परदे के पार
दीदी की क्रेडिबिलिटी दांव पर
बात बंगाल वाली दीदी की नहीं हो रही है। उनकी तो चुनाव बाद जय-जयकार ही हो रही है। दरअसल एक दीदी यूपी में भी हैं और देश की सबसे पुरानी पार्टी से संबंध रखती हैं। उनके पिता कद्दावर नेता थे और सूबे की कमान भी उन्होेंने संभाली थी। दीदी के एक भइया हैं जो पड़ोसी राज्य की कमान संभाल चुके हैं। वैसे तो वे भी इसी दल में थे लेकिन उनका बीते दिनों मन बदल गया तो वे बगावती हो गए। पार्टी हाईकमान को ही चुनौती दे डाली और हालत यह कर दी कि पहाड़ की सरकार जमीन पर आ जाये लेकिन वैसा हुआ नहीं। अब दिक्कत यह है कि भइया की कर्मों की सजा कहीं दीदी का न मिले, इसे लेकर दीदी परेशान हैं। अब वे हर तरह से इस प्रयास में हैं किसी तरह उनकी ‘क्रेडिबिलिटी’ ‘पंजे’ में बनी रहे। सो पिछले दिनों उन्होंने अपनी निष्ठा को साबित करने के लिए भगवा पार्टी के एक चर्चित प्रवक्ता के खिलाफ मामला दर्ज कराया। उन्हें निशाना पर लेना तो सिर्फ बहाना था, वास्तव में वे यह संदेश देना चाह रहीं थीं कि उनके भइया जरूर भगवा पार्टी के हाथों खेल रहे हों पर वे खुद ऐसी नहीं हैं।
फिर लहरायी रामपुरी चाकू
यूं तो वे बात-बात पर अपनी रामपुरी चाकूनुमा जुबान से हमले करते रहते हैं लेकिन इस बार तो जो कुछ हुआ वह तो रामपुरी खां साहब को कतई पसंद नहीं आया लेकिन मरता क्या न करता। फिलहाल तो उन्होंने यह कहकर अपनी भड़ास निकाली कि पार्टी का जो मालिक है, मर्जी उसकी ही चलेगी। लेकिन वे आगे भी शांत रहेंगे और कुछ नया नहीं कर गुजरेंगे, इसे लेकर संदेह है। दरअसल खां साहब और प्रोफेसर साहब के न चाहते हुए भी एक तरह से उनके खांटी दुश्मन को साइकिल पर बैठाकर राज्यसभा भेजने का फैसला हुआ। बस फिर क्या था दोनों ने ही मीटिंग से बहिर्गमन कर अपनी प्राथमिक आपत्ति दर्ज करायी। लेकिन पार्टी मुखिया ने वही किया जो उन्हें करना था। इस दौरान सूबे की सरकार की कमान संभालने वाले युवा ने भी अपने होंठ सिले रखे और कोई प्रतिक्रिया न तो मीटिंग में दी और न बाहर। साफ है कि सब कुछ ठीक नहीं है। डर यह है कि रामपुरी खां साहब अब सोते-जागते इशारों-इशारों में पार्टी पर व्यंग्यबाण चलायेंगे तो क्या होगा? ऐसे में चुनावी साल में सार्वजनिक मंचों से पार्टी की फजीहत होना तय है।
प्रोफेसरों की डिग्री भी निशाने पर
पिछले दिनों देश के प्रधान सेवक की शैक्षिक योग्यता और डिग्री को लेकर मफलरमैन ने भगवा पार्टी को असहज कर दिया था। यह मामला अभी शांत नहीं हुआ है। लेकिन इस बीच यूपी के दो प्रोफेसरों की डिग्री को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। कहा जा रहा है कि प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक को कभी प्रोफेसर नहीं कहा जाता। ऐसे में धरतीपुत्र के भ्राताश्री कैसे अपने नाम के आगे प्रोफेसर लगाते हैं। इनके अलावा एक और नेता हैं जो कि सूबाई सरकार में वजीर भी हैं और वह भी खुद को आईआईएम का प्रोफेसर बताते हैं। अब जानकारों का कहना है कि आईआईएम जैसे संस्थानों में वर्षों पढ़ाने के बाद ही कोई प्रोफेसर बनता है और इन्होंने तो अल्प अवधि के लिए ही वहां शिक्षण कार्य किया है। फिर यह कैसे प्रोफेसर। खबर है कि झाड़ू वाली पार्टी अब झाड़ू लेकर इन दोनों के पीछे पड़ने वाली है ताकि इनकी भी असलियत जनता के सामने लायी जा सके। इसके लिए बकायदा आरटीआई तैयार कर ली गयी है और जल्द ही इसके पीछे लोग नहा-धोकर और सफेद टोपी लगाकर पीछे पड़ने वाले हैं। इससे कुछ लोगों का ज्ञान बढ़ना तय है तो कुछ की कलई खुलना।
सुशासन बाबू की परेशानी
तमाम कोशिश करने के बाद बिहारी सुशासन बाबू ने चुनावी जंग तो जीत ली लेकिन असली जंग अब सरकार चलाने के दौरान हो रही है। आयेदिन हो रही आपराधिक घटनाओं ने सूबाई सरकार की नींदें हराम कर दी हैं। तर्क यह दिया जा रहा था कि सूबे में मदिरा पर प्रतिबंध से अपराधों में कमी आयेगी लेकिन सत्तारूढ़ दल के ही जनप्रतिनिधि के यहां से जब शराब का जखीरा बरामद हुआ तो अब इसका दोष वे किसके सिर पर मढ़ सकते थे। इतना ही नहीं उनके पुत्र की कार को जब आगे जा रहे वाहन ने रास्ता नहीं दिया तो उसने गोली चलाकर जान ले ली। अभी इन्हीं झंझावतों से सरकार जूझ रही थी कि एक खबरनवीस की हत्या हो गयी। बस फिर क्या था, विपक्ष को मौका मिल गया सुशासन बाबू को घेरने का। तब उनकी ओर से गिनाये जाने लगे भगवा पार्टी के शासित राज्यों के अपराध। लेकिन यह कोई तर्क नहीं होता कि मेरी कमीज सफेद की तुम्हारी। अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब तो खुद को ही देना पड़ता है। सुशासन बाबू शराबबंदी पर तो अपनी पीठ ठोंक रहे हैं लेकिन बढ़ते अपराधों पर जब विपक्ष उनसे जवाब मांग रहा है तो उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा।
गले की हड्डी बनी बगावत
सोचा था क्या और क्या हो गया। स्थिति यह हो गयी कि माया मिली न राम। दरअसल पहाड़ में जिस तरह की राजनीति पिछले दिनों हुई उसे देखते हुए यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है। पहाड़ की सरकार पर उस समय खतरे के बादल मंडराने लगे थे जब मंत्रिमण्डल के ही कुछ सदस्यों व सत्तारूढ़ दल के चुनिंदा विधायकों ने बगावती तेवर अपना लिए। अब इस घटनाक्रम के पीछे भगवा पार्टी थी या यह विशुद्ध रूप से बागी विधायकों का अपना फैसला था, यह अभी तक तय नहीं हो पाया है। लेकिन जब बगावत हो ही गयी तो भगवा पार्टी ने बहती गंगा में हाथ धोने में कोई कोरकसर बाकी नहीं रखी। लेकिन न्याय की देवी ने यह सिद्ध कर दिया कि भगवा पार्टी का फैसला गलत था। चलिये यहां तक तो ठीक रहा लेकिन अब दिक्कत इन बागियों को ‘एडजस्टमेंट’ को लेकर थी। जो कि अब पार्टी के लिए गले की हड्डी बन चुके थे। इन्हें अपनाया जाये या फिर हवा में तैरने के लिए छोड़ दिया जाये, इसे लेकर खासी माथापच्ची भी हुई। कुछ महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में इस पूरे घटनाक्रम का क्या असर रहेगा, यह सोचकर सभी का कलेजा मुंह को था।
यह तो बड़े वाले काबिल हैं
पहले एक सीएम को कथित रूप से पीएम की कुर्सी तक पहुंचाने को लेकर इनकी चर्चा हुई। कहा गया कि इनके ही मैनेजमेंट के कारण यह संभव हुआ। इसके बाद मैनेजमेंट गुरू ने दूसरे घर की ओर रुख किया और पीएम के धुर विरोधी के कैम्प में जा खड़े हुए। खैर वहां भी विधानसभा के जब चुनाव हुए तो मैनेजमेंट गुरु जिन साहब के साथ थे उन्हें ही सत्ता मिली। कहा जाने लगा कि मैनेजमेंट गुरु जिनके साथ सत्ता उनके हाथ। उनकी इस चुनाव जिताऊ योग्यता से प्रभावित होकर देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी ने उन्हें उप्र के लिए ‘हायर’ कर लिया। जबकि उप्र में परिस्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। दरअसल मैनेजमेंट गुरु ने जिस दल को ‘वेंटीलेटर’ से उठा कर दौड़ाने का ठेका लिया वह सूबे की सत्ता से पिछले दो दशक से बाहर है। इस बीच उनका एक सुझाव पंजे वाली पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को ही रास नहीं आया। दरअसल इन्होंने एक सीएम को पीएम बनाया तो दूसरे को दोबारा सीएम बनाया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उनके अन्दर पीएम मैटीरियल है। वहीं उन्होंने जो पैदाइशी पीएम मैटीरियल है उसे सीएम के रूप में प्रेजेन्ट करने का सुझाव दे दिया। तभी तो उन्हें पार्टीजन कहने लगे कि यह तो बड़े वाले काबिल हैं।