मौलाना आज़ाद और हिन्दुत्व
आरक्षण के मुद्दे पर एक बार जब ड्राफ्ट धारा 292 एवं 294 के अंतरगत मतदान हुआ तो उस में सात में से आरक्षण के विरुद्ध पाँच मत पड़े जो कि मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी के थे। रोजचक बात यह है कि उस समय आरक्षण की हिमायत में सरदार पटेल ने भी वोट डाला। इसी प्रकार से जब पण्डित जवाहर लाल नेहरू 26 मई 1949 को कांस्टीट्वेंट असेम्बली में भाषण दे रहे थे तो उन्हों ने जोर दे कर कहा था कि यदि हम किसी अल्पसंखयक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उस से समाज का संतुलन बिगड़ेगा क्योंकि इस से भाई-भाई के बीच दराड़ पड़ जाएगी। इसी प्रकार दलितों के मसीहा महातमा गांधी ने भी अपने अख्बार ‘हरिजन’ के 12 दिसम्बर 1936 के संस्करण में लिखा था कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो।
फिरोज़ बख्त अहमद : यूं तो कांग्रेसी महात्मा गांधी, पण्डित जवाहर लाल नेहरू, सरदाद पटेल, गोविंद बल्लभ पंत आदि को धर्मनिरपेक्षता का सूत्रधार मानते थे, जो कि ठीक भी था मगर इन सभी व्यक्तियों में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, भारत के दिग्गज स्वतंत्रता सेनानी एवं प्रथम शिक्षमंत्री अपनी करनी एवं कथनी दोनों में ही वास्तविक रूप से न केवल धर्मनिरपेक्ष थे बल्कि उन्होंने इस्लाम और हिन्तुत्व के बीच एक पुल भी बनाया था, जिसे शायद कम ही लोग जानते हैं। हिन्दुत्व को मौलाना आज़ाद ने वेदांत द्वारा इस्लाम के वेदांत द्वारा वहदत-ए-दीन और सुलह-ए-कुल द्वारा समावेश कर इस बात को प्रमाणि कर दिया कि भले ही हिन्दुत्व एवं इस्लाम दो भिन्न धर्म हैं मगर इनमें लगभग 60 प्रतिशत बातें एक ही जैसी हैं। इस बात का प्रमाण हमें शाहजहांपुर, उप्र के पण्डित मौलाना बाशीरुद्दीन कादरी से भी मिलता जिन्होंने गीता का अनुवाद अरबी और कुरआन का अनुवाद संस्कृत में किया था। यही नहीं, आज़ाद ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह भी प्रमाणित किया कि मुसलमानों के लिए भारत को अंगे्रजों के चंगुल से आज़ाद कराना उनका न केवल भारतीय बल्कि इस्लामी कर्तव्य भी ही। यही कारण था कि उन्होंने ‘अल-हिलाल’ और ‘अल-बलाग़’ में बड़े साफ षब्दों में इस बात का उल्लेख किया है कि जब तक मुस्लिम एवं हिन्दू संप्रदाय कंधे से कंधा मिलाकर अंगे्रजों से भारत को आज़ाद कराने का जिहाद नहीं करेंगे तो समस्याओं न केवल ग्रसित होंगे बल्कि साम्राज्य के जबड़ों में ख़ुद को कसा हुआ पाएंगे। मौलाना आज़ाद के नज़दीक हिन्दुत्व का दर्शन वह नहीं था, जो कि विश्व हिन्दू परिषद् के अशोक सिंघल एवं डा. प्रवीण तोगड़िया या शिवसेना नेताओं का है। वे हिन्दुत्व को एक ऐसी सामाजिक पद्धति के तौर पर जानते थे कि जिसका दिल बहुत बड़ा है और जो अपने अन्दर नानाप्रकार की विचारधाराओं और यहां तक कि विभिन्न धर्मों को भी समाहित कर सकता है। यही कारण है कि मौलाना ने अपने ‘अल-बलाग़’ के नवंबर 1916 के तीसरे अंक में लिखा था कि बहुत से लोग समझते हैं हिन्दू महासभा भारत की आज़ादी की लड़ाई से अलग है।
उन्होंने कहीं यह भी ज़िक्र किया है कि आज़ादी आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता डा. हेडगेवार इस मत में थे कि अगर देश को आज़ाद करने के लिए कांग्रेस का साथ भी देना हो तो कोई आपत्ति नहीं। वैसे भी उन्होंने हिन्दुत्व दर्शन को तार्किक रूप से बौद्धिक माना है। इसके अतिरिक्त मौलाना ने 1940 में ‘मराठा’ अखबार का हवाला देते हुए लिखा है कि ‘संघ’ के विरुद्ध किसी भी मुस्लिम संस्था ने शिकायत नहीं की है। यह अलग बात है कि पण्डित जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल ‘संघ’ को फासीवाद संस्था के रूप में जानते थे और सरदार पटेल ने तो एक बार आरएसएस पर प्रतिबंध भी लगवा दिया था। मौलाना आज़ाद डा. हेडगेवार से इसलिए भी प्रभावित थे कि उनके नज़दीक खि़लाफ़त अंग्रज़ों को भारत से निकालने का एक सकारात्मक पहलू है। इसी प्रकार से मौलाना आज़ाद वंदेमातरम को भारत की आध्यात्मिक जागरुकता का एक दार्शनिक गीत मानते थे। एक बार जब वंदेमातरम का 1 जनवरी 1952 में सितारवादक कृष्ण कुमार के द्वारा गुणगान हो रहा था तो मौलाना आज़ाद ने उसकी प्रशंसा की और कहा कि इस गीत को वे इसलिए भी पसंद करते हैं कि इसे रवींद्र नाथ टैगोर, सुरेंद्र नाथ बैनर्जी, सत्य भूषण गुप्ता, रतींद्र नाथ बोस एवं एच. बोस जैसे दिग्गजों ने भी गाया है। आज़ाद इस गीत के संबंध में कभी भी पचड़े में नहीं पड़े कि इससे इस्लाम को किसी प्रकार का ख़तरा है। न केवल उन्होंने इस प्रकार के विशयों पर विशाल हृदयी रूप अपनाया बल्कि साथ ही साथ उन्होंने इस बात का भी पूर्ण रूप से ध्यान रखा कि किसी की धार्मिक आस्था को चोट न पहुंचे।
बक़ौल मौलना आज़ाद हिन्दू और मुसलमान सदियों से एक-दूसरे के साथ रहते चले आए हैं और रहते चले आएंगे। उनका कथन था कि वे सामने वाले व्यक्ति की आंख में हिन्दू एवं मुसलमान न देखकर इंसान देखा करते थे और उनको सर सैयद अहमद खान, संस्थापक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की यह बात बड़ी पसंद थी कि हिन्दू और मुसलमान भारत नामी दुल्हन की दो सुन्दर एवं सुरम्य आंखें हैं। क्या खूब कहा है कि उर्दू के सिपाही एवं शायर संजीव सराफ ने, कोई मुश्किल नहीं है हिन्दू या मुसलमां होना/हां बड़ी बात है इस दौर में इंसां होना। मौलाना आज़ाद को डा. हेडगेवार की यह बात भी बड़ी पसंद थी कि उनके निकट वतन मात्र भारत ही नहीं था बल्कि वे पूर्ण विश्व को वतन मानते थे और सारी पृथ्वी के पालन की बात करते थे, अर्थात्-सर्वे भवन्तु सुखना। मौलाना को आखि़री दम तक इस बात का दुख रहा कि मुस्लिम तबक़ा अपनी ताक़त आपसी झगड़ों में बर्बाद करता चला आया है। अर्थात्, शिया-सुन्नी झगड़े, बरेलवी-देवबंदी-अहल-ए-हदीस झगड़े तो कभी अहल-ए-हदीस दूसरे मुस्लिम समुदायों में झगड़े हैं। अब तो यह है कि मुस्लिम तबका एक ही होना चाहिए अब तो इन्होंने अपने को इतनी जातियों एवं प्रजातियों में बांट लिया कि अब तो कोई गिनती नहीं हैं, जैस-सैयद, षेख, पठान, अंसारी, राजपूत, सलमान, मलिक, मंसूरी, कुरैषी, राईनी, इद्रीसी (दर्जी), अल्वी, अब्बासी, क़स्सार, सक्का, नाई, मीरासी, शम्सी, घोसी आदि। मौलाना चूंकि दिल के साफ थे, ईमानदारी से धर्मनिरपेक्ष थे, अक्सर इस बात की तारीफ किया करते थे कि देखो बिरादान-ए-वतन (हिन्दू) किस प्रकार से संगठित हैं और हम मुस्लिम एक दूसरे को फूटी आंख नहीं भाते। आप देख लीजिए कि ईराक़ में क्या हो रहा है। षिया-सुन्नी को मार रहा है और सुन्नी षिया को मार रहा है और कुछ ऐसा ही पाकिस्तान में हो रहा है। मौलाना कहीं यह भी लिखते हैं कि भारत के मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि यदि उनकी सोच रूढ़िवादी रही तो इसके कारण उनसे कतराने वाले हिन्दुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी होती चली जाएगी।
मुस्लिमों को हिन्दुओं की यह धारणा बदलने के लिए भरसक प्रयास करने चाहिए। यह जितना उनके हित में उतना ही देष के हित में भी होगा। दुर्भाग्य से मुसलमान अपनी ही अलग दुनिया में जी रहे है। मुस्लिम नेता, जैसे काए-ए-आज़म, मुहम्मद अली जिन्नाह केवल उनकी भावनाएं भड़काने का काम करते हैं और उनकी मुसीबतों में और इज़ाफा ही करते हैं। इन आत्म दुश्ट नेताओं का मुसलमानों के पिछड़ेपन से कोई सरोकार नहीं है हर मौक़े पर उनके द्वारा दिखाए जाने वाले कट्टरपंथी रवैयों ने हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी रिष्तों के बुनियाद को और कमजोर किया है। मुस्लिम अभिभावकों को भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। उन्हें अपनी पुरानी आदतें और धारणाएं छोड़नी होगी और अपने बच्चों को प्रोत्साहित करना होगा कि वे अच्छी शिक्षा प्राप्त करें। यदि वे योग्य हैं तो उन्हें अवश्य ही सफलता प्राप्त होगी।
(लेखक मौलाना आज़ाद के पौत्र हैं)
(राष्ट्रीय शिक्षा दिवस (11 नवम्बर) व मौलाना अबुल कलाम आजाद के 130वें जन्मतिथि पर विशेष)