ऊं नमो भगवते वासुदेवाय भगति तात अनुपम सुखमूला
अध्यात्म : आचार्य गोपाल तिवारी
संसार में जहां कहीं दुख दीख पड़ता है, उसके पीछे मूल कारण पाप ही है। शास्त्रों के अनुसार ही जीवन में दुख-कष्ट, रोग-भय आदि होते हैं- करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज शोक वियोग। यही नहीं, पापों के फलस्वरूप ही मृत्यु के उपरान्त नरक में जाना पड़ता है। अब किसी न किसी कारण वश प्रत्येक व्यक्ति से कुछ न कुछ पाप तो होते ही हैं, कुछ जाने में या कुछ अनजाने में। कुछ चाहते हुए कुछ न चाहते हुए भी जीव पाप कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रों में तीन प्रकार के पाप बताये गये हैं- मन, वाणी तथा शरीर- मनसा, वाचा, कर्मणा अर्थात इन्हीं मन, वाणी, कर्म के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति कोई न कोई पाप करता है फलस्वरूप उसे नरक आदि लोकों में जाना पड़ता है या फिर जीव लोक में ही नाना कष्टों का सामना करना पड़ता है। कोई भी कष्टों में नहीं पड़ना चाहता, अत: पापों से छूटना चाहता है। पापों से कैसे छूटा जाये या पापों से कैसे मुक्ति मिले, ये प्रश्न हमारे मन में उठता है। श्रीमद््भागवत महापुराण में पापों से छूटने के तीन उपाय श्री शुकदेवजी ने परीक्षित को बताये हैं-
1- प्रायश्चित 2- साधना अर्थात तप 3- भक्ति
पहले उपाय में बताया कि पापों के फलस्वरूप दुखों से पीछा छुड़ाने का मार्ग है प्रायश्चित अर्थात अपने जीवनकाल में जो भी पाप किये उनका प्रायश्चित किया जाये। अपने छोटे-बड़े पाप कर्मों का विचार करके उनके उपयुक्त प्रायश्चित के मार्ग का अनुसरण किया जाये जैसे रोग होने पर चिकित्सक रोग की जानकारी कर उसकी गुरुता लघुता का विचार कर रोग की चिकित्सा कर डालता है और रोग से मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि अपने पाप कर्मों का प्रायश्चित करे, प्राय: कर्मकाण्ड की विधियों में प्रायश्चित कर्म की ही प्रधानता होती है। अमुक कष्ट है अमुक उपाय कर लो, कर्मकाण्ड की विधि में जो दान-पुण्य, पूजा-पाठ आदि बताया जाता है वह प्रायश्चित का ही एक स्वरूप है। आपने अमुक पाप किया जिससे ये कष्ट आपको है। अब ये उपाय करके इसे दूर करने का प्रयास करो। अत: ये प्रायश्चित कहलाता है जिससे पाप दूर किये जा सकें।
परीक्षित ने प्रश्न किया- गुरुदेव प्रायश्चित करने के बाद क्या इस बात की पूर्ण संभावना है कि दुबारा पाप नहीं होगा, अभी तो वह पाप से छूट गया लेकिन कालान्तर में कभी तो वह फिर इन्हें करने लगेगा। चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा करने से एक बार रोग तो दूर हो गया लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि दुबारा कभी रोग नहीं होगा अर्थात वह दुबारा से फिर कर्मों में प्रवृत्त हो सकता है। फिर इस कुंजर स्नान का क्या फायदा! कुंजर कहते हैं हाथी को। हाथी सरोवर में घंटों स्नान करता है लेकिन स्नान करने के बाद जैसे ही जल के बाहर आता है पुन: अपने शरीर पर सूड़ से मिट््टी डाल लेता है, अब उसके स्नान का क्या फायदा। अनेक बड़े भारी प्रायश्चित कर्म करने के बाद भी अगर पाप में पुन: लगे तो फिर क्या फायदा प्रायश्चित का। श्री शुकदेव जी ने कहा, परीक्षित तुम्हारा सोचना पूर्णतया सत्य है। ये उपाय बहुत लम्बे समय तक कार्य करने वाला नहीं क्योंकि कर्म के द्वारा कर्म के बीज का नाश संभव नहीं। श्रीरामचरित मानस के अनुसार-
छूटे मल कि मलहि के धोये। घृृत कि पाव वरु बारि बिलाये।
एक कर्म के छूटने का उपाय दूसरे कर्म के माध्यम से यह उचित नहीं। जल के धोने से घी का पात्र साफ नहीं होता, उसी प्रकार से कर्म तो अज्ञानी करता है।
अहंकार विमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते।
अज्ञान के रहते पाप वासनायें सर्वथा मिट नहीं सकती, इसलिए इसे बहुत अच्छा उपाय नहीं कह सकते। सच्चा प्रायश्चित तो तत्वज्ञान ही है।
दूसरा उपाय शुकदेव जी द्वारा बताया गया- जो मनुष्य सुपथ्य का सेवन करता है, रोग उसे नहीं लग सकता। वैसे ही जो पुरुष साधना के द्वारा नियमों का पालन करके धीरे-धीरे पापों से मुक्त हो जाता है और कल्याणप्रद पाने में समर्थ हो जाता है।
तपसा ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च।
त्यागेन सत्य शौचाभ्यांयमेन नियमेन च।।
तप, ब्रह््मचर्य, इन्द्रियदमन, मन की स्थिरता, दान, सत्य, बाहर भीतर की पवित्रता तथा यम और नियम समस्त पापों से छूटने के लिए ये नौ साधन बताये जो इन साधनों को करता है उसके समस्त पाप खत्म हो जाते हैं। तप की महिमा तो सर्वत्र गायी जाती है, तप के द्वारा पाप इस प्रकार से भस्मीभूत हो जाते हैं जैसे बांसों के झुरमुट में लगी आग से बांस जलकर भस्म हो जाते हैं। यहां तप के द्वारा समस्त पापों को दूर करने की बात कही लेकिन इसमें दोष संभव है। बांसों की रगड़ से लगी आग से बांस तो जलकर भस्म हो जाते लेकिन समय पाकर जब बादलों द्वारा जलवृृष्टि होती है तब और भी मजबूत घने होकर निकलते हैं। कारण पाप जड़ भी शेष थी। वैसे ही तपस्वी को परम संयमी रहना चाहिए। बांसों के झुरमुट की भांति विषयों का संग पाकर इंद्रियां कहीं बलवती न हो जायें और फिर से विषयों में फंसकर पाप का भागी बनना पड़े क्योंकि पाप की वासना तो बनी ही रहती है, ऐसा बहुत से साधकों के साथ हुआ जैसे विश्वामित्र, नारद आदि।
तब शुकदेव जी ने तीसरा उपाय बताया-
केचित्केबलथा भक्त्या वासुदेव परायणा:।
अधं धुन्र्वान्त कात्स्र्येन नीहारमिव भाष्कर।।
यहां पर शुकदेव जी ने केचित अर्थात कोई बिरला ही भगवान की शरण में रहकर भक्ति के द्वारा अपने सारे पापों को दूर कर देता है, जैसे सूर्य के निकलने पर कोहरा दूर हो जाता है। पापी पुरुष की जैसी गति भक्ति योग के द्वारा होती है, वैसी किसी अन्य साधना से नहीं। तप करने में पथस्खलित होने का भय भी रहता है लेकिन भक्ति में नहीं क्योंकि भक्ति में कुछ करना नहीं होता। सर्वतो भावेन अपने आपको भगवान को समर्पित करना होता है। पापों से छूटने के लिए प्रायश्चित जैसे साधन तो ठीक, उसी प्रकार से हैं जैसे मदिरा से भरे कलश को बार-बार पवित्र नदियों में डुबकी लगाना, नदियां मदिरा कलश को तब तक पवित्र नहीं कर सकतीं जब भीतर मदिरा भरी हुई केवल बाहरी पवित्रता ही संभव, आंतरिक पवित्रता बिना भक्ति के संभव नहीं। भक्ति जब साधक के अंदर प्रवेश करती है, शनै:-शनै: उसका अत:करण पवित्र होने लगता है। अंत:करण के पवित्र हो जाने पर श्रीहरि उसमें आ विराजते हैं और भगवान की जरा सी झलक भी जिसे मिल गयी फिर उसका मन एक बार स्वप्न में भी इधर-उधर नहीं भागता।
देह-गेह की सुधि नहीं, भूल गयी सब रीति।
नारायण गावत फिरै प्रेम भरे रस गीत।।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च चदंहैतुकम।
और संसार से उसका मन विरक्त होने लगता है। संसार में रहकर भी वो संसार का नहीं होता।
दुनिया में रहकर भी दुनिया का तलबदार नहीं।
निकला है बाजार से पर खरीददार नहीं।।
इसके लिए उसे अन्य कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। भगवत्कृपा से वो सहज ही दुष्कर कर्मबंधनों से मुक्त हो जाता है।
हरिनराभजन्ति येतिदुस्तरं तरन्ति ते।
नामेव ये प्रयद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनके पास भक्ति के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं था चाहे वो अजामिल, गणिका, तुलसी, सदना कसाई, रैदास, मीराबाई आदि क्यों न हों।
पाई न केहि गति पतित पावन रामभज सुुनु सठ मना।
राम भजन गति केहि नहि पाई।
तपस्वी तप से हट विषयों से गिर सकता है। विश्वामित्र नारद आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं लेकिन भक्त की जिम्मेदारी तो स्वयं भगवान लेते हैं। गीता में तो भगवान ने स्पष्ट ही कह दिया, मेरे भक्त का पतन नहीं हो सकता, ये मेरा बचन है।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति।।
भक्त के साथ में आने वाला भी भक्त के संसर्ग से भक्त बन जाता है। इसका प्रबल उदाहरण तो गोपियो ंके साथ उद्धव जी हैं। गये थे योग को समझाने लेकिन गोपियों ने प्रेस रस से भिगोकर भेजा। ये भक्ति की विशेषता है जो प्रेम में सराबोर करती है। भक्त को कुछ करना नहीं पड़ता, वो बस आनंद प्रेम में ही रमण करता है। भगवान के बिना एक पल रह नहीं सकता जैसे ब्रजवासी गोपियां सोते-जागते, उठते-बैठते, भोजन बनाते, दही बिलोते कृष्ण प्रेम में ही मुग्ध रहती हैं। उनका तो प्रत्येक कर्म भगवद्् अर्पित हो रहा है। श्रीकृष्ण बलराम जब गायों को चराने ग्वालों के साथ चले जाते तो एक पल भी श्रीकृष्ण को देखे बिना चैन नहीं मिलता और तब दही बेचने के बहाने ये निकल पड़ती उस ओर जहां श्रीकृष्ण गायों को चराने गये होते थे।
चलो सखी तहं जाइये जहां बसत ब्रजराज।
गोरस बेचत हरि मिलैं, एक पंथ दो काज।।
और गांव-गांव, गली-गली जाकर दही बेचती, आवाज देतीं- दही ले लो, दही ले लो। गोपियां बेचती तो दही मक्खन थीं लेकिन उनका तन तो पूर्णतया श्रीकृष्ण में ही रमा हुआ था। अत: दही ले लो कहना भूल जातीं।
दधि का नाम बिसर गयी ग्वालन।
ले क्यों री कोई श्याम सलोना।
श्याम ले लो कोई, श्याम ले लो, ऐसा कहने लगतीं। ये प्रेम में विशेषता योगी तपस्वी अपने मन को मुश्किल से संसार से हटा पाते हैं लेकिन भक्त का मन तो संसार में लगता ही नहीं फिर पाप और पाप वासना कहां।