वैचारिक टकराव या कुछ और?
राम शिरोमणि शुक्ल
रोहित बेमुला और कन्हैया कुमार। हैदराबाद विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय। कभी पंडित मदन मोहन मालवीय ने विश्वविद्यालय बनवाने के लिए चंदा उगाहा था। अब एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालय को बंद करवाने की मांग हो रही है। जितने मुंह उतनी बातें। सबके अपने तर्क और अपनी मान्यताएं, लेकिन किसी को क्या पता कि वह क्या कर रहा है और उसका परिणाम क्या निकलने वाला है। अब से कोई दो साल पहले अचानक ऐसा माहौल बना दिया गया था कि अचानक लोगों को लगने लगा था कि इस देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है और इसे विकास के बलबूते खत्म किया जा सकता है। संभवत: किसी को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि दो साल-बीतते विकास कहीं पीछे चला जाएगा और सबके केंद्र में आ जाएगा देशप्रेम और देशद्रोह। यह सब ऐसे समय हो रहा है जब सबसे ज्यादा बातें आर्थिक स्थिति को लेकर होनी चाहिए थी, लेकिन बातें हो रही हैं आरक्षण और विधानसभाओं के चुनाव पर। आजादी के बाद से लंबे समय तक सत्ता में काबिज रहने वाली कांग्रेस को बुरी तरह सत्ता से बाहर कर प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने वाले प्रधामंंत्री नरेंद्र मोदी अब कहने लगे हैं कि उनके खिलाफ साजिश हो रही है।
यह सब तब हो रहा है जब संसद का बजट सत्र है और देश के एक राज्य हरियाणा में जाट आरक्षण को लेकर हिंसा इतनी बढ़ गई है कि सेना बुलानी पड़ी है। इसी बीच दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजा जा चुका है। कई अन्य छात्रों पर भी देशद्रोह का आरोप है। इससे भी कुछ समय पूर्व गुजरात के एक आंदोलनकारी नेता हार्दिक पटेल पर भी देशद्रोह का आरोप लगाया जा चुका है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित बेमुला की आत्महत्या और आईआईएफटी व अकुपाई यूजीसी को लेकर आंदोलन चल ही रहे हैं। अभी वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा के दौरान एक छात्र की छात्रसंघ बहाली की मांग पर उसे भरी सभा में थप्पड़ तो मारा ही गया, पुलिस ने बाहर विरोध कर रहे छात्रों पर लाठीचार्ज किया। अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में प्रधानमंत्री काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस समारोह और संत रविदास जयंती संबंधी कार्यक्रमों में गए थे। जिस छात्र को भरी सभा में थप्पड़ मारा गया वह छात्रसंघ बहाली की मांग कर रहा था और जिन छात्रों पर पुलिस ने बल प्रयोग किया वे दलित बताए जाते हैं।
जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया की पटियाला हाउस कोर्ट में पेशी के दौरान दिल्ली के एक भाजपा विधायक और एबीवीपी के छात्रों तथा कुछ वकीलों द्वारा अदालत परिसर में पुलिस की मौजूदगी में छात्रों और पत्रकारों पर हमला और सबक सिखाने की सार्वजनिक धमकियां अनायास नहीं कही जा सकतींं। शासन और प्रशासन की ओर से चाहे जितना यह कहा जाता हो कि कानून अपना काम करेगा और उसे अपना काम करने देना चाहिए, क्या इसे गंभीरता से नहीं लिए जाने की जरूरत नहीं है कि जिस देश में मजबूत न्यायपालिका है और उसके प्रति लोगों का सम्मान और विश्वास हो, उसकी अनदेखी कर उसी के अहाते में लोग खुद कानून को हाथ में लेने लगें और न्याय करने लगें। ऐसे में क्या संवैधानिक और मान्य संस्थाओं की अनदेखी का संकेत साफ नहीं जाता है। संविधान, संसद, न्यायालय और शिक्षण संस्थानों आदि को किनारे कर भीड़ को न्याय का अधिकार देकर हम किस तरह के लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने की कोशिश में लग गए हैं। विकास के नारे के बीच आरक्षण आंदोलन और हिंसा क्या यह नहीं बताते कि निवेश और मेक इन इंडिया व स्टाट्र्स अप जैसे कार्यक्रमों के साथ क्या होने वाला है। कौन करेगा भारत निवेश जब मारुति का उत्पादन रुक जाएगा। इस सबके बीच दो और चीजों का उल्लेख किया जाना जरूरी है। संघ नेता मोहन भागवत ने अब से कुछ समय पहले बिहार विधानसभा चुनाव के बीच आरक्षण को लेकर एक बयान दिया था। बाद में कहा गया कि बिहार में भाजपा की हार के पीछे अन्य कारणों में से एक वह बयान भी था। अब हरियाणा के जाट आंदोलन के दौरान एक बार फिर भागवत ने आरक्षण को लेकर बयान दिया है। उनका कहना है कि आरक्षण की पात्रता के संबंध में फैसला करने के लिए गैरराजनीतिक लोगों की कमेटी बनाई जानी चाहिए। ध्यान देने की बात है कि आरक्षण पिछड़ों खासकर दलितों को मुख्यधारा में लाने के लिए दिया गया था।
एक और बात मनरेगा को लेकर भी है। इस सरकार ने मनरेगा को लेकर न केवल अरुचि दिखाई थी बल्कि प्रधानमंत्री ने संसद में इसकी तीखी आलोचना की थी। मनरेगा से गरीबों खासकर दलितों को काम का इंतजाम पिछली सरकार द्वारा किया गया था। एक सवाल सब्सिडी को लेकर पिछले दो सालों में बहुत गरम रहा है। इस तरह बताया जाता रहा है जैसे सभी समस्याओं की जड़ सब्सिडी है और अगर इसे बंद कर दिया जाए तो विकास की गति तेज हो जाएगी। इसकी शुरुआत भी कर दी गई, लेकिन अब पता चल रहा है कि बैंकों की वह करोड़ों की देनदारी माफ कर दी गई जो किसी खास वर्ग के पास थी। रोहित बेमुला, कन्हैया कुमार, मनरेगा और आरक्षण जैसे तमाम सवाल किस ओर इशारा करते नजर आते हैं।
हाल के जेएनयू के घटनाक्रम के माध्यम से यह बताने की कोशिश की जा रही है कि यह पूरा मामला विचारधाराओं के टकराव का नतीजा है। इसे ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे यह राष्ट्रवाद और राष्ट्रविरोधियों के बीच की लड़ाई है। कहा जा रहा है कि जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थानों पर कम्युनिस्टों और आतंकवादियों का कब्जा हो गया है और इस तरह के शिक्षण संस्थानों से देश विरोधी गतिविधियां संचालित की जा रही हैं। इसलिए इन शिक्षण संस्थानों को ऐसे तत्वोंं से मुक्त कराना बहुत जरूरी हो गया है। यह सोच कहां तक जाती है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मांग यह होने लगी है कि इन्हेंं बंद कर दिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, कुछ लोग कानून, सरकार, न्यायपालिका और संस्थानिक प्रशासन की अनदेखी कर खुद ही इस काम को अंजाम देने पर तुल गए लगते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में दो परिघटनाओं को समझना बेहद मौजूं हो गया है। जो लोग इस तरह के मामलों को केवल कम्युनिस्ट बनाम भाजपा की लड़ाई के रूप में देखने की कोशिश कर रहे हैं वे शायद एक खास तथ्य को या तो देख-समझ नहीं पा रहे हैं या जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं। संघ और भाजपा का कम्युनिस्ट विरोध और कम्युनिस्टों का संघ-भाजपा कोई नया नहीं है।
यह लंबे समय से चलता आ रहा है। अब इसमे एक नया पेंच दलित का भी जुड़ गया है जो काफी तेज हो चला है। महिषासुर से लेकर अंबेडकर तक अगर आज कहीं ज्यादा बहस के मुद्दे बन गए हैं तो यह अनायास नहीं है। दूसरी तरफ सूर्य नमस्कार से लेकर गौ माता तक अगर हमारे विमर्श के केंद्र में आ गई हैं तो इसे सिर्फ हिंदू और दलित उभार कहकर टाला नहींं जा सकता है। वरना ऐसा क्या हो गया था कि एक खास पार्टी के सांसद को हैदराबाद विश्वविद्यालय के वीसी पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से छात्रों के खिलाफ कार्रवाई का दबाव डलवाया जाता और जिसकी परिणति एक दलित छात्र की आत्महत्या के रूप में सामने आती। बाद में सरकार और सत्ताधारी पार्टी की ओर से यह कहने को मजबूर होना पड़ता कि वह छात्र दलित नहीं था जबकि छात्र की मां खुद बताती है कि वह दलित है। एक और तथ्य का उल्लेख समीचीन होगा जिसमें केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक तय ऊंचाई वाला तिरंगा झंडा फहराए जाने को अनिवार्य बना दिया जाना।
तिरंगा फहराया जाना निश्चित रूप से हमारे लिए गौरव की बात है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन उन लोगों के सवालों का जवाब भी दिया जाना चाहिए कि तय ऊंचाई से कम और ज्यादा भी तो तय किया जा सकता था और सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ही क्यों। हर शिक्षण संस्थान में क्यों नहीं। यह सब तब हो रहा है जब दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल में एक छात्र की रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो जाती है और बिहार के एक स्कूल में एक छात्रा के पिता की पीट-पीटकर हत्या एक चम्मच खिचड़ी के लिए कर दी जाती हैं। दूसरी तरफ भोपाल में मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव की अगुवाई में करीब 800 कांग्रेस कार्यकर्ता संघ कार्यालय की छत पर चढ़ जाते हैं और वहां तिरंगा फहराते हैं। बाद में संघ कार्यकर्ताओं की ओर से उन प्रदर्शनकारी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का न केवल तिलक लगाकर स्वागत किया जाता है बल्कि उन्हें चाय नाश्ता भी कराया जाता है।
इस तरह का सौहार्द अनायास नहीं है। ऐसे ही इस तरह के आरोप नहीं लगते कि ऐसे तमाम मसलों पर मुख्यधारा की पार्टियों खासकर कांग्रेस और भाजपा में आम सहमति है। शाहबानो प्रकरण से लेकर राम मंदिर का ताला खुलवाने तक और उसके बाद अभी हाल में अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल तक जिस तरह इन पार्टियों में एका होता है, वह एक सुचिंतित चिंतन का ही परिणाम है। कलबुर्गी और पंसारे की हत्या से लेकर सोनी सोरी के चेहरे पर कालिख पोतने तक इन्हीं पार्टियों के राज में होता है।
हार्दिक पटेल पर देशद्रोह का आरोप भी। सत्ता में रहने के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी क्या करते और कहते हैं, किसी से छिपा नहीं है, लेकिन सत्ता से बाहर होते ही वह रोहित बेमुला की आत्महत्या पर वह हैदराबाद विश्वविद्यालय और कन्हैया की गिरफ्तारी पर जेएनयू भी चले जाते हैं। एफटीटीआई भी हो आते हैं। संसद में उनकी पार्टी इस तरह के सवालों को मजबूती से उठाएगी भी, लेकिन बाहर केवल बयानबाजी और मातमपुर्सी तक ही खुद को सीमित करेगी। लेफ्ट पार्टियां भी बातें बड़ी-बड़ी करेंगी, लेकिन जनजागरूकता और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ करने के लिए उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं रह गया है। आखिर उन्होंंने यह मान जो लिया है कि अब वर्ग संघर्ष की गुंजाइश ही नहीं बची है और इसके अलावा वे कुछ कर नहीं सकते। तभी तो आध्यात्मिक तरीके से सोचने के अलावा उनके पास कुछ बचा नहींं है।
पश्चिम बंगाल जैसा गढ़ भी उनके हाथ से निकल गया। उत्तर प्रदेश में उनके लिए कुछ बचा नहीं और बिहार में कुछ करने की स्थिति में रहे नहीं। त्रिपुरा और केरल भी अगर हाथ से निकल जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बड़े जनाधार का दावा करने वाली सीपीआईएमएल के महासचिव खुद को यह बताने तक सीमित कर चुके हैं कि जेएनयू में जिन छात्रों पर आरोप लगे हैं उनमें से कई उनकी पार्टी से संबंधित हैं। ऐसे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में किस तरह की राजनीतिक स्थिति है। एक तरफ सब कुछ भीड़ के हवाले कर दिया जा रहा है दूसरी तरफ जिन राजनीतिक लोगों पर लोकतांत्रिक तरीके से हस्तक्षेप करने का जिम्मा है वे खुद को सीमित कर चुके हैं। भीड़ किसी को भी कहीं भी मार दे रही है।
हमारे राजनेता हर बात पर कहने लगे हैं इस पर राजनीति हो रही है जो ठीक नहीं है। यह उसी तरह की बात है जैसे लोकतंत्र की दुहाई देते हैंं, लेकिन सबसे ज्यादा लोकतंत्र को ही कमजोर किया जा रहा है। वरना अगर लोकतंत्र में आस्था होती तो लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने के बजाय उन्हें मजबूती प्रदान की जाती और भीड़ को न्याय का अधिकार देने की बजाय कानून व्यवस्था को मजबूत करने का जिम्मा दिया जाता है। अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो यह गंभीर चिंता का विषय जिसे सिर्फ राष्ट्रवाद के माध्यम से शायद ही हल किया जा सके।
कम से कम संसद और न्यायपालिका का तो सम्मान किया जाना चाहिए। इसीलिए अब चीजों के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत खड़ी हो गई है। आजादी के बाद इस देश ने जिन बड़े बदलावों को हाल-फिलहाल देखा है उनमें मंदिर और मंडल सबसे उल्लेखनीय रहे हैं। शायद यह अनायास नहीं हो रहा है कि राम मंदिर के साथ-साथ एक तरफ देशप्रेम और देशद्रोह का सवाल गरम हो रहा है तो दूसरी तरफ गुजरात से लेकर हरियाणा तक आरक्षण की मांग नए सिरे से खड़ी हो रही है। ऐसे में स्पष्ट है कि यह ब्राह्मणवाद और दलितवाद के बीच की लड़ाई बनती जा रही है जिसे स्थापित व मान्य संस्थाओं के बाहर हल करने की कोशिश की जा रही है। यह अनायास नहीं कहा जाता रहा है कि कम्युनिस्टोंं का सफाया कर दिया गया है और कांग्रेस को भी समाप्ति की ओर धकेल दिया गया है। बची-खुची बीच की राजनीतिक धाराएं अपने आप ही समाप्त हो जाएंगी। जब इस तरह के तर्क दिए जाते हैं कि देश में दो दलीय व्यवस्था होनी चाहिए तो उसका साफ मतलब समझ में आना चाहिए कि सत्ता का आपस में बंटवारा कर लेना है।
बीच में कुुछ नहीं होना चाहिए। उसी तरह जैसे पहले अल्पसंख्यकों को किनारे करो बाद में दलितों को। सारी समस्याएं खुद ब खुद खत्म हो जाएंगी। अब इसी बीच कई राज्यों में विधानसभा चुनाव भी हैं। उनमें जीत हार भी भविष्य की राजनीति की दिशा तय करने वाली हो सकती है। इसके अलावा बहुत जल्दी ही केंद्र सरकार की लोकप्रियता में कमी आ जाना तथा सबका साथ सबका विकास के नारे का व्यवहार में गायब होते जाना भी इस तरह के हालात पैदा करने के पीछे बड़ा कारण है। इस सबके बीच यह समझने की जरूरत है कि क्या मामला सिर्फ इतना है कि रोहित बेमुला दलित नहीं है अथवा जेएनयू को बंद कर दिया जाना चाहिए क्योंकि वहां देश विरोधी गतिविधियां संचालित की जा रही हैं या इससे भी अधिक कुछ है। कभी अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा था कि या तो आप हमारे पक्ष में हैं या हमारे विरोध में हैं।
यहां भी कुछ उसी तरह कहा जा रहा है कि या तो आप देश भक्त हैं या तो देशद्रोही हैं, बीच में कुछ नहीं है। मतलब साफ है कि आप शिक्षा से लेकर रोजगार तक स्वास्थ्य से लेकर जीवन तक किसी तरह की कोई बात मत कीजिए।
अभिव्यक्ति की मांग मत कीजिए, सिर्फ वही कहिए और सोचिए जो हम सोचते और कहते हैं। तब सवाल यह उठता है कि क्या यही लोकतंत्र है और हमारा संविधान यही कहता है। हमारा संविधान सभी को बराबरी का अधिकार देता है। उसे किसी से कैसे छीना जा सकता है। यदि छीना जा रहा है तो वह संवैधानिक और राष्ट्रवाद कैसे कहा जा सकता है। दरअसल, सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है। पहले मानवाधिकार और मानवाधिकारवादियों की आलोचना की गई। फिर सेकुलरिज्म को खराब बताया गया। अब संवैधानिक संस्थाओं को धता बताया जा रहा है और सब कुछ भीड़ के हवाले कर दिया जा रहा है। इसे वैचारिक टकराव तक सीमित कर देना बड़ी समस्याओं की अनदेखी करने जैसा होगा जो आने वाले दिनों में गंभीर खतरों का कारण बन सकता है। इसलिए देश को इन सवालों पर गंभीरता से सोचने और इनका हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए। चुनाव आते-जाते रहेंगे और सरकारें बनती बिगड़ती रहेंगी। देश और लोकतंत्र रहेगा तो सब कुछ ठीक किया जा सकता है।