हिल्सा मछली के लिए पश्चिम बंगाल के लोग दीवाने हैं
पश्चिम बंगाल : 3 किलोग्राम की चमकती हिल्सा मछली 12 हजार रुपये में बिकी। आमतौर पर एक से डेढ़ हजार रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिकने वाली इस मछली की कीमत उसकी साइज और क्वालिटी पर निर्भर करती है। उलुबेरिया से लाई गई इतनी कीमती मछली लंबे समय बाद बाजार में देखने को मिली। हिल्सा मानसून का खास व्यजंन है, इसके बगैर बंगाली रसोई को पूरा नहीं माना जाता। पश्चिम बंगाल के लोग इस मछली के दीवाने हैं, उनके लिए तो इलिस या हिल्सा मछलियों की रानी है।
अंडे देने के लिए ये मछलियां बंगाल की खाड़ी से धारा के विपरीत तैरती हैं। समुद्री खारे पानी और नदी के मीठे पानी की वजह से इस मछली में एक अलग ही तरह का जायका मिलता है। नवंबर से फरवरी के बीच लोग हिल्सा खाने से परहेज करते हैं। वैसे तो इसे कई तरीकों से पकाया जाता है, लेकिन तली हुई हिल्सा या फिर सरसों में भाप पर पकाई गई हिल्सा बेहद लोकप्रिय है, कोई भी पर्व त्योहार चाहे वो पोएला बोइशाख हो, दुर्गापूजा हो या फिर जमाई षष्टी हो, हिल्सा के बगैर पूरे नहीं होते। जो मछुआरे हिल्सा पकड़ते हैं उन्हें बांग्ला नववर्ष पएला बोइशाख के मौके पर पांता हिल्सा खाना होता है, वजह यह है कि 14 अप्रैल 1984 को एक बेरोजगार युवक ढाका के रमन बातामुल इलाके में खुले में फुटपाथ पर पांता भात, हिल्सा बेंच रहा था, जो लोग गर्मियों में उधर मैदान में आते वे पांता भात, भुनी हुई हिल्सा और बैगन का भर्ता खरीद लेते, कुछ ही देर में पांता खत्म हो गया। लड़का कुछ ही घंटों में जेब भर कर पैसे लेकर लौटा, तभी से हर साल रमना मैदान में पांता हिल्सा का आयोजन किया जाने लगा। लोग मानते हैं कि अगर उस दिन पांता हिल्सा खाया गया तो साल भर उसकी जेब भरी रहेगी।
कहानियां यहीं खत्म नहीं होती, मछुआरे अपनी नावों की पूजा करते हैं, वे मछली पकड़े वाले जालों की भी पूजा करते हैं, पानी से जाल निकाल कर उस पर मीठा या बताशा चढ़ाते हैं। जब पहली बार हिल्सा जाल में आती है तो प्लेट में उसे रख कर जाल पर रखा जाता है। इस पर सिंदूर और हल्दी चढ़ाया जाता है और अगरबत्ती दिखाई जाती है, फिर इस मछली के पेटे के हिस्से को काट कर नाव पर रख दिया जाता है, ये जमाने से चला रहा है। मछुआरों के बाद उनकी पत्नियां भी बहुत कुछ करती है। सरस्वती पूजा के दिन वे हिल्सा के एक जोड़े को लाती है, उस पर सिंदूर और हल्दी लगाती है। कुमिला और नोवाखाली के मछुआरों की स्त्रियां आरती करके हिल्सा का स्वागत करती है। दशमी के दिन दामाद अपने ससुराल वालों के लिए हिल्सा लेकर आता है। दामाद को बैठाया जाता है और सास उसे थाली में हिल्सा परोसती हैं, कुमिला जिले की मछुआरों की महिलाएं इस तरह से आयोजन करती हैं। फरीदपुर, मदारीपुर ढाका और बिक्रमपुर जिलों में अपनी पुरानी रिवायतें हैं, सरस्वती पूजा के दिन वे खरीदने के बाद हिल्सा को ऐसे ही अपने घर नहीं लाते। पहले इसके लिए पूरा आयोजन किया जाता है, पहले सिंदूर लगा कर आरती से स्वागत होता है, तब हिल्सा रसोई में लाई जाती है, उस दिन हिल्सा सिर्फ हल्दी, नमक और काली मिर्च में पकाई जा सकती है। हिल्सा के बचे हुए कांटों को घर के किसी पिलर के पास ही जमीन में दफन कर दिए जाते हैं। कुछ लोग इसे धानेर गोला यानी धान रखने वाले बर्तन के नीचे जमीन में गाड़ देते हैं, लोगों का मानना है कि इससे पैसों की बारिश होने लगती है।