिष्यति – जो वेद तत्व नहीं जानता, वह ऋचा पढ़कर क्या कर लेगा।” यास्क ने ‘निरूक्त’ में इसी बात को और स्पष्ट किया है, “जो वेद पढ़कर अर्थ नहीं जानता वह स्थाणु या वृक्ष जैसा है, वह भार ही ढोता है।” कर्मकाण्ड में रत अधिकांश श्रद्धालु अर्थ नहीं जानते। सतत् कर्मकाण्ड करते हुए कभी न कभी जिज्ञासा पैदा ही होती है। तब अर्थ खुलते हैं। कर्मकाण्ड की सीमा का पता चलता है और जीवन दृष्टि बदल जाती है।

पूर्व मीमांसा के जैमिनी में ईश्वर की अनुपस्थिति के कई अर्थ निकाले गए। इसी आधार पर अनेक विद्वानों ने इसे निरीश्वरवादी दर्शन कहा। मीमांसा के सर्वांगपूर्ण विकास के बाद आत्मा और ईश्वर जैसे तत्व सम्मिलित हुए। किसी भी संवाद में ईश्वर का उल्लेख न होना ईश्वर के न होने का पर्याप्त प्रमाण नहीं है। इसी तरह ईश्वर के उल्लेख के कारण ही ईश्वर की सिद्धि भी पर्याप्त प्रमाण नहंी बनती। अनेक वैज्ञानिक ईश्वर आस्थालु हैं लेकिन अपने कथन, शोध और निष्कर्ष में ईश्वर का उल्लेख नहीं करते। जैमिनी सूत्रों में मोक्ष भी नहीं है। मीमांसा में स्वर्ग को श्रेष्ठतम कर्मफल माना गया है। स्वर्ग भी असिद्ध है लेकिन कर्मो का श्रेष्ठतम फल कुछ न कुछ तो होना ही चाहिए। स्वर्ग कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं हो सकता। स्वर्ग सभी इच्छाओं की पूर्ति वाला काल्पनिक स्थान है। ऋग्वेद के एक मंत्र में स्तुति है “जहां सारी कामनाएं पूरी होती हैं, हमें वहां स्थान दो। जहां सदा नीरा नदियां हैं और विवस्वान के पुत्र की राजव्यवस्था है। जहां मुद, मोद और प्रमोद है हमें वहां स्थान दो।” ऋषि कवि की यह कल्पना इसी पृथ्वी पर सुंदर स्थल पाने की है। यह संसार कर्म क्षेत्र है। राजव्यवस्था समाज व्यवस्था ठीक हो तो कर्म के अवसर मिलते हैं। कर्मफल भी मिलते हैं। मीमांसा का स्वर्ग कर्मफल का ही परिणाम है। स्वभाविक ही यहां इसी संसार की दिव्यता की अभिलाषा है।

दर्शन बुद्धि विलास नहीं होता। संसार, समाज या सृष्टि का यथातथ्य वर्णन पर्याप्त नहीं है। दर्शन और विज्ञान से प्राप्त निष्कर्षो के आधार पर समाज और समाज को आनंद क्षेत्र बनाने का ध्येय ही पूर्व मीमांसा की सबसे बड़ी उपलब्धि है। उत्तर मीमांसा संसार को अनित्य मानती है और पूर्व मीमांसा सत्य, नित्य। वेदांत या उत्तर मीमांसा के निष्कर्ष नित्य अनित्य के ढांचे में बेशक संसार को मिथ्या बताते हैं। लेकिन हम संसारी लोगों के लिए तमाम प्रश्न भी छोड़ जाते हैं। संसार मिथ्या है तो योग, तप, ध्यान का क्या उपयोग। क्या इसी मिथ्या संसार में मिथ्या शरीर, प्राण और मन से ध्यान साधना भी मिथ्या नहीं है। जगत मिथ्या है तो सारे कर्म, सत्कर्म या पाप कर्म भी मिथ्या क्यों नहीं हैं। शंकराचार्य जी के निष्कर्ष से असहमत होने का साहस नहीं है। लेकिन तत्व प्राप्ति, ब्रह्मज्ञान आदि उपलब्धियां इसी संसार में साधना उपासना करते हुए मिलती है। मिथ्या में रहते हुए ही। इस दृष्टि से पूर्व मीमांसा का अपना महत्व है, उत्तर मीमांसा में रमण का आनंद स्वयं सिद्ध महत्वपूर्ण है ही।

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