राज्यपाल नाम का दुशाला
प्रसंगवश : ज्ञानेन्द्र शर्मा
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह उन राज्यपालों से कतई भिन्न नहीं हैं जिन्हें सत्तारूढ़ पार्टी उनके बुढ़ापे या उनकी पुरानी ‘सेवाओं’ के मद्देनजर उनके बदन से राजनीति की ओढ़नी उतारकर उन्हें राज्यपाल नाम का दुशाला ओढ़ा देती है तो भी वे ओढ़नी के प्रति अपना मोह बंद नहीं कर पाते। वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है और सत्तारूढ़ पार्टी चाहे जो रही हो, ओढ़नी और दुशाला का यह खेल अनवरत रूप से चलता रहता है। केन्द्र से कांग्रेस हटी और भाजपा आ गई तो भी वही खेल जहां का तहां उसी विद्रूप रूप में चालू है। कल्याण सिंह अपना जन्मदिन मनाने या यदाकदा किसी और कार्यक्रम के सिलसिले में लखनऊ आते रहते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री के रूप में माल एवेन्यू में उन्हें एक बंगला मिला हुआ है जो उनके आते ही कमल के झण्डों वाले वाहनों और उसी तरह के दुपट्टे ओढ़कर रहने वाले नेताओं से घिर जाता है।
इस बार जब जुलाई के आखिर में वे लखनऊ आए तो यही हुआ। फर्क इतना जरूर था कि पहले जो नेता भाजपा में पद पाने की लालसा लेकर उनके पास आते थे, उनमें से बहुतेरे अब पद पा जाने के बाद आभार या कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आए थे। भाजपा की नई प्रदेश कार्यकारिणी में जगह पा जाने वाले बहुत से नेता पूर्व मुख्यमंत्री और अब राज्यपाल के पद पर आसीन कल्याण सिंह का आशीर्वाद लेने आए थे। कल्याण सिंह ने किसी को निराश नहीं किया। उन्होंने किसी से यह भी नहीं कहा कि अब वे राज्यपाल हैं और सत्ता की राजनीति अब उनके लिए अस्पृश्य है। वे केवल कमल के फूल का दुपट्टा भर नहीं ओढ़े थे, बाकी वे पूरे के पूरे एक भाजपा नेता की तरह प्रस्तुत थे। और वे ही क्यों, नई सरकार आने के बाद पुरानों की जगह लेने वाले तमाम दूसरे राज्यपाल भी राजनीति से मोह भंग नहीं कर पाते। वे केन्द्र में बैठी सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक हितसाधन के लिए अपनी सेवाएं देने हेतु हाजिर रहते हैं और अपनी आतुरता दिखाने के लिए दिल्ली की ओर ताकते रहते हैं। उत्तराखण्ड और अरुणांचल प्रदेश के राज्यपाल इसके ताजे उदाहरण हैं जिन्होंने अपने कार्यकलापों से अपने भगुवा होने का संदेश तो दिया ही, केन्द्रीय सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी की नाक भी इस प्रक्रिया में कटा दी। सुप्रीम कोर्ट ने दोनों राज्यों के मामलों में राज्यपालों को फटकार लगाई और जिन सरकारों को हटाकर भाजपा खुद सत्ता में बैठना चाहती थी, वे जहां की तहां सत्तासीन रहीं।
दस साल के लम्बे अंतराल के बाद दिल्ली में अंतक्र्षेत्रीय परिषद की एक बैठक हुई जिसमें कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों या उनके प्रतिनिधि-मंत्रियों ने भाग लिया। गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों ने राज्यपालों की भूमिका की जमकर खिंचाई की। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो राज्यपाल का पद ही समाप्त कर देने की मांग कर डाली। लेकिन राज्यपाल नाम का इतना सलोना पद भला कोई राजनीतिक दल ऐसे ही थोड़े खत्म कर देगा। आखिर भाजपा को भी तो वैसा कुछ करने का मौका चाहिए जो उसके पूर्ववर्ती करके गए हैं। यानी सक्रिय राजनीति लायक जो नहीं रहे या बूढ़े हो गए या जो कहीं और नहीं खप पा रहे, उन्हें कहां ले जाएं? उनके लिए कहां और कौन सी ठौर तलाशी जाए? भला राजभवन से अच्छी और कौन जगह है? आराम से बैठिए, उठिए, सोईए, उद्घाटन करिए, पुरस्कार बांटिए और साथ में पूरी राजनीति भी करिए, राजनीतिक घटनाक्रम में पांव पसारिए। अब रंग में भंग करने वाले मोहम्मद आजम खां हर राज्य में थोड़े ही हैं। क्या अब भी यह बताने की जरूरत है कि यह वही भारतीय जनता पार्टी है जिसने सालों साल विपक्ष में रहते समय अपने चुनाव घोषणापत्र में कहा था कि वह राजभवनों को केन्द्र में सत्तारूढ़ दल का विस्तारित पटल यानी एक्सटेंशन काउंटर नहीं बनने देगी? जय हो! ल्ल