दस्तक-विशेषस्तम्भ

चीन के विश्वविद्यालयों में छात्रों का विद्रोह !

के. विक्रम राव

स्तंभ: कम्युनिस्ट चीन के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में गत सप्ताह से छात्र विद्रोह व्यापा है। इनमें सदियों पुराने बीजिंग, शंघाई, नानजिंग, शान्सी आदि विश्वविद्यालय हैं। फूदान (शंघाई) के कैम्पस में तो 20 अप्रैल को सुरक्षा गार्ड बुला लिये गये थे, उसे कुचलने के लिये। छात्रों की मांग थी : विचार की स्वतंत्रता खास। कई पर्यवेक्षकों ने याद भी दिलाया कि 4 जून 1989 को समीपस्थ तियानामेन चौक पर ऐसे ही जनांदोलन की इब्तिदा हुयी थी। इसके अंत होने तक सैकड़ों छात्र गोली से भून दिये गये। हजारों सलाखों के पीछे कैद हो गये। न जाने कितने गायब ही कर दिये गये। सैनिक दमन अमानवीय था। गत सप्ताह भी क्रूर पुलिसिया दमन के अंजाम में श्मशानवाली शांति तो ला दी गयी है। सेना तत्पर है हस्तक्षेप हेतु।

इन प्रतिरोधात्मक घटनाओं के कतिपय सीमित संपादित विवरण को न्यूयार्क टाइम्स, एफपी संवाद समिति और ”टाइम आफ इंडिया” (17 मई 2022) में प्र​काशित किया है। रपट के अनुसार कई प्रदर्शनकारी मारे गये, हजारों जेल भेजे गये। सरकार की ओर से स्पष्टीकरण दिया गया कि छात्र कोविड के नियमों को कठोरता से क्रियान्वयन के कारण उद्वेलित हैं। मगर पोस्टर जो परिसर के दीवारों पर लगाये गये है उनके सूत्र बड़े विप्लवी हैं। मसलन ”विचारों की अभिव्यक्ति निर्बाध हो”, ”शिक्षा परिसर है, कंस्ट्रेशन शिविर नहीं,” ”नौकरशाही का नाश हो”, फांसीवाद मुर्दाबाद, इत्यादि। इस संघर्ष के कारण शिक्षा क्रम तो टूटा, नतीजन पड़ोसी दक्षिण कोरिया के छात्र घर (सियोल) लौट गये। इसी संदर्भ में तियानमन चौक की नृशंस घटना लोग याद कर उसे ”मई 4 का संघर्ष” कहा गया है। तब हजारों छात्र इस चौराहे पर सैनिक टैंकों के सामने आ गये और लोकशाही के समर्थन में नारे लगाते रहे। मध्य रात्रि को चीन की जनमुक्ति सेना ने निरीह छात्रों को गिरफ्तार किया। धरने पर लेटे युवाओं पर टैंक चला दिये।

न जाने कितने कहा गये? तब आर्थिक सुधार और राजनीतिक आजादी का ही मुद्दा था। उदार राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पुरोधा : हू याबोंग को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया। नजरबंद किया गया। उनका गुनाह था कि वह जनतांत्रिक सुधार के पक्षधर थे। खासकर प्रतिरोध करने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के। इस घटना के चन्द महीनों बाद हमारे आईएफडब्ल्यूजे (IFWJ) के चालीस—सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल को लेकर मैं चीन गया था। इसमें कुछ भोपाल तथा गुजरात के पत्रकार बीजिंग विश्वविद्यालय के छात्रावास में गुपचुप गये थे और लौटकर खोजी खबरें लिखीं थी।

चीन पर निष्णात भारतीय संवाददाताओं के आंकलन में गत सप्ताह का जनान्दोलन राष्ट्रपति शी जिनपिंग के विरुद्ध है। वे इस वर्ष तीसरी बार राष्ट्रपति के प्रत्याशी है। यूं तो चीन के वयस्क नागरिक खेदपूर्वक बताते हैं कि उन लोगों ने मतपत्र कई दशकों से देखें नहीं क्योंकि जिनपिंग निर्विरोध चुन लिये जाते हैं। उनका कहना है कि माओ जेडोंग भी निर्वाचित होते थे तथा दो बार ही चुनाव लड़े। जिनपिंग आजीवन तो अब नामित हो ही गये हे। । जिनपिंग इस वक्त व्लादीमीर पुतीन से क्रूरता में करीबी प्रतिस्पर्धी हैं। यूं तो वे नरेन्द्र मोदी के गांव वडनगर और साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) भी आ चुके है। आज लद्दाख और अरुणाचल पर घात लगाये बैठे है।

इन छात्रों के पोस्टरों पर कई सूत्र अंकित है जैसे—”आजादी, निजता, मगर कैमरा (सीसीटीवी) नहीं।” ”यह शिक्षा केन्द्र है हिटलरी शिविर नहीं।” इस बीच मीडिया सेंसर भी कठोर कर दिया गया है। चीन का वेइबको सोशल मीडिया मंच तो प्रतिबंधित कर ही दिया गया है। पिछले दिनों व्यस्त चेंग्डू बाजार में तो एक परचम लगाया गया था कि ”राज्य शीश्चुन विश्वविद्यालय अध्यापक तथा छात्रों का है। सरकारी नौकरों का नहीं।”भले ही उदार भारत में रह रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी मोदी सरकार को अधिनायकवादी कहें, मगर उनके इष्ट नेता शी जिनपिंग के कारनामें पढ़ कर तो एडोल्फ हिटलर भी फीका लगेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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