सम्पूर्णता से खिलने के लिए दीर्घजीवन जरूरी नहीं
हृदयनारायण दीक्षित : जीवन दिक्काल में है। कभी कभी काल का अतिक्रमण भी करता है जीवन इसलिए जीवन की कालगणना सतही है। कालगणित के पैमाने पर कोई 100 वर्ष जीता है तो कोई 25 या 30 बरस। कीट पतिंग कम समय का जीवन पाते हैं। सर्प आदि की उम्र बहुत ज्यादा होती है। ऋग्वेद के पूर्वजों ने 100 शरद् जीवन की स्तुतियां की थी – जीवेम शरदं शतं। अनुवाद में गड़बड़ हुई। 100 शरद का अर्थ 100 वर्ष हो गया। शरद् में गहन आनंदबोध है। वर्ष कालगणना है। 12 माह 365 दिन या 720 अहोरात्र। शरद ऐसी रूखी गणना नहीं है। शरद् प्रकृति के महोत्सव – शीत बसंत के आगमन की सूचना देने वाला दूत है। सुनते आए हैं कि शरद् चन्द्र अमृत उलीचता है पूरी रात। वैदिक ऋषि इसी तरह के कम से कम 100 शरद् चन्द्र देखना जीना चाहते थे। इसीलिए जीवन की अभिलाषा 100 शरद् से जुड़ी हुई है। ये ऋषि सूर्य को जगत् का प्राण जानते हैं। इसलिए स्तुति करते थे “हम 100 शरद् तक सूर्य देखते रहें। शरद का आनंद वर्ष के आनंद से गहरा है। ऊंचा भी है। यों दीर्घजीवन सबकी अभिलाषा है लेकिन आनंदित जीवन दूसरी बात है। बहुत से फूल महीना दो महीना तक खिले रहते हैं लेकिन कुछ फूल धरती जल से पूरा रस लेकर अपनी संपूर्णता में एक या दिन के लिए ही खिलते हैं। संपूर्णता से खिलने के लिए दीर्घजीवन जरूरी नहीं है। महाभारतकार ने एक सुंदर श्लोक में कहा है “अपनी पूरी प्रकाश दीप्ति के साथ मुहूर्त भर जलना धुंवा देते हुए लम्बे समय तक जीने से श्रेयस्कर है – महूर्तम् ज्वल्लितं श्रेयः न तु धूमायते चिरम्। जीवन साधारण कथानक नहीं होता। बेमन आधे अधूरे चित्त से कर्म करना, सुख या दुख पाना बेमतलब है। सुख या दुख की गहराई में अंत तक जाने का अनुभव ही दूसरा है। कालगणना की दृष्टि से मैं इसी 18 मई को 73 वर्ष का हो गया। 73 यानी वयोवृद्ध। वय से वृद्ध। लेकिन जीवन अनुभूति की तरंगे दूसरी हैं। मेरे अन्तर्विरोध गहरे हैं। तटस्थता की अभिलाषा लेकिन राजनैतिक कार्यकर्ता हूं। राजनीतिज्ञ तटस्थ नहीं हो सकता। वह अपने पक्ष में ही रहता है। मेरे लिए दार्शनिक स्तर पर तटस्थ रहना और भी कठिन है। अद्वैत वेदांत ठीक लगता है। मैं उसे भारत का प्रतिनिधि दर्शन मानता हूं लेकिन शेष दर्शन भी बुरे नहीं लगतै। मैं उनमें से किसी भी दर्शन को छोटा या त्यागने योग्य नहीं मानता। वेदांता में ब्रह्म ही सत्य है शेष सब माया। आभास। अनित्य या छाया। मेरा मन इस धारणा से बहुधा टकराता है। मैं हारते हारते जीतने के करीब पहुंचता हूं और जीतते हुए फिर फिर नई लड़ाई के लिए फेंक दिया जाता हूं। क्या करूं?
जगत् माया है। वेदांती विद्वान यही बताते हैं। उनकी बात सही हो सकती है लेकिन उन्होंने इसी मायावी संसार का भाग होकर ही यह निष्कर्ष बताया है। मन प्रश्नाकुल है कि यह निष्कर्ष भी माया क्यों नहीं है? वे योग, ध्यान, जप आदि साधनाएं बताते हैं। जीवन में इनका उपयोग है। वे स्वस्थ बनाते हैं लेकिन योग ध्यान भी इसी मायावी जगत् की शोध हैं। तब ये भी माया क्यों नहीं है। क्या माया को माया के उपकरणों से ही झाड़ने पोछने से माया ही नहीं मिलती? जगत माया है तो हमारी सारी उपलब्धियां – योग, नैतिकता, श्रेष्ठ विचार और आचरण भी माया क्यों नहीं है? फिर भी हमारा मन प्रायः वेदांत की धारणा को स्वीकार करने को तत्पर हो जाता है। तब मेरा मन फिर से प्रतिप्रश्न करता है कि वेदांत भी संसारी अनुभूति है। हमने स्वयं इसे इसी संसार के गोचर प्रपंचों को समझते, भोगते उपासनते ही पाया और जाना है तो यह ब्रह्म धारणा भी माया का ही एक सूक्ष्म अंश क्यांे नहीं है? माया प्रत्यक्ष है। लेकिन वेदांत में माया आभासी है। यह तत्व दर्शन की उपलब्धि है। ब्रह्म सत्य है। यह निष्कर्ष वेदांत का है। मैं साधारण विद्यार्थी हूं। क्या करूं? उधेड़बुन में हूं। द्वन्द्व दुख से व्यथित हूं – दुविधा में दोनो गए माया मिली न राम। क्या माया सामने है। ब्रह्म अनुभूति का तत्व है – करें? संशयी हूं।
श्री कृष्ण ने संशयी को गीता में कड़ी सजा सुनाई है – संशयात्मा विनश्यति। तो क्या करें? 72 शरद् गये। पूर्णिमा आती रही प्रत्येक शरद्। प्रत्येक शरद् में पूर्णिमा की ओर निहारता रहा। मैं आस्तिक भाव से। न अमृत रस झरा, न ही शरद् चन्द्र की किरणों का रस बरसा। न रास हुआ और न ही रास लीला। मैंने नीति आदर्श की आग में स्वयं को जलाया। वाक्संयम साधा। स्वयं जांचा। स्वयं को स्वयं के सामने दोषी पाया। आत्मनिरीक्षण आत्म उत्पीड़न की हदें पार करता रहा। विज्ञान दर्शन में सत्य की खोज के लिए प्रत्येक कार्य का कारण खोजना जरूरी है। संसार एक कार्य है तो संसार होने का कोई कारण होना चाहिए। मैं स्वयं प्रकृति का एक कार्य हूं तो मेरे होने का भी कोई कारण होना चाहिए। अपना कारण जानने की तीव्र इच्छा से “मैं क्यों हूं” जैसे महत्वपूर्ण प्रश्न का जन्म मेरे भीतर पैदा हुआ। संसार जानने के लिए मैंने भारतीय दर्शन के साथ प्राचीन यूनानी दर्शन व आधुनिक दर्शन पढ़ा। ऋग्वेद के भीतर गया। इतिहास भूगोल विज्ञान पढ़ा लेकिन नासमझी जस की तस है। प्रकृति अब भी रहस्यपूर्ण है। स्वयं को जानने के लिए स्वयं को पढ़ा, पढ़ाई जारी है। जीवन की किताब के पृष्ठ अनंत हैं। जब स्वयं को ही नहीं जान पाया तो इस संसार में अप्रकट अव्यक्त अज्ञेय केसे जानूंगा?
उपलब्धियों से प्रायः कोई संतुष्ट नहीं होता लेकिन मैं अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट हूं। राजनैतिक अभिलाषाएं अशांत करती हैं, उद्विग्न बनाती हैं। यह बात मैं 45-50 वर्ष की उम्र में ही जान गया था। सो इनसे तटस्थ रहने का भाव पैदा हुआ। अब तटस्थ सतत् कर्म करते हुए व्यस्त रहता हूं। प्रायः अस्त व्यस्ता। निद्रा की प्रतीक्षा लेकिन इसी अंतराल में अध्ययन। लम्बी दूरी की यात्राओं का तनाव लेकिन चित्त की स्थिरिता। ईशावास्य के ऋषि ने ठीक कहा है – “वह स्थिर है लेकिन चला करता है।” हमने अंतर्विरोधों का आनंद जमकर पाया। लेखन अध्ययन एकांत मांगते हैं और लोकसंग्रह भीड़। भीड़ जिन्दाबाद बोलती है। पहले मन बल्लियों उछलता था। अब तटस्थ। भीतर किसी प्रश्न से मुठभेड़। बाहर जिन्दाबाद। क्या भीड़ में एकांत सुख हो सकता है? या एकांत में भीड़ का रस लिया जाता है। मेरा अनुभव यही है कि हां दोनो रस संभव हैं। क्या निरा संसारी होकर अध्यात्म रस में डूबा जा सकता है? मैं कहता हूं कि अध्यात्म का मूल रस संसारी ही पाते हैं। संसार उल्टावृक्ष है। उपनिषद् में इस संसार वृक्ष की जड़े ऊपर हैं और पत्तियां नीचे। ऋषि का आश्वासन है कि जो इस वृक्ष को जानता है उसे सुख मिलता है। जन्मदिवस पर उत्सव की परम्परा है। पिता ने एक जन्म तिथि प्राइमरी स्कूल में लिखाई। माताश्री ने एक जन्म तिथि 18 मई 1946 किसी से लिखवाकर रख ली। स्कूल वाली स्थाई हो गई। माताश्री वाली से ज्योतिषी ने जन्मकुण्डली बनाई। ज्योतिषी ने 5-6 वर्ष की उम्र में भविष्यफल में लिख दिया था। अब वही हो रहा है। जन्म कुण्डली के भविष्यफल का सही होना एक बड़ी चुनौती है। प्रश्न उठते हैं कि क्या सबके जीवन की गति नियत है? तब कर्म का महत्व क्या है? क्या कर्म भी पहले से नियत हो सकते हैं। दर्शन में इसे नियतिवाद कहते हैं। तब मान अपमान सम्मान भी पूर्व निर्धारित होंगे। चीनी विचारक लाउत्सु भी इसी मत के थे। उन्होंने ‘ताओ तेह चिंग’ में लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके हिस्से का फल मिलता ही है। मैं नहीं जानता कि सत्य क्या है? जीवन की गहराई से एक दिन कभी न कभी सर्वोत्तम खिलता ही है। शायद हम नहीं जान पाते कि हमारे जीवन की गंध आभा काव्य संगीत का सर्वोत्तम कब खिला? मैं भी अपना सर्वोत्तम नहीं जानता। संभव है कि वह खिल चुका हो। संभव है कि शेष जीवन में उसे घटना शेष हो। मैं अनुमान करता हूं कि मेरा सर्वोत्तम किसी श्रेष्ठ प्रश्न के रूप में खिल सकता है। उत्तर में नहीं। प्रश्न और केवल प्रश्न में ही। ढेर सारे प्रश्न हैं मेरे भीतर।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)