5. दुखद तजुर्बे का पीड़ितों की याददाश्त पर बुरा असर पड़ता है-
बलात्कार या यौन हिंसा के शिकार बहुत से लोग कुछ खास तरह के मंजर को याद करने का दावा करती हैं। उनके जहन में कुछ आवाजें या बू कैद हो जाती है। भले ही ऐसी घटनाएं बीते हुए कई दशक क्यों न हो जाएं। ऐसी तस्वीरें, बू या आवाजें उन पीड़ितों के जहन में हमेशा के लिए दर्ज हो जाती हैं।
मगर, जब इन पीड़ितों से उन तस्वीरों में दिखने वाले शख्स के बारे में पूछा जाता है, तो वो नहीं बता पातीं। वो नहीं बता पातीं कि किस की आवाज उनके दिमाग में गूंज रही है। जो बू उन्हें आती है, वो किसकी है। कई बार पीड़िता अपनी ही बातों को नकार देती है। लंदन के किंग्स कॉलेज की मनोवैज्ञानिक एमी हार्डी कहती हैं कि, ‘हादसे की यादों और अदालती कार्रवाई में बहुत लंबा फासला है। लोग अपने साथ हुए दुखद तजुर्बे को अक्सर कानूनी पहलू से नहीं बता पाते हैं।’
वजह ये है कि बुरी यादें, रोजमर्रा की यादों से अलग होती हैं। आम तौर पर हम जो देखते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं या चखते हैं या छू कर महसूस करते हैं, उन तजुर्बों को जहन दर्ज कर लेता है।
बाद में वही तजुर्बा होने पर उन यादों के हिसाब से हमारा दिमाग़ चीजों को देखता-समझता है। लेकिन, जब भी ऐसे हादसे होते हैं, तो हमारा शरीर तनाव का शिकार हो जाता है। फिर वो उस तजुर्बे की सही तस्वीर कैद नहीं कर पाता, क्योंकि जब भी हम किसी खतरे के शिकार होते हैं, तब हमारा पूरा ध्यान उससे बच निकलने पर लगता है।
तब हम उस तजुर्बे को भविष्य में इस्तेमाल के लिए अपने दिमाग में दर्ज करने के बजाय हालात से बच निकलने पर जोर लगाते हैं। यही वजह है कि मुश्किल में पड़ने पर कई बार हमें लगता है कि हमारा दिमाग सुन्न हो गया है। एमी हार्डी ने बलात्कार और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं की दिमागी हालत की पड़ताल की है।
उन्होंने पाया कि जो ऐसी यौन हिंसा की घटनाओं के दौरान खुद को दिमागी तौर पर वहां से अलग कर सकीं, उनकी उस अपराध को लेकर यादें बेहतर थीं। जब पुलिस ने उनसे पूछ-ताछ की, तो वो ज्यादा बेहतर तरीके से अपने साथ हुई घटना को बयां कर सकीं। वहीं, जिसका दिमाग उस वक्त अस्थिर रहा, वो बाद में अपने साथ हुई घटना को सही तरीक़े से नहीं बता पाया। ऐसे मामले कानूनी तौर पर कमजोर पड़ गए।