हमारे देश में इसलिए नहीं मिल पा रही है गुणवत्तापूर्ण शिक्षा
नई दिल्ली : कई राज्यों में स्कूली शिक्षा पर बजट आवंटन बढ़ाने के बावजूद स्कूलों में प्रशिक्षित अध्यापकों, बुनियादी सुविधाओं की कमी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की राह में बड़ी बाधा बने हुए हैं। यह जानकारी एक नए अध्ययन में सामने आई है।
सेंटर फॉर बजट एण्ड गवर्नमेंट अकाउंटबिलिटी (सीबीजीए) और क्राई (चाइल्ड राइट्स एंड यू) द्वारा किए संयुक्त अध्ययन में पता चला कि सार्वजनिक शिक्षा देश के समग्र विकास के लिए सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है, फिर भी गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा की उपलब्धता आज भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
‘बजटिंग फॉर स्कूल एजुकेशन : व्हाट हैज चेंज्ड एंड व्हाट हैज नॉट’ शीर्षक वाले इस अध्ययन में छह राज्यों में स्कूली शिक्षा पर आवंटित बजट का अध्ययन किया गया है। अध्ययन में पता चला है कि 14वें वित्त आयोग की अवधि में स्कूली शिक्षा पर बजट तो बढ़ाया गया, किंतु स्कूलों ने बजट का इस्तेमाल पूरी तरह से स्कूली शिक्षा के स्तर में बदलाव के लिए नहीं किया।
सोमवार को जारी अध्ययन रपट के अनुसार, भारत में 60 फीसदी से अधिक छात्र अपनी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के लिए सार्वजनिक स्कूलों पर ही निर्भर हैं।
रपट के अनुसार, वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर 2017-18 की अवधि के दौरान छह राज्यों -उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और तमिलनाडु- के बजट अनुदान का विस्तृत अध्ययन किया गया।
क्राई की तरफ से जारी बयान में संस्था की निदेशक (पॉलिसी रिसर्च एंड एडवोकेसी), प्रीति महारा ने कहा है, “स्कूलों में बेहतर वातावरण और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र पर व्यय जरूरी है। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश अति अनिवार्य है। स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं और अध्यापकों की कमी को देखते हुए राज्य एवं केन्द्र सरकारों को एक साथ मिलकर प्रयास करने होंगे तथा मौजूदा सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने के लिए व्यय बढ़ाना होगा।”
उन्होंने कहा है, “गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की उपलब्धता कई कारकों पर निर्भर करती है। सिर्फ शिक्षा पर व्यय बढ़ाकर ही गुणवत्ता में सुधार नहीं लाया जा सकता, शिक्षा के क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव के लिए कई और कारकों पर ध्यान देना जरूरी है।”
अध्ययन में पाया गया है कि कुछ राज्यों ने 14वें वित्त आयोग की अवधि में बेहतर काम किया है। पिछले तीन सालों में स्कूली शिक्षा पर बजट काफी बढ़ा है। 2017-18 में तमिलनाडु ने प्रति बच्चे पर 23,464 रुपये खर्च किया, जबकि महाराष्ट्र ने 21,000 रुपये, और छत्तीसगढ़ ने प्रति बच्चे पर 20,320 रुपये खर्च किए।
अध्ययन के अनुसार, स्कूली शिक्षा बजट में प्रमुख हिस्सा अध्यापकों के वेतन का होता है, जो छत्तीसगढ़ में 60 फीसदी से लेकर महाराष्ट्र में 82 फीसदी तक पाया गया। तमिलनाडु के अलावा 14वें वित्त आयोग की अवधि में शेष पांचों राज्यों में अध्यापकों के वेतन की हिस्सेदारी बढ़ी है। लेकिन वेतन का आवंटन उचित नहीं है। पेशेवर अध्यापकों की कमी को देखते हुए यह और अधिक होना चाहिए।
रपट के अनुसार, “प्राथमिक स्कूलों में अध्यापकों की कमी पांच लाख से अधिक है और 14 फीसदी सरकारी माध्यमिक स्कूलों में न्यूनतम निर्धारित छह अध्यापक तक नहीं हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में अध्यापकों के 4.2 लाख पद खाली पड़े हैं। तमिलनाडु और महाराष्ट्र इस ²ष्टि से बेहतर हैं, जहां प्राथमिक स्तर पर 95 फीसदी अनुमोदित पदों पर भर्तियां की गईं हैं।”
रपट के अनुसार, माध्यमिक स्तर पर समस्या अधिक जटिल हैं। हर स्कूल में पांच विषय-अध्यापक और एक प्रधानाध्यापक होना चाहिए। जबकि तमिलनाडु को छोड़कर बाकी सभी पांचों राज्यों में प्रधानाध्यापकों एवं विषय-अध्यापकों की कमी है। बिहार और छत्तीसगढ़ में प्रधानाध्यापकों के 70 फीसदी से अधिक पद खाली हैं और उत्तर प्रदेश में विषय अध्यापकों के 52 फीसदी पद खाली हैं।
सीबीजीए में वरिष्ठ शोधकर्ता, प्रोतिवा कुंडू ने बयान में कहा है, “अध्यापक गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा का आधार हैं। लेकिन सरकार ने अध्यापकों के प्रशिक्षण को न तो कभी प्राथमिकता दी और न ही इसमें पर्याप्त निवेश किया।”
रपट के अनुसार, बहुत से राज्यों ने अप्रशिक्षित अध्यापकों को अनुबंध पर नियुक्त किया है। बिहार में प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर अप्रशिक्षित अध्यापकों का अनुपात सर्वाधिक है। इसके बाद पश्चिमी बंगाल दूसरे स्थान पर है।
रपट में कहा गया है कि बिहार में प्राथमिक स्तर पर 38.7 फीसदी और माध्यमिक स्तर पर 35.1 फीसदी अप्रशिक्षित अध्यापक हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तरों पर अप्रशिक्षित अध्यापकों की संख्या क्रमश: 31.4 फीसदी और 23.9 फीसदी है।
अध्ययन में स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं की कमी पर भी प्रकाश डाला गया है। इमारत, कक्षा, मरम्मत कार्य, पेय जल सुविधाएं, लड़कियों के लिए अलग शौचालय और खेल के मैदान आदि का भी मूल्यांकन किया गया है।
महारा ने कहा, “भारत जैसे देश में जहां 60 फीसदी बच्चे सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली पर निर्भर हैं, वहां गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा के प्रावधान के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है। ऐसे में बजट पर अभी भी ध्यान देना जरूरी है।”