मुलायम से बदला लेने को महागठबंधन
नवीन जोशी
जनवरी 2016 के अंतिम दिन जद (यू) के राष्ट्रीय अध्य्क्ष शरद यादव ने लखनऊ आकर यूपी के विधानसभा चुनाओं के लिए ‘महागठबंधन’ बनाने की घोषणा की तो बहुत आश्चर्य नहीं हुआ था. उसके दो ही दिन बाद नीतीश कुमार ने यूपी में अपनी पहली जनसभा करके उस तरफ कदम भी बढ़ा दिए। नीतीश ने सभा के लिए जौनपुर को चुना। जौनपुर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी का ठीक पड़ोसी है। सभा में उन्होंने प्रकारान्तर से हमला भी भाजपा और मोदी पर किया और सपा को बख्श दिया। मगर सभी जानते हैं कि नीतीश कुमार यूपी में भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं। महागठबंधन बनाने का उनका मकसद मुलायम सिंह यादव से राजनीतिक बदला चुकाना है। यह ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ वाला मामला है।
बिहार की तर्ज़ पर यूपी में भी महागठबंधन बनाने की पटकथा दरअसल बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान ही लिखी जा चुकी थी। मुलायम सिंह यादव ने बिहार में चुनाव के ऐन मौके पर जद (यू)-राजद-कांग्रेस महागठबंधन का साथ छोड़ कर और ‘तीसरा मोर्चा’ बनाकर अलग से चुनाव लड़ने का दांव खेला था। मुलायम का यह दांव तब नीतीश के नेतृत्व वाले महागठबंधन को नुकसान और भाजपा को फायदा पहुंचाने वाला माना गया था। मुलायम और अखिलेश ने बिहार जाकर महागठबंधन के खिलाफ सभाएं भी की थीं। तभी तय हो गया था कि यूपी के चुनाव में महागठबंधन भी पलटवार करने आएगा जरूर।
शरद यादव स्पष्ट भी कर गए थे कि यूपी के महागठबंधन में समाजवादी पार्टी को शामिल करने का प्रश्न ही नहीं है। 13 फरवरी को हुए विधानसभा के उपचुनावों में अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल का समर्थन करने की बात भी शरद यादव कह गए थे, हालांकि इसके लिए कोई चुनावी सभा करने वे नहीं आए। उसी दिन शरद की बात से साफ हो गया था कि रालोद महागठबंधन में शामिल होगा। इस बात की पुष्टि चंद रोज बाद नई दिल्ली में नीतीश कुमार और अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी की मुलाकात में हो गई थी। इस बातचीत के बाद जयंत को जिम्मेदारी दी गई है कि वे उत्तर प्रदेश में महागठबंधन को मजबूत बनाने का काम करें।
नीतीश ने जौनपुर में सभा के दूसरे ही दिन दिल्ली जाकर महागठबंधन के संभावित दलों की तलाश शुरू कर दी थी। साफ है कि मामला सिर्फ जुबानी जमा खर्च तक सीमित नहीं है और वे यूपी में महागठबंधन बनाने पर गम्भीर हैं। नीतीश कुमार अजित सिंह के घर पर शरद यादव के साथ जयंत से मिले, फिर अपना दल की नेता कृष्णा पटेल और पीस पार्टी के डॉ. अयूब से भी नीतीश की भेंट हुई। रालोद को छोड़कर बाकी नेताओं/दलों से बातचीत का खास मतलब नहीं है। पिछले लोकसभा चुनावों में अपना दल ने भाजपा से गठबन्धन किया था और अपने कोटे की दोनों सीटें जीत ली थीं। सांसद चुने जाने के बाद से अनुप्रिया का अपनी मां कृष्णा पटेल से मनमुटाव होने लगा। दरअसल, अपना दल के संस्थापक अध्यक्ष सोने लाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल को लगा कि उन्हें तो कुछ हासिल ही नहीं हुआ और वे हाशिए पर चली गईं हैं। इसलिए अब वे अपने लिए एक बेहतर मंच की तलाश में हैं और नीतीश कुमार से उनकी मुलाकात इसी कोशिश का हिस्सा है। इसी तरह कुछ वर्ष पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में लोकप्रिय रही डॉ. अयूब की पीस पार्टी भी अब लुटी-पिटी है। पिछले विधान सभा चुनाव में अयूब समेत उनके पांच विधायक जीते थे जिनमें से चार अब समाजवादी पार्टी के साथ हैं। डॉ. अयूब भी अब राजनीतिक सहारा ढूंढ रहे हैं। कृष्णा पटेल और डॉ. अयूब दोनों ही फिलहाल महागठबंधन को कुछ देने की स्थिति में नहीं हैं। नीतीश को अभी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें यहां गठबंधन खड़ा करने के लिए कुछ नाम चाहिए।
जद (यू) और राजद बिहार में व्यापक जनाधार वाली पार्टियां हैं, लेकिन यूपी में उनका कोई आधार ही नहीं है। दोनों ही के यहां नाम मात्र के संगठन हैं। कहना चाहिए कि जो हाल सपा का बिहार में है वहीं राजद और जद (यू) का यूपी में है। बिहार में बड़ी विजय दर्ज कर लेने के बाद नीतीश कुमार का कद राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ा जरूर, लेकिन यूपी के पिछड़ों या कुर्मियों में उनकी छवि चुनाव जिताऊ अब भी नहीं है। इसलिए लालू-नीतीश से भी यू पी में महागठबंधन को कोई मजबूती नहीं मिलने वाली। रालोद के अलावा महागठबंधन में प्राण फूंकने वाली पार्टी कांग्रेस ही हो सकती है, हालांकि यूपी में कांग्रेस खुद अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन अपने रहे-बचे वोट प्रतिशत से भी वह महागठबंधन को एक पहचान दे सकती है। मगर यह बड़ा सवाल है कि क्या कांग्रेस इस गठजोड़ का हिस्सा बनेगी? राहुल बिहार में भी स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ना चाहते थे। वहां सोनिया और लालू की पुरानी राजनीतिक दोस्ती के कारण राहुल को झुकना पड़ा था। यूपी में ऐसी कोई मजबूरी राहुल के सामने नहीं है। यूपी के कांग्रेसी भी किसी से गठबंधन नहीं करना चाहते। फिलहाल कांग्रेस की सारी तैयारियां अकेले चुनाव लड़ने की हैं और इस बार उसने प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया साल भर पहले से शुरू कर दी है। कांग्रेस को गठबंधन से अगर कोई फायदा होना है तो वह बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से हो सकता है, लेकिन फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं हैं। हाल ही में मायावती ने राहुल पर और राहुल ने मायावती पर राजनीतिक हमले किए हैं। मायावती वैसे भी अकेले ही चुनाव लड़ेंगी, यह तय है। कमोबेश यही बात कांग्रेस के बारे में कही जा सकती है। साल भर बाद स्थितियां क्या बनेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
सपा और बसपा यूपी में दो बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं, जिनके पास मजबूत जनाधार है। लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक विजय के बाद स्वाभाविक रूप से भाजपा भी यहां बड़ी दावेदार बन गई है, बल्कि इस बार तो भाजपा बहुत उत्साहित हो कर यूपी की सता हथियाने की तैयारी कर रही है। बिहार में हार के बाद अमित शाह की टीम यूपी विजय के लिए सभी घोड़े खोल देगी, यह निश्चित है, इसलिए लगभग हर सीट पर तिकोना मुकाबला तय है। कई सीटों पर कांग्रेस चौथी ताकत बनेगी।
देवबंद सीट का उपचुनाव जीत कर वह उत्साहित भी होगी। इसके बाद महागठबंधन के लिए यू पी में कितनी गुंजाइश बचती है? बिहार में चुनाव प्रचार और मतदान के विभिन्न चरणों में भी यही लग रहा था कि मुलायम का तीसरा मोर्चा बहुत कम ही सही, लेकिन भाजपा विरोधी वोट काटेगा जो महागठबंधन को हराने का काम करेगा। यह तो नतीजों ने साबित किया कि वहां चुनावी लड़ाई सीधे-सीधे दो गठबंधनों में सिमट गई थी जिससे वह तीसरा मोर्चा मैदान से ही गायब हो गया। आशंका के अनुरूप वह भाजपा को कोई फायदा नहीं पहुंचा पाया।
यूपी में फिलहाल ऐसे आसार नहीं हैं कि चुनावी युद्ध दो पक्षों तक सीमित रहेगा। यहां मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय होने की स्थिति में एक-एक वोट की बड़ी कीमत होगी। तब शायद महागठबंधन मुलायम को नुकसान पहुंचाने के स्थिति में हो सके। अभी तो साल भर में बहुत से समीकरण बनेंगे-बिगड़ेंगे। फिलहाल नीतीश और शरद नाम के लिए एक महागठबंधन तो यूपी में खड़ा कर ही सकते हैं। इसकी शुरुआत उन्होंने कर दी है। मगर लगता है फिलहाल मुलायम सिंह यादव को इस पहल से कोई चिंता नहीं है। उन्होंने इसका नोटिस तक नहीं लिया। उनकी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। फिलहाल उनकी चिंता भाजपा से ज्यादा मायावती हैं जो भाजपा से मुख्य मुकाबले में आती दिख रही हैं। =