मराठवाड़ा के किसानों के जीवन में जहर घोल रही है चीनी
महाराष्ट्र के करीब पांच फीसदी सिंचित भूमि में गन्ने की खेती होती है। गन्ने की खेती पूरे राज्य की खेती का 60 फीसदी पानी सिंचाई के लिए उपभोग करता है। राज्य में करीब 200 चीनी की मिलें हैं। सिर्फ 65 मिलों का कुल घाटा पिछले साल 2547 करोड़ रूपये था
करीब 3500 करोड़ रुपये गन्ना किसानों के चीनी मिलों के पास बकाया हैं।
इस वर्ष सरकार ने यहां की 13 लाख टन चीनी निर्यात करने का कोटा दिया है।
वहीं इस समय राज्य में करीब 55 लाख में मेंट्रिक टन चीनी का स्टॉक पड़ा हुआ है। एक किलो चीनी पैदा करने के लिए करीब एक हजार लीटर पानी की आवश्यकता होती है।
कप्तान माली, मुंबई
नी जो हमारे हर सुबह की चाय में मिठास घोलती है, वही चीनी महाराष्ट्र के मराठवाड़ा और पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ना किसानों के जीवन में जहर घोल रही है। कथित तौर पर सैकड़ों गन्ना किसानों ने अब तक अपने गन्ने की कीमत चीनी मिलों द्वारा भुगतान न किये जाने और सूखे या कम बारिश के कारण राज्य के कई क्षेत्रों में खुदकशी कर ली है। इस समय महाराष्ट्र देश में सर्वाधिक किसानों की आत्महत्या वाला राज्य बन चुका है, जिनमें ज्यादातर गन्ना किसान हैं। इन क्षेत्रों में स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि यहां के किसान खेतों को खाली छोड़कर अब मजदूरी करने के लिए मुंबई, ठाणे, पुणे जैसे शहरो में सपरिवार पलायन कर रहे हैं।
महाराष्ट्र के सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2015 में जनवरी से जून के बीच किसानों के आत्महत्या के करीब 1300 मामले दर्ज हुए हैं। करीब 90 लाख किसान इस समय सूखे की चपेट में हैं जो मराठवाड़ा, पश्चिमी महाराष्ट्र और विदर्भ क्षेत्र में आते हैं। विडंबना यह है कि यहां गन्ने की फसल के प्रति किसानों का लगाव इतना ज्यादा है कि करीब पांच फीसदी क्षेत्र में बोये जानेवाली यह फसल करीब 60 फीसद पानी का उपयोग अपने सिंचन के लिए उपभोग करती है जिसे करीब 25-30 बार सींचने की आवश्यकता होती है, वहीं दूसरी ओर कपास, अरहर, सोयाबीन इत्यादि को सिर्फ दो से तीन फ़ीसदी ही सिंचन क्षेत्र मिलता है, जिन्हें सिर्फ दो से पांच बार ही सींचने की जरुरत पड़ती है।
विदर्भ जन आंदोलन के प्रमुख और महाराष्ट्र सरकार द्वारा हाल ही में कृषि संकट मिशन के निदेशक नियुक्त किये गए किशोर तिवारी जो करीब एक दशक से किसानों की आत्महत्या के मसले को राज्य तथा केंद्र स्तर पर उठाते आए हैं, का कहना है कि विदर्भ, मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र पहले से ही कम बारिश का क्षेत्र रहा है पर लगातार पिछले तीन साल से सूखे की स्थिति ने यहां के किसानों की हालत और भी ख़राब कर दी है। इस क्षेत्र में कृषि की उत्पादकता भी 50 फीसदी तक गिर गई है। इसके साथ साथ कपास के अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम गिरने और महंगे बीज और अन्य लागत की वजह से कपास की कीमत देश में भी गिर रही है, जिसका प्रतिकूल असर यहां के कपास किसानों पर पड़ रहा है और वे गन्ने जैसे अन्य नकदी फसल की ओर मुड़ रहे हैं।
तिवारी का कहना है कि विदर्भ में 70 फीसदी किसानों को बैंकों से कर्ज नहीं मिल रहा है। हालांकि हमारी मांगों पर ध्यान देते हुए इस बार सरकार ने यहां के किसानों को अनाज, शिक्षा और स्वास्थ्य की सेवा उपलब्ध कराई है, जिससे इस बार स्थिति उतनी विकट नहीं होगी, वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा कम से कम एक फसल के लिए पानी और बिजली की उपलब्धता की वजह से कई किसानों को इसका लाभ जरूर मिलेगा।
तिवारी के अनुसार महाराष्ट्र में गन्ना किसानों की समस्या किसानों द्वारा नहीं बल्कि यहां के राजनेताओं जो चीनी मिलों के मालिक हैं, उनके द्वारा निर्मित की गई है। एक एकड़ गन्ने की फसल करीब पांच गांव के पीने के पानी की मात्रा को सोखती है और यह फसल कहीं से भी यहां के किसानों के लिए उपयुक्त नहीं है, इसलिए हम अब किसानों को दलहन और तिलहन की फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके साथ हम किसानों को राहत पैकेज के लालच से भी मोह भंग करवाना चाहते हैं ताकि वह सरकार के राहत पैकेज पर निर्भर न रहे। राहत पैकेज सरकारी अधिकारी अपनी जेबें गर्म करने और अपने कमीशन के लिए सरकार द्वारा घोषित करवाते हैं, जिसमे किसान का भला बहुत कम ही होता है ज्यादातर अधिकारीयों का इसमें भला होता है।
भारत के पूर्व कृषि आयुक्त, एग्रीकल्चर फाइनेंस कारपोरेशन के चेयरमैन और इंडियन सोसाइटी फॉर कॉटन इम्प्रूवमेंट के प्रेजिडेंट डॉ चारुदत्त मायी के अनुसार विदर्भ के किसानों की आत्महत्या के पीछे कई कारण है जो समय समय पर अपना विपरीत परिणाम दिखाते रहते हैं। जैसे कभी सूखा पड़ना तो कभी उत्पादकता की कमी तो कभी कपास की अच्छी पैदावार होना पर बाजार में कपास के दाम में कमी इत्यादि। जब अच्छी बारिश होती है तो फसल भी अच्छी होती है तब बाजार में भाव कम हो जाता है।
डॉ. मायी का कहना है कि पिछले कुछ दशक में खेती की जमीन मालिकाना परिवार के बंटने के कारण कम हुई है, जिसकी वजह से उत्पादकता पर परिणाम हुआ है और किसानो की नई पीढ़ी का खेती के प्रति आकर्षण भी कम हुआ है। कई बार किसानों द्वारा समाज में अपनी हैसियत दिखाने के लिए कर्ज लेना भी इनके लिए अभिशाप साबित हो रहा है। डॉ मायी सुझाव देते हैं कि जिस प्रकार से अब तक विदर्भ के किसानों की समस्याओं का समाधान राहत पैकेज देकर किये जाने की कोशिश की जा रही है, इससे उनका समाधान नहीं हो सकता। किसानों के समाधान के लिए एक मुश्त राहत पैकेज की जगह उन्हें मासिक नकद राहत पैकेज दिया जाना चाहिए ताकि उनकी वर्तमान समस्या का हल हो सके।
इसके साथ ही यहां के किसानों को सिर्फ कुछ फसलें जैसे गन्ना और कपास के आलावा अन्य फसलों की भी खेती करनी चाहिए। पशु पालन, मुर्गी पालन, मशरुम की खेती, दुग्ध व्यवसाय, रेशम की खेती इत्यादि को अपनाना चाहिए। तब जाकर इनकी निर्भरता सिर्फ खेती से हटकर अन्य व्यवसायों पर भी आश्रित होगी और सूखे की स्थिति में भीं इनकी अर्थव्यवस्था स्थिर होगी।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अजित रानाडे के अनुसार महाराष्ट्र में सबसे पहले पानी का ज्यादा उपभोग करने वाले गन्ने की फसल की जगह सरकार को किसानों को दलहन, बाजरा जवार और अन्य कम पानी का उपभोग करने वाले फसल पैदा करने के लिए प्रोत्साहन तथा अच्छी कीमत देना चाहिए और सर्वप्रथम गन्ने की खेती में ड्रिप सिंचाई पद्धति से सिंचाई को अनिवार्य कर देना चाहिए।
रानाडे का कहना है कि भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गन्ना उत्पादक देश है और लगातार छह वर्षों से गन्ने की बंपर फसल हो रही है और इसका उत्पादन 28 मिलियन टन से भी ज्यादा होने के अनुमान हैं। इसीलिए भारत सरकार ने चीनी निर्यात का कोटा भी निर्धारित कर दिया है और इसके चलते चीनी मिलों को राहत मिलेगी जो वर्तमान में घाटे में चल रहे हैं और निर्यात के द्वारा मिलने वाली रकम से वे किसानो के बकाया भी दे पाएंगे पर सरकार के इस कदम से किसानों को गन्ना उत्पादन करने का प्रोत्साहन भी मिलेगा, जो भारत में कम हो रहे भूजल स्तर के लिए और भी नुकसानदेह हो सकता है।
गन्ना किसान और चीनी मिलों का रिश्ता…
अजित रानाडे के अनुसार महाराष्ट्र की चीनी मिलें सहकारी संस्थाओं द्वारा चलाई जाती है, जिसमें हर किसान सदस्य होता है पर असली ताकत इन संस्थाओं में शामिल नेताओं के पास होती हैं, जो चेयरमैन जैसे बड़े पदों पर होते हैं। पहले इन चीनी मिलों के पास बहुत लाभ होने के वजह से बहुत पैसे थे और इनके द्वारा कई हॉस्पिटल विद्यालय कॉलेज इत्यादि भी बनवाये गए। यहां एक बात ध्यान देने वाली ये है कि महाराष्ट्र में गन्ना की कीमत सरकार तय करती है जबकि चीनी की कीमत बाजार तय करता है इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दाम में गिरावट इन मिलों को बंदी की कगार पर ला दिए हैं।
कई सालों से इन मिलों द्वारा घाटा झेलने की वजह से ये मिलें आर्थिक संकट में फंसी हुई हैं, जिसके चलते ये किसानों को उनका पैसा नहीं दे पा रही हैं और सरकार से महाराष्ट्र के नेताओं ने केंद्र सरकार से मिलों को इस समस्या से उबारने के लिए 2000 करोड़ रुपये ब्याज रहित कर्ज की मांग की है। वहीं गन्ना किसानों का बकाया इस समय राष्ट्रीय स्तर पर 21,000 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है और उत्तरप्रदेश में तो किसान अपनी इस समस्या को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर भी दस्तक दे चुके हैं।
किसानों के पक्ष में आए कई फ़िल्मी सितारे….
किसानों की इस आत्महत्या और बेबसी से पसीजे बॉलीवुड के अभिनेता नाना पाटेकर और मराठी फिल्मों के अभिनेता मकरंद अनासपुरे एकजुट हुए हैं और अपनी कमाई से आत्महत्या करनेवाले किसानों के परिवारों का ख्याल रख रहर हैं। इनमें एक नाम बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार का भी जुड़ रहा है जिन्होंने 180 परिवारों की मदद करने की घोषणा की है, जिनके परिवार के मुखिया ने आत्महत्या की है। हर परिवार को अक्षय ने 50 हजार से एक लाख रुपये देने की घोषणा की है। यही नहीं करीब पांच साल पहले महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक ए एन रॉय अपनी एनजीओ के द्वारा मृतक किसानों के परिवारों को 2-3 वर्षों से कंप्यूटर और अन्य आधुनिक शिक्षा प्रदान करवा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर किसानों के इस संकट से दूर रहनेवाली राज ठाकरे की मनसे पार्टी ने मुम्बई की फ़िल्म इंडस्ट्री को चेतावनी दी हैं कि यदि वे किसानों की मदद नहीं करेंगें तो उन्हें यहां शूटिंग नहीं करने दिया जायेगा।
किसान ट्रेनिंग स्कूल रच रहा पैदावार में कीर्तिमान
गुजरात के वापी जिले में यूपीएल लिमिटेड नामक कंपनी पूरे देश को कम पानी, बीज द्वारा गन्ने की खेती के गुर अपने 150 एकड़ में फैले नाहुली किसान ट्रेनिंग सेंटर करीब 15 साल से मुफ्त भोजन आवास सुविधा के साथ सिखा रहा है। पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार भी इस तकनिकी को देखने यहां आ चुके हैं। यहां पर हर राज्य से किसान मुफ्त में कृषि के आधुनिक तरीकों को सिखने आते हैं, जिनमें पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के सर्वाधिक किसान होते हैं। यहां पर किसानों को सिखाने वाले वैज्ञानिक संजय त्रिपाठी का कहना है कि हमारे यहां हमने अब तक एक हेक्टेयर में 250 टन तक गन्ने की उपज की है जो राष्ट्रीय औसत से चार गुना है। महाराष्ट्र में पानी की किल्लत के बारे में कहते हुए त्रिपाठी बताते हैं की पारम्परिक गन्ने की बुवाई में एक एकड़ खेत में तीन से चार टन बीज लगते हैं जबकि उनके इस फार्म में सिर्फ एक टन बीज में ही उसके चार गुना पैदावार मिल जाती है और ड्रिप सिंचाई के द्वारा पानी की 75 फ़ीसदी बचत भी होती है। महाराष्ट्र के कई किसान हमारे इस फार्म में सीखकर अपने खेतों में हमसे भी ज्यादा का उत्पादन किया है।
आगरी समाज की शादियां: शानो शौकत की फिजूलखर्ची?
पहले आगरी समाज में हल्दी और मंगनी के समय सिर्फ दोनों परिवारों के पांच-पांच सदस्य ही शामिल होते थे पर अब इन आयोजनों में भी 700 से 800 तक लोग शामिल हो जाते हैं, जिन्हें न सिर्फ कई प्रकार की मांसाहारी दावतें दी जाती हैं बल्कि आर्केस्ट्रा नाच गाना के साथ शराब भी परोसी जाती है। जिसका बजट भी लाखों में चला जाता है।
कप्तान माली, मुम्बई
क ओर जहां शादी ब्याह की रस्मों को लेकर आज शान ओ शौकत दिखाने की होड़ लगी हुई है तो वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र का आगरी समाज, जो महाराष्ट्र का सबसे ज्यादा अमीर वर्ग है, ने शादियों के साथ-साथ समाज में अंतिम संस्कार यात्राओं को भी प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है। समाज के धनाढ्य लोगों द्वारा इस तरह के दिखावे और शान ओ शौकत का खामियाजा उन कुछ गरीब तबके के लोगों को उठाना पड़ रहा है जिनके बच्चों की शादियां नहीं हो पा रही हैं। इनमें कुछ कर्ज लेकर शादियां कर रहे हैं और कर्ज के तले दबे जा रहे हैं। इस तरह के आयोजनों में यह समाज लाखों रुपये खर्च कर रहा है, जिसके चलते अब इसी समाज के शांताराम भोईर आगे आकर इसका विरोध कर रहे हैं। फिजूल के खर्चों पर लगाम लगाने के लिए नियम बनाए जा रहे हैं ताकि इन पर नकेल कसी जा सके, जिसका इन्हें कुछ हद तक सकारात्मक प्रतिसाद भी मिल रहा है।
चार दिन के विवाह समारोह में 20 से 25 लाख तक खर्च कर देता हैं आगरी समाज….
इस समाज की शादियों का समारोह चार दिन तक चलता है। जिसमें हल्दी से लेकर विवाह तक की रस्में शामिल होती हैं। हर रस्म पर मांसाहार और शराब की दावतें होती हैं, जिसमें तेज संगीत वाला डीजे का होना आवश्यक होता है। आगरी समाज की शादियों में मंगनी से लेकर रिसेप्शन तक लगभग 20 से 25 लाख रुपये का खर्च आता है। इसके चलते न केवल वधू पक्ष बल्कि वर पक्ष को भी भारी आर्थिक बोझ का सामना करना पड़ता है। इसके साथ-साथ ही मांसाहार के साथ शराब की नदियां भी बहा दी जाती है। जिसमें डीजे की तेज धुनें माहौल को और भी रंगीन बना देती हैं। जिसके चलते आए दिन इन शादियों के आयोजनों में मारामारी यहां तक की हत्याओं की भी घटनाएं बढ़ चुकी हैं। इन सबके बीच वधू पक्ष की सांसें शादी के अंत तक किसी अनहोनी के न घटने की कामनाओं में अटकी ही रहती हैं। इसके पहले आगरी समाज में हल्दी और मंगनी के समय सिर्फ दोनों परिवारों के पांच-पांच सदस्य ही शामिल होते थे पर अब इन आयोजनों में भी 700 से 800 तक लोग शामिल हो जाते हैं, जिन्हें न सिर्फ कई प्रकार की मांसाहारी दावतें दी जाती हैं बल्कि आर्केस्ट्रा नाच गाना के साथ शराब भी परोसी जाती है। जिसका बजट भी लाखों में चला जाता है। इन सबके साथ नाचगानों के बीच 500 से 1000 रुपयों में नोट भी उड़ाया जाना एक आम बात है। ये सारे कार्यक्रम शाम से सुबह के चार-पांच बजे तक चलते रहते हैं। जिसके कारण बूढ़े और विद्यार्थियों को काफी मुश्किल होती है। कुछ लोग तो शादियों के रिसेप्शन के लिए स्टेडियम तक को भी भव्य तरीके से सजाते हैं। वर और वधू दोनों के इलाकों में बड़े बड़े होर्डिंग्स भी निमंत्रण के रूप में लगाए जाते हैं।
पांच वर्ष से जागरूकता फैला रहे हैं शांताराम भोईर और बालाराम म्हात्रे…
भोईर का कहना है कि वर्ष 2010 में एक परिवार की लड़की की शादी के सभी आयोजन जैसे हल्दी, मंगनी, वर-वधू के फोटोसेशन इत्यादि हो चुके थे। शादी के कार्ड बंट चुके थे पर हल्दी के आयोजन में वर पक्ष के चार मेहमानों को खाना कम पड़ने की वजह से शादी रद कर दी गई। वर पक्ष ने एक बार भी ये न सोचा कि उसने कितने मेहमानों को लाने की बात कही थी और कितने ज्यादा आए। उस वक्त हमें बहुत बुरा लगा और हमने महसूस किया की समाज में बहुत सारी बुराइयां आ गई हैं, जिनका निराकरण करना बहुत जरूरी है। हमने उस दिन से ठाणे और रायगढ़ जिले के गांव-गांव में मीटिंग करनी शुरू की और लोगों से आग्रह करना शुरू किया कि वे अपनी शादियां और अंतिम संस्कार की क्रियाओं को सादगी से करें। अब इन पांच वर्षों में कई लोगों ने हमारी बातें मानी भी और हमें उम्मीद है कि हम जल्द पूरी तरह से इस तरह की फिजूलखर्ची पर रोक लगा पाएंगे। हम अपने इस निर्णय को सब पर थोप नहीं सकते पर हम सबसे आग्रह करके थोड़ा परिवर्तन जरूर ला सकते हैं। हमने ठाणे के देसाई गांव से इसकी शुरुआत की है जहां हर वर्ष करीब 10 शादियां होती है और इस वर्ष किसी ने भी दो लाख से ज्यादा खर्च नहीं किये।
आगरी समाज के नए नियम….
मंगनी या सगाई की प्रथा पूर्ण रूप से बंद। हल्दी समारोह में ऑर्केष्ट्रा, डीजे, बैंड बाजा, शराब पर पूर्ण रोक। लाउडस्पीकर पर 10 बजे रात तक ही बजाये जाएं। शादी समारोह में दारू पर पूर्ण प्रतिबंध और बारात 12 बजे रात तक वापस वर के घर पर पहुंचनी चाहिए। गोदभराई की रस्म में सिर्फ 10 से 15 महिलाएं होनी चाहिए और वधू को सिर्फ एक साड़ी मायके और एक ससुराल से दी जाए। अंतिम संस्कार के आयोजन में भोजन पर पूर्ण प्रतिबंध सिर्फ चाय और नाश्ते अगर संभव हो तो ही दिए जाएं। तेरहवीं के आयोजन में किसी प्रकार का कोई भी उपहार न दिया जाए। ल्ल
आगरी समाज का इतिहास…
मुम्बई, ठाणे और रायगढ़ इन तीन जिलों के करीब 3000 गांवों में आगरी समाज की आबादी बसती है। आजादी के पहले तक आगरी समाज का मुख्य व्यवसाय समुद्र के किनारों पर नमक की खेती करना था और इनकी जमीनें कई एकड़ में थी। उस समय मछली और चावल इनका मुख्य भोजन था और बेहद सादा जीवन वे जिया करते थे। आजादी के बाद धीरे-धीरे मुम्बई और इसके आसपास के इलाकों में शहरी विकास के चलते जमीनों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप इनकी जमीनों के दाम आसमान छूने लगे। भू माफिया और बिल्डरों द्वारा इन इलाकों में रिहायशी आलीशान कॉप्लेक्स बनाने के लिए इनकी जमीनों को ऊंची कीमतों पर खरीदा गया और अपनी जमीनें बेचकर यह समाज एकाएक अमीर हो गया और अपने लिए ऐशो आराम के साधन का उपभोग करने लगा, जिसमें शादी ब्याह अंतिम संस्कार भी शामिल हो गए।
अंतिम संस्कार के समय भी इस समाज में मृतक के परिवार को समाज को भोजन कराना होता है और अन्य क्रिया कर्मों को भी शान ओ शौकत के साथ करना पड़ता है। इसके साथ इसमें शामिल होने वाले मेहमानों को कोई उपहार भी दिया जाता है।