पराजित मानसिकता की हिंसा
विगत दिनों में श्रीराम मंदिर के लिए चंदा जुटा रहे लोगों पर हमले और गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हुई हिंसा के बीच क्या समानता है ? प्रश्न का उत्तर ढूंढें तो पाएंगे कि दोनों तरह की हिंसा पराजित मानसिकता से उपजी दिख रही है। शायद पहली तरह की हिंसा करने वाले लोग राममंदिर निर्माण को और दूसरे लोग कथित किसान आंदोलन की असफलता को अपनी पराजय के रूप में देखते हैं। असहिष्णु मनों में पराजय की भावना या तो कुंठा पैदा करती है या हिंसा। एक स्वस्थ लोकतंत्र में इस तरह की मानसिकता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। कुंठित व हिंसक मन न तो लोकतंत्र के, न ही समाज के और न ही स्वयं के लिए शुभ लक्ष्ण है।
राममंदिर के लिए शुरु हुए चंदा संग्रह अभियान के दौरान देश के कई हिस्सों में शोभायात्राओं पर पथराव की घटनाएं देखने को मिलीं। यहां तक कि दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में दो दर्जन से भी अधिक हथियारबंद दंगाईयों ने रिंकू शर्मा नामक युवक की निर्मम हत्या कर दी। पुलिस इसका कारण पुरानी रंजिश बता रही है परंतु पीडि़त परिवार का कहना है कि रिंकू से पड़ौस में रहने वाले एक वर्ग के लोग इसलिए खफा थे कि वह राममंदिर के चंदा संग्रह अभियान से जुड़ा था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सदियों से चले आरहे राममंदिर प्रकरण को विभाजनकारी राजनीति ने समाज के दो वर्गों की अस्मिता से जोड़ दिया। एतिहासिक तथ्यों, विधिसम्मत दस्तावेजों को नजरंदाज कर एक वर्ग को निरंतर यह घूटी पिलाई जाती रही कि अयोध्या में मंदिर निर्माण का अर्थ इस वर्ग की पराजय होगी।
इस घूटी में आंशिक भी सच्चाई होती तो पराजित मानसिकता का कारण समझ आ सकता था परंतु इसमें केवल और केवल झूठ का जहर था। इस तरह की राजनीति करने वालों ने इतना झूठ बिलोया, इतने षड्यंत्र और प्रपंच किए कि इस वर्ग को झूठ भी सच लगने लगा कि यहां कभी राममंदिर था ही नहीं, बहुसंख्यक समाज उन पर मंदिर थोंप रहा है। हालांकि राममंदिर विवाद में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने समाज से अपील की थी कि कोई भी वर्ग इस फैसले को अपनी जय या पराजय के साथ न जोड़े परंतु एक वर्ग तब तक झूठ का इतना जहर निगल चुका था कि उसे पचाना संभव न था।
इसीलिए उसने मंदिर निर्माण को अपनी पराजय माना, उस समय तो यह मानसिकता खामोश रही परंतु अब हिंसा करती दिख रही है। तभी तो चंदा जुटाते रामभक्तों के रूप में इन्हें अपनी पराजय दिखाई देती और जय श्रीराम के नारे गर्म तेल के छींटों की तरह महसूस होते हैं। रिंकू शर्मा की पीठ में गहरे से घोंपा गया खंजर प्रमाण है कि पराजित मानसिकता में कितनी घृणा भरी है।
असल में रिंकू शर्मा के रूप में खंजर लोकतांत्रिक व्यवस्था की पीठ में घोंपा गया है। लोकतंत्र में हर कार्य कानून सम्मत व तथ्यों के आधार पर ही संपन्न होते हैं न कि निजी या सामूहिक जिद्द के अनुरूप। लेकिन देश में पिछले सात दशकों से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो तुष्टिकरण का बोलबाला रहा उसने संविधान से अधिक जिद्द को प्राथमिकता दी। शाहबानो केस में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को ही संसद में बदला गया, तीन तलाक से पीडि़त बच्चियों की चितकार को अनसुना किया जाता रहा, कट्टरपंथियों की मिजाजपुर्सी राजनीतिक कुर्सी की गारंटी बना दी गई। तुष्टीकरण की राजनीति इतनी बेशर्मी पर उतर आई कि इन्हें आतंकवाद में भी मानववाद दिखाई देने लगा। इसी से एक वर्ग को लगने लगा कि अयोध्या में मस्जिद वाले स्थान पर मंदिर तो उनके लिए कयामत के समान है। शायद इसी काल्पनिक कयामत से भयभीत और पराजित मानसिकता से पीडि़त हो यह वर्ग आज हिंसा पर उतर आया लगता है।
देश ने पराजित मानसिकता की हिंसा का एक उदाहरण कथित किसान आंदोलन के दौरान भी देखा। किसानों के नाम पर एक स्वघोषित आंदोलन तूफान की भांति गर्जन-तर्जन करता, फुंकारते हुए सबकुछ तहस-नहस कर आगे बढ़ता हुआ इस अहंकार में था कि उसकी जीत निश्चित है परंतु पवित्रता के अभाव में अपना नियंत्रण खो बैठा। अपनी बात न बनती देख अधीर हो गया और पराजित मानसिकता से पीडि़त हो देश के गणतंत्र को भी लहूलुहान कर गया।
लोकनायक किसान नेता चौधरी देवीलाल कहा करते थे कि ‘लोकराज’ ‘लोकलाज’ से चलता है। लोकलाज केवल सत्ताधारियों के लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी जरूरी है। कानून, दण्ड व न्यायालय की तो अपराधियों के लिए आवश्यकता पड़ती है परंतु सभ्य समाज के लिए लोकलाज ही पर्याप्त है। कानून की व्यवस्था स्थापित करने में भी लोकलाज सबसे अहम है क्योंकि अगर पूरा समाज ही कानून के उल्लंघन पर उतर आए तो शासन को भी उस स्थिति पर नियंत्रण पाना कठिन हो जाता है। आज भी रामराज्य को भारतीय शासन व्यवस्था का आदर्श इसीलिए माना जाता है क्योंकि इसमें लोकलाज दण्ड व्यवस्था पर भारी थी।
जैसा कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भारत को लोकतंत्र की जननी बताया है परंतु दुर्भाग्य है कि आजादी के सात दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम अपने समाज को लोकतांत्रिक भावना से परिपूर्ण नहीं कर पाए हैं। तभी तो हम हर विषय को अपनी या खास वर्ग की जय-पराजय से जोड़ते हैं और अपनी अपेक्षा अनुरूप काम न होने पर हिंसा या कुंठा का सहारा लेते हैं। अगर ऐसा न होता तो, न तो राममंदिर निर्माण को एक वर्ग अपनी पराजय के रूप में देखता और न ही लाल किले का चीरहरण होता। लोकतांत्रिक प्रणाली में अपनी बात रखने, अपने अधिकार मांगने, उसके लिए संघर्ष करने का सभी को अधिकार है परंतु यह कानून सम्मत होना चाहिए और कानून का निर्णय सभी को स्वीकार होना चाहिए। देश को फिर से बताने की जरूरत है कि सर्वोच्च अदालत के आदेश पर आज रामंदिर बन रहा है जिसे सभी को खुले मन से स्वीकार करना चाहिए। जय-पराजय की भावना से उठ कर प्रयास करें कि राममंदिर समाज को जोडऩे का माध्यम बने न कि तनाव का।
(यह लेखक के स्वतंत्र विचार है)
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