उत्तर प्रदेशराज्य

नेपाल आंदोलन: नहीं टूटेगा रिश्ता

नेपाल ने कभी भी किसी की गुलामी स्वीकार नहीं की है। यह जरूर है कि उसने अपना कुछ हिस्सा जरूर गंवा दिया पर अपनी निष्ठा पर आंच नहीं आने दी। जब से राजतंत्र का खात्मा हुआ तब से लेकर आज तक वह अपनों के ही विरोधों से घिरता रहा। आंदोलन चाहे माओवाद का जनयुद्ध हो या फिर मधेसी, इस लड़ाई के बीच पिसती चली आ रही है जनता।

Captureसुनील कुमार / अरुण वर्मा
रखपुर का कूड़ाघाट इलाका। यहां नेपालियों की पूरी बस्ती ही बसी है। यहीं पर बना है गोरखा रेजीमेंट। गोरखाओं की भारतीय सेना में भर्ती के लिए हर साल नेपाल से युवक आते हैं। भारत के लिए लड़ते हुए गोरखा रेजीमेंट के गौतम गुरुंग अपनी शहादत दे चुके हैं। उनकी मूर्ति कूड़ाघाट चौराहे पर लगी है। इस चौराहे को उनके नाम से जाना जाता है। यह कहानी इसलिए बता रहा हूं कि भारत-नेपाल का रिश्ता कितना मजबूत है, इससे पता चलता है। गोरखपुर से नेपाल की दूरी महज 60 से 70 किलोमीटर होगी। आसपास के जिलों में बहुत सी नेपाली लड़कियों की शादी हुई है। भारतीय लड़कियों की भी वहां पर। रोटी-बेटी का रिश्ता इतना मजबूत है कि पिछले दो माह से मधेसी आंदोलन के बाद भी नहीं टूटा है। न तो रिश्ते कमजोर हुए हैं और न ही दिलों में दूरी आयी है। इतना जरूर है कि राजनीति करने वालों को दिलों में खाई पैदा करने की पूरी कोशिश जरूर की है।
लाल सलाम तो कभी प्रकृति की मार और अब थरूहट मधेशी आंदोलन ने पड़ोसी मुल्क नेपाल के अमन चैन कोे बिगाड़ दिया है। नेपाल अभी प्रकृति की मार से उबर भी नहीं सका था कि संविधान को लेकर अपने ही लोगों के विरोध के चलते एक बार फिर वहां की फिजा बदरंग हो गई है। नेपाल के इतिहास को देखा जाए तो पता चलता है कि उसने कभी भी किसी की गुलामी स्वीकार नहीं की है। यह जरूर है कि उसने अपना कुछ हिस्सा जरूर गंवा दिया पर अपनी निष्ठा पर आंच नहीं आने दी। जब से राजतंत्र का खात्मा हुआ तब से लेकर आज तक वह अपनों के ही विरोधों से घिरता रहा।
आंदोलन चाहे माओवाद का जनयुद्ध हो या फिर मधेसी, इस लड़ाई के बीच पिसती चली आ रही है जनता। करीब दो माह से अपने हक के लिए आंदोलित मधेसी आंदोलन के कारण नेपाल विकास से काफी पीछे चला गया है। अब तक इस आंदोलन से नेपाल करीब एक अरब का नुकसान झेल चुका है। कई लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। इतिहास गवाह है कि भारत व नेपाल का संबंध रोटी-बेटी का रहा है, लेकिन जिस प्रकार से नेपाल में संविधान का मसौदा तैयार किया गया है, इससे ऐतिहासिक संबंध पर असर पहुंचता दिख रहा है। जहां इस आन्दोलन को कम्युनिष्ट विचारधारा के लोग भारत का षड्यंंत्र बता रहे हैं वही मधेसी समुदाय का आरोप है नेपाली संविधान का मसौदा चीन के इशारे पर तैयार किया गया है जो उन्हें कत्तई मान्य नहीं है।
मधेसी समुदाय का मानना है कि संविधान में उनके अनुपात की उपेक्षा की गई है। बताते चलें कि नेपाल की कुल आबादी में मधेशी समुदाय करीब 52 फीसदी है, वहीं अन्य 48 फीसदी पर हैं, लेकिन संविधान का मसौदा जनसंख्या पर नहीं बल्कि क्षेत्रफल पर तैयार किया गया है। इस कारण पहाड़ी क्षेत्रों का संसद में प्रतिनिधित्व औसतन करीब 45 फीसदी ज्यादा है। अब जबकि आंदोलन की धार काफी तेज हो गई है, तब सरकार ने मधेसी समुदाय को बातचीत के लिए बुलाया, पर मुख्य चार मांगों में से महज दो पर ही सहमति बनती बात बिगड़ गई।
आंदोलन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि नेपाल के तराई 20 जनपदों के सरकारी दफ्तरों में अब नेपाल सरकार का बोर्ड नहीं बल्कि मधेश सरकार का बोर्ड लगना शुरू हो गया है। कपिलवस्तु, नवल परासी, कृष्णानगर, वीरगंज सहित अन्य तराई जनपदों के सरकारी कार्यालयों में अब मधेस सरकार का बोर्ड दिख रहा है। बतातें चले कि नेपाल के कुल 75 जनपदों में तराई के कुल 22 जनपद आते हैं, जिसमे झांपा, मोरंग, सुनसरी, सिरहा, धनुषा, महोतरी, सरलाही, रोहतहट, बारा, परसा, चितवन, नवल परासी, रूपन्देही, कपिलवस्तु, दांग, बांके, वर्दिया, कैलाली सहित कंचनपुर हैं। मधेषियों की चार प्रमुख मांगों में हिन्दू देश घोषित करना, जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व, भारत के साथ पूर्व के रोटी-बेटी के संबंध को बरकरार रखना व मधेस को अलग राज्य का दर्जा देना। अभी बीते दिन तराई जनपदों के लोगों ने एक ऐसा इतिहास रच डाला। मांगों को लेकर 1150 किमी लंबी मानव शृंखला बनाई। बात चाहे जो भी हो आंदोलन से भारत-नेपाल के जो रिश्ते बिगड़े हैं, उसका कारण डीजल, पेट्रोल, गैस जैसे सामान की वहां पर कमी है। यह सब भारत से सड़क मार्ग से पहुंचता है। इसके लिए नेपाल सरकार भारत पर आरोप लगा रही है कि वह मधेस आंदोलन को सोची समझी चाल के तहत हवा दे रहा है। यहां तक कि उसने इसकी शिकायत यूएन में भी की है। वहीं भारत सरकार ने इसको खारिज करते हुए नेपाल का अंदरूनी मामला बताया। इस आंदोलन को गति देने में लगे पूर्व राज्य मंत्री रामबचन यादव ने बताया कि जब तक उनकी सभी मांगें सरकार नहीं मान लेती, वह इस आंदोलन को आगे बढ़ाते रहेंगे। पूर्व गृह राज्यमंत्री देवेन्द्र राज कण्डेल का कहना है कि सभी को मिलकर इसका सरल व सहज रास्ता निकालना चाहिए। नवल परासी जनपद के आंदोलन संयोजक मुकुल गिरी तो कहते हैं कि हम अहिंसात्मक आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकार दमन का रास्ता अपना रही है। जगह-जगह हमारे आंदोलनकारी पुलिस की गोलियों का शिकार हुए हैं। उन शहीदों की कुर्बानी को हम हरगिज जाया नहीं होने देंगे। पूर्व केंद्रीय मंत्री हृदयेश त्रिपाठी ने कहा कि तब तक यह आंदोलन चलता रहेगा, जब तक हक नहीं मिल जाता।

अब बात चाहे जो की जाए, लेकिन महराजगंज, सिद्धार्थनगर और गोरखपुर में बसे नेपाली मूल के लोग इसे दूसरे रूप में लेते हैं। सीमावर्ती भारत के लोग भी इसमें राजनीति ज्यादा देखते हैं, लेकिन वे मधेसियों के हक की बात करना नहीं भूलते हैं। कहते हैं कि सदियों पुराने रिश्ते में इस तरह दूरी नहीं आ सकती। इसमें चीन और अन्य ताकतों का हाथ है। इसके बाद भी उन्हें विश्वास है कि समय के साथ सब कुछ सामान्य होगा। भारत के साथ उसी तरह का रिश्ता कायम होगा। इसमें से राजनीति दूर कर दी जाए। 

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