उत्तर प्रदेश

कैराना और नूरपुर उपचुनाव: भाजपा की साख के साथ सरोकार भी दांव पर

लोकसभा की कैराना और विधानसभा की नूरपुर सीट का उपचुनाव भाजपा के लिए कई कारणों से काफी अहम है। दोनों सीटों के नतीजे भगवा टोली के लिए भविष्य की रणनीति तय करने में मील का पत्थर बन सकते हैं।कैराना और नूरपुर उपचुनाव: भाजपा की साख के साथ सरोकार भी दांव पर

 

दरअसल, कैराना और नूरपुर सीटों की स्थिति और समीकरण पहले हो चुके गोरखपुर व फूलपुर संसदीय सीटों के उपचुनाव से काफी अलग हैं। पूर्वांचल और पश्चिम के सियासी समीकरणों का फर्क होने के साथ सामाजिक परिस्थितियां भी पूरी तरह भिन्न है।

गोरखपुर व फूलपुर में उपचुनाव क्रमश: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफे के कारण हुए थे, जबकि कैराना में उपचुनाव पश्चिम के बड़े भाजपा नेता हुकुम सिंह के निधन के कारण हो रहा है।

विधानसभा की सिकंदरा सीट का उपचुनाव भी वहां से भाजपा विधायक मथुरा पाल के निधन के कारण हुआ था जिसमें भाजपा जीती थी। विधानसभा की नूरपुर सीट पर भी उपचुनाव वहां से भाजपा विधायक लोकेंद्र सिंह चौहान की सड़क हादसे में हुई मृत्यु के कारण हो रहा है।

इसलिए ज्यादा महत्व

 गोरखपुर और फूलपुर सीटें योगी और केशव जैसे बड़े चेहरों से तो जुड़ी थीं, लेकिन वहां के समीकरण जातीय गणित के थे। उपचुनाव में सपा उम्मीदवारों को बसपा के समर्थन ने भाजपा के पलड़े को हल्का कर दिया।
नतीजतन, भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा। गोरखपुर और फूलपुर संसदीय सीटें बड़े चेहरों से जुड़ी होने के बावजूद भाजपा के लिहाज से उतनी सरोकारी नहीं थीं, जितनी कैराना है।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिहाज से पश्चिमी उत्तर प्रदेश काफी पहले से अपना विशिष्ट सियासी अंदाज दिखाता रहा है, जिसे मुजफ्फनगर दंगे के बाद की परिस्थितियों ने और धार देने का काम किया है।

वजह, पश्चिम में मुस्लिमों और दलितों की आबादी काफी अच्छी संख्या में है। इसके अलावा पिछड़ों में जाट, गूजर के साथ ही सैनी, कश्यप, पाल जैसी पिछड़ी जातियां अच्छी संख्या में हैं।

वर्ष 2014 और 2017 में गैर मुस्लिम ज्यादातर जातियां भाजपा के पक्ष में लामबंद थीं। पर, कई कारणों से इन स्थितियों में बदलाव आने की बात कही जा रही है।

इस कारण भी अहम

 विधानसभा चुनाव से पहले हुकुम सिंह ने कैराना से हिंदुओं के पलायन को बड़ा मुद्दा बनाकर भी पश्चिम में हिंदुओं को लामबंद करने का काम किया था। विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा नेताओं ने सभाओं में ‘कैराना को कश्मीर नहीं बनने देंगे’ जैसे जुमलों से पश्चिम में जातीय खांचों में बंटे हिंदुओं को हिंदुत्व के एजेंडे पर एक करने की कोशिश की थी।
फिर कैराना संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली विधानसभा की थाना भवन, शामली और कैराना सीटें मुजफ्फरनगर दंगे से प्रभावित रही हैं। जाहिर है कि इस उपचुनाव के नतीजे यह साफ करेंगे कि पश्चिम में हिंदुत्व के एजेंडे का असर पहले की तरह है जो 2019 के लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित करेगा या परिस्थितियों में बदलाव आया है।

विपक्ष का गणित भाजपा के समीकरणों को कमजोर कर सकता है। नूरपुर भी पश्चिमी यूपी में है। इस नाते वहां के नतीजे भी कैराना की तरह ही संदेश देने वाले होंगे।

वजह यह भी

वैसे तो दोनों ही सीटों पर भाजपा से जुडे़ जनप्रतिनिधियों की मृत्यु से उपचुनाव होने के कारण भगवा टोली को लोगों की सहानुभूति का लाभ भी मिलने की उम्मीद दिख रही है, पर अगर हिंदुत्व का एजेंडा बहुत असरकारी न रहा तो भाजपा को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।

रही बात विपक्ष की तो उसके लिहाज से भी कैराना और नूरपुर के नतीजे काफी अहम होंगे। वैसे तो अभी यह तय नहीं है कि कैराना से विपक्ष का उम्मीदवार कौन होगा? पर, जो भी सामने आएगा उससे आगे के संकेत मिल जाएंगे।

भले ही गोरखपुर और फूलपुर में बसपा ने सपा को समर्थन देकर 2019 में परस्पर गठबंधन का संकेत दे दिया हो, लेकिन पश्चिम में राष्ट्रीय लोकदल भी अपनी सियासी जमीन रखता है।

खास तौर से पश्चिमी यूपी में जाट मतदाताओं की अच्छी-खासी तादाद होने के कारण। ऊपर से जाट बिरादरी के कई संगठन पिछले कुछ महीनों से हिंदू और मुस्लिम एकता का अभियान भी चला रहे हैं।

अगर, सपा और बसपा ने कैराना सीट रालोद के लिए छोड़ी तो साफ हो जाएगा कि 2019 के चुनाव में विपक्ष वोटों का बंटवारा पूरी तरह रोकने की दिशा में कदम बढ़ा चुका है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो विपक्ष की एकजुटता की राह में बाधाएं खत्म न होने का ही संदेश जाएगा।  

 
 

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