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दिल्ली लोक सेवा विधेयक पास होने के बावजूद विवाद बरकरार

नई दिल्ली : कांग्रेस के समर्थन के बावजूद आम आदमी पार्टी दिल्ली के आला अफसरों के तबादले और नियुक्ति से जुड़ा दिल्ली लोक सेवा विधेयक (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) विधेयक 2023) को संसद से पास होने से नहीं रोक पाई। राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ ही उपराज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार फिर से दिल्ली की सर्वेसर्वा बन गई। वहीं, दिल्ली के उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना एक-एक करके आप सरकार की लोकप्रिय छवि को ध्वस्त करने में लगे हैं।

दिल्ली पर करीब नौ साल से राज कर रही आम आदमी पार्टी (आप) ने इस विधेयक को अपने वजूद से जोड़ लिया था। आप के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ऐलान कर दिया था कि अगर कांग्रेस संसद में इस विधेयक का विरोध नहीं करेगी तो उनकी पार्टी विपक्षी गठबंधन से अलग हो जाएगी। विपक्षी दल 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए देश भर में भाजपा और उसके राजग गठबंधन के खिलाफ एक-एक उम्मीदवार लाने की रणनीति बनाने में जुटे हुए हैं।

संसद में विधेयक पास करवाने के समय केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस पर खूब चुटकी ली कि कांग्रेस को दिल्ली से नहीं 2024 के चुनाव से मतलब है। वह आप के गठबंधन तोड़ने के भय से विधेयक का विरोध कर रही है। यह सही इसलिए है कि दिल्ली और पंजाब के कांग्रेस नेता किसी भी तरह से आप का समर्थन करने के विरोध में हैं। उनके एतराजों को दरकिनार करके ही कांग्रेस ने इस विधेयक का विरोध करना तय किया था।

विधेयक पास होने के बाद तो पहले वाली स्थिति पर मुहर लग गई है। आप के नेताओं कह दिया है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में वह दिल्ली और पंजाब में सभी सीटों पर खुद चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस के नेता आप के फायदे के किसी भी काम में साथ देने को तैयार नहीं थे। इस विधेयक का विरोध करने के बाद तो कांग्रेस नेता यह उम्मीद लगाए हुए हैं कि आप उनके साथ समझौता करके पंजाब और दिल्ली में कुछ सीटें उसे देगी।

मानते तो कांग्रेस के सारे ही नेता हैं लेकिन स्थानीय नेता इस पर खुलकर बोलते हैं कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के बुरे हाल की जिम्मेदार आप है। कांग्रेस नेताओं ने तो आरोप लगाया है कि भाजपा के ही इशारे और सहयोग से आप उन राज्यों में सक्रिय ज्यादा होती है जहां कांग्रेस की सीधी लड़ाई भाजपा से होती रही है। अब चुनाव का दौर शुरू होने वाला है। पहले कई राज्यों (तेलंगाना, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश) के चुनाव होंगे, फिर लोस चुनाव होने वाले हैं। चर्चा है कि इन राज्यों के साथ लोकसभा के भी चुनाव हो सकते हैं।

यह बार-बार साबित हुआ है कि जब भी टकराव हुआ है दिल्ली सरकार के अधिकार कम हुए हैं और जब भी सामंजस्य हुआ है, अधिकार बढ़े हैं। विवाद शीला दीक्षित के कार्यकाल में भी हुए। साल 2002 में तब के उपराज्यपाल विजय कपूर ने केंद्र सरकार से दो परिपत्र (25 जुलाई और 29 अगस्त) जारी करवाकर विधानसभा में पेश होने वाले हर बिल के प्रारूप तक की पहले मंजूरी लेने का आदेश जारी करवा दिया।

इसका भारी विरोध हुआ। शीला दीक्षित की अगुआई वाली सरकार के सदस्यों और विधायकों ने इन परिपत्रों के खिलाफ संसद मार्च किया और 11 सितंबर 2002 को विधान सभा का एक दिन का विशेष सत्र बुलाकर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव पास करवाया। तब केंद्र में भाजपा की सरकार थी।

आप सरकार में दिल्ली का शासक कौन तय करने के पत्र के जवाब में 25 जुलाई 2015 को गृह मंत्रालय ने अपने पत्र में फिर से साफ कहा कि दिल्ली सरकार मतलब प्रशासक यानी उपराज्यपाल होते हैं। यही चार अगस्त, 2016 को दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा। जिसे दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।

चार जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि दिल्ली में गैर आरक्षित विषयों में दिल्ली सरकार फैसला लेने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है। आला अधिकारियों की नियुक्ति और तबादला पर अधिकार तय करने के लिए दो जजों की पीठ बनाई। 14 फरवरी को दोनों जजों ने इस पर अलग- अलग मत दिया। फिर पांच जजों की संविधान पीठ ने सुनवाई की और फैसला दिल्ली सरकार के हक में दिया। जिस तरह से 2021 में केंद्र सरकार ने संविधान संशोधन करके उपराज्यपाल के अधिकार बढ़ाए, उसी तरह से 19 मई के अध्यादेश में किया गया है।

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