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31 अक्टूबर में श्रद्धांजलि कम, प्रॉपोगेंडा ज्यादा… पढ़ें रिव्यू

soha-580x395इतिहास हमेशा कोई बहुत दूर की चीज नहीं होता। वह कुछ ऐसा नहीं होता कि नजरों से ओझल हो गया हो। अक्सर इतिहास बहुत करीब भी होता है। इतने करीब कि जब याद आता है, तकलीफ से भर देता है। उसकी छाप ठंड के मौसम में उभर आने वाले पुराने दर्द की सी होती है। अपनी पहली फिल्म धग (धधकती अग्नि, 2012, मराठी) के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले निर्देशक शिवाजी लोटन पाटिल की 31 अक्तूबर हमें कुछ इसी अंदाज में इतिहास से रू-ब-रू कराती है।
 
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए सिख विरोधी दंगों की तस्वीर पेश करती यह फिल्म सेंसर की ‘जरूरी काट-छांट’ के बाद सामने है। कुछ खास लोगों की ‘संवेदनाएं’ आहत न हो जाएं इसलिए फिल्म से हत्या के बाद हुई हिंसा में राजनीतिक नेतृत्व की भड़काऊ भूमिका को रफा-दफा कर दिया गया। अतः तस्वीर यह कि जो नरसंहार हुआ उसके जिम्मेदार सिर्फ समाज के पथभ्रष्ट-पतित लोग थे।

फिल्म साधारण सिख पति-पत्नी की कहानी है। जिनके तीन छोटे-छोटे बच्चे हैं। दिल्ली सरकार के बिजली विभाग में काम करते सीधे-सरल, दूसरों की मदद को सदा तत्पर सरदारजी (वीर दास) के प्रति उनके करीबियों की नजरें अचानक बदल जाती हैं, जब इंदिरा गांधी की हत्या की खबर आती है। उनके नाते-रिश्तेदारों का भी जीवन यहां दिखता है, जो गुरुद्वारे में सेवाएं दे रहे हैं।

 

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