‘मोदी का मास्टर स्ट्रोक’
माफ कीजिएगा, वन डे क्रिकेट में छक्का स्लॉग ओवरों (अंतिम के दस ओवर) में ही लगता है। ….और चिन्ता मत करिए ऐसे कई और छक्के अभी लगने वाले हैं ….इन्तजार कीजिए।’’ यह दलील थी देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की, जब वे राज्यसभा में आर्थिक रूप से पिछड़ों को दस फीसद का आरक्षण दिए जाने संबंधी बिल (विधेयक) पर चर्चा के दौरान सरकार का पक्ष रख रहे थे। यह वही बिल है जिसे केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार अपने कार्यकाल के लगभग अंतिम दौर में लेकर आयी है। इसी बात को लेकर विपक्ष ने बिल की ‘टाइमिंग’ को लेकर सवाल उठाया था। लेकिन सच्चाई यह है कि हिन्दी भाषी तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मिली हार और उसके पीछे केन्द्र सरकार के एससी-एसटी एक्ट को लेकर अपनाये गए रवैये को मुख्य कारण माना गया है।
बस, इसी ‘दरार’ को भरने के लिए मोदी सरकार ने यह बिल लाने की सोची है। हालांकि यह बिल ‘राजनैतिक मजबूरियों’ के चलते लोकसभा और राज्यसभा दोनों में ही दो तिहाई बहुमत से पारित हो गया लेकिन यह क्या संविधान की भावनाओं के अनुरूप है और सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दिए जाने पर यह कसौटी पर खरा उतरेगा, ऐसे कई सवालों के जवाब अभी आने शेष हैं। पर भाजपा के रणनीतिकारों का साफ मानना है कि यह मोदी सरकार का ‘मास्टर स्ट्रोक’ है। वहीं, कुछ राजनैतिक पण्डितों की यह भविष्यवाणी भी है कि नरेंद्र मोदी की सरकार का सामान्य वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला आगामी लोकसभा चुनाव में नतीजे उल्टे भी हो सकते हैं। हालांकि कथित रूप से सामाजिक न्याय और समानता का नारा देश की राजनीति में सक्रिय लगभग हर दल कभी न कभी न सिर्फ उठाता रहा है बल्कि उसने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी उसकी जगह दी है। चाहे वह कांग्रेस हो, बसपा हो या फिर अन्य कोई दल। यह भी सच है कि कांग्रेस की नीतियों से विमुख होने के बाद सवर्ण जातियों ने भाजपा को अपना नया ठिकाना बनाया।
सवर्णों का समर्थन मिलने के बाद ही भाजपा ने लोकसभा में दो की संख्या से 282 के आंकड़े तक को छुआ था। यही वजह है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को देश की आबादी के लगभग 11.5 प्रतिशत सवर्ण तबके का एकजुट समर्थन मिला। लेकिन पिछले साढ़े चार वर्षों के दौरान विभिन्न कारणों से सवर्ण मतदाताओं का आधार भारतीय जनता पार्टी से एक प्रकार से किनारा किया है। ताजा घटनाक्रम में सुप्रीम कोर्ट के दलित एक्ट के खिलाफ फैसले ने भारतीय जनता पार्टी को तो बड़ी दुविधा में डाला ही सवर्णों को भी आत्मचिंतन के लिए बाध्य कर दिया। इसके पीछे कारण यह था कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद और उसके खिलाफ बहुजन समाज के देशव्यापी आंदोलन ने नरेंद्र मोदी सरकार को संसद में संविधान संशोधन लाना पड़ा। उधर, सवर्णों के जातिगत संगठनों ने भी मोदी की सरकार के संविधान संशोधन का विरोध किया और सीधे-सीधे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को हराने का आह्वान कर दिया। लेकिन जब इन राज्यों के चुनाव परिणाम आये तो साफ हो गया कि दलित एक्ट में संशोधन ही हार का कारण बना। यह भी साफ है कि मतदाताओं ने भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस को तो पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया लेकिन ‘नोटा’ दबाकर खेल खराब कर दिया। यही वजह रही कि भाजपा बराबर का रण लड़ने के बाद भी सत्ता से सिर्फ एक-दो कदम ही दूर रह गयी। लेकिन हार तो हार होती है और इसका ‘संदेश’ बहुत दूर तक न सिर्फ जाता बल्कि ‘असर’ भी छोड़ता है।
हालांकि यह धारणा है कि भाजपा आरक्षण के सिद्धांत की विरोधी है। समय-समय पर भाजपा और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानि आरएसएस इस पक्ष का रहा है कि आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था या तो समाप्त होनी चाहिये या फिर इसमें आमूल चूल परिवर्तन होना चाहिए। कमोबेश यही वजह रही होगी कि बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने जब बहुजनों के आरक्षण के संवैधानिक सिद्धांत की समीक्षा की बात कही थी। उनका इस वक्तव्य को ही बिहार में भारतीय जनता पार्टी की हार का कारण बाद में माना गया था। लेकिन भाजपा को यह भी भलीभांति पता है कि जाति आधारित राजनीति करने वाले दलों से वह आसानी से पार नहीं पा सकती है। यही वजह है कि वह हिन्दुत्व के मुद्दे को हवा देती है। लेकिन उसे पता है कि जातियों को बिना जोड़े चुनावी रण जीतना आसान नहीं है। यही वजह है कि महाराष्ट्र में भाजपा सरकार ने मराठाओं को आरक्षण दिया है। वहीं दूसरी ओर 1978 में देश के विभिन्न राज्यों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के विरोध में होने वाले आंदोलनों से निपटने के लिए आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की मांग की जाती रही है। अब मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन किया है।
वहीं यह भी कटु सत्य है कि संवैधानिक रूप से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के अलावा आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाकर देश के कई राज्यों में आरक्षण देने की राजनीतिक पार्टियों ने कोशिश की है लेकिन अदालतों ने इसे रद्द कर दिया। मुसलमानों को आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर ही आरक्षण देने की कोशिश भी विफल हुई है। दरअसल मंडल आयोग की अनुशंसाओं के लागू होने के बाद इंदिरा साहनी के मामले पर एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से कम निर्धारित कर दी है। वहीं दूसरी ओर तमिलनाडु में 67 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन वह संविधान के उन प्रावधानों के हवाले से है जिन्हें न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है। वहीं अब गरीब सवर्णों को शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण का कानून अन्ततोगत्वा सदन के दोनों सदनों में पारित हो गया। इस विधेयक के प्रविधानों के अनुसार अब देश के बहुत बड़े सवर्ण तबके को इसका लाभ प्राप्त होगा। इससे न केवल हिन्दू बल्कि मुस्लिम तथा ईसाई धर्म का उच्च वर्ग भी लाभान्वित होगा। सदन के दोनों सदनों में इस विधेयक पर हुई बहस के दौरान विपक्षी सांसदों ने इस पर सवाल तो बहुत उठाए परन्तु इसके विरोध में मतदान करने वालों का प्रतिशत न के बराबर ही रहा। लोकसभा में इसके विरोध में मात्र तीन तथा पक्ष में 323 मत पड़े थे। जबकि राज्यसभा में इस विधेयक के पक्ष में 165 तथा विरोध में मात्र सात मत पड़े। अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह विधेयक अमल में आ जाएगा। लेकिन इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलने के पूरे आसार हैं। कई संविधान विशेषज्ञ यह मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में इस विधेयक के ठहर पाने की सम्भावना बहुत कम है।
खैर, इसे अदालत में चुनौती दी जायेगी या नहीं यह बात तो भविष्य के गर्भ है। लेकिन सवाल यह है कि इस विधेयक के अमल में आने के पश्चात आखिर सवर्ण गरीबों को कितना और कैसे लाभ होगा? नये विधेयक के अनुसार 10 प्रतिशत का आरक्षण उन सवर्ण परिवारों को मिलेगा जिनकी वार्षिक आय आठ लाख रुपये से कम है। जिनके पास एक हजार वर्गफुट या इससे कम क्षेत्रफल वाला मकान है वे भी इसके पात्र हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जिनके पास पाँच एकड़ या इससे कम कृषि योग्य भूमि है वे भी इस आरक्षण व्यवस्था के दायरे में आते हैं। अब यदि हम राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन द्वारा जारी किए गए आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो देश में 8 लाख से कम की वार्षिक आय वाले 95 प्रतिशत परिवार हैं। एक हजार वर्ग फुट या इससे कम के क्षेत्रफल वाले मकान में निवास करने वाले परिवार 90 प्रतिशत हैं। वहीं यह भी एक तथ्य है कि देश के लगभग 87 प्रतिशत किसान ऐसे हैं जिनके पास 5 एकड़ या इससे कम कृषि योग्य भूमि है। इस तरह से पिछड़ों और दलितों को मिलाकर देश की लगभग 90 प्रतिशत आबादी आर्थिक आधार पर आरक्षण की श्रेणी में आती है। जिसमें से 22.50 प्रतिशत दलितों को तथा 27 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग को अर्थात लगभग 50 प्रतिशत का आरक्षण पहले से ही सरकार ने दे रखा है। वहीं लोकसभा और राज्यसभा में संविधान के ताजा संशोधन के दौरान विपक्ष की ओर से कई चौंकाने वाले तथ्य सदन में रखें।
इस दौरान कहा गया कि आठ लाख रुपये तक की आय और पाँच एकड़ जमीन के मानक में देश की करीब 98 फीसदी आबादी आती है। इसका अर्थ यह होगा कि इतनी आबादी को मात्र 10 फीसदी कोटे में ही संघर्ष करना पड़ेगा। वहीं माना जाता है कि ढाई लाख से आठ लाख रुपये वार्षिक आय वाले परिवार अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में प्राय: सक्षम होते हैं। ऐसे परिवार अपने बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा के लिए अच्छे से तैयार कर सकते हैं। लेकिन ढाई लाख से कम की वार्षिक आमदनी करने वाले गरीब सवर्णों के लिए यह असंभव जैसा है। इस विधेयक पर हुई चर्चा के दौरान आयकर की सीमा और सरकार द्वारा दी गयी गरीबी की नयी परिभाषा को लेकर भी सवाल उठाए गए। आयकर के पहले स्लैब में 2.5 लाख से 5 लाख रुपए की वार्षिक आय करने वालों को 5 प्रतिशत तथा 5 लाख से 10 लाख रुपये की वार्षिक आय वालों को 20 प्रतिशत आयकर देना होता है। इस तरह से एक ओर जो व्यक्ति कर प्रदाता है, दूसरी ओर वही व्यक्ति गरीब भी है। यह अपने आप में विरोधाभासी है। साफ है कि ऐसे अनेक सवाल जब सुप्रीम कोर्ट में उठेंगे तो यह विधेयक कितनी देर ठहर पाएगा। लेकिन बावजूद इसके भाजपा ने बड़ा चुनावी दांव खेल दिया है।