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वन नेशन-वन इलेक्शन : बहुत मुश्किल है डगर

जितेन्द्र शुक्ला

78वें स्वतंत्रता दिवस पर 15 अगस्त 2024 को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि देश में हर छह माह में कहीं न कहीं चुनाव हो रहे होते हैं। ऐसे में देश को आगे ले जाने के लिए वन नेशन, वन इलेक्शन को आगे लाना ही होगा। उसके बाद मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे होने पर गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि हमारी योजना इस सरकार के कार्यकाल के दौरान ही वन नेशन वन इलेक्शन को लागू कराने की है। इसको लेकर तैयारियां की जा रही हैं। वहीं ‘एक देश-एक चुनाव’ के प्रस्ताव को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की मंजूरी मिलने के ठीक एक दिन पहले ही गृहमंत्री अमित शाह ने यह कहते कि ‘देश में वन नेशन वन इलेक्शन हर हाल में 2029 से पहले लागू होगा’ यह इशारा दे दिया था कि इस आशय का प्रस्ताव केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से पास होने जा रहा है। अब देश की 543 लोकसभा सीट और सभी राज्यों की कुल 4130 विधानसभा सीटों पर एक साथ चुनाव कराने की राह में आने वाली रुकावटों को दूर करने की कवायद शुरू होगी।

दरअसल, मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर दो सितंबर, 2023 को एक कमेटी गठित की थी और इसकी अध्यक्षता पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को सौंपी थी। कमेटी में पूर्व राष्ट्रपति के अलावा एक वकील, तीन नेता और तीन पूर्व अफसर समेत आठ लोग कमेटी के सदस्य बनाये गये थे। कमेटी में वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे, केन्द्रीय गृहमंत्री एवं भाजपा नेता अमित शाह, कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, डीपीए पार्टी के मुखिया गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप तथा पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी को सदस्य बनाया गया था। जबकि इसके अलावा विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल और डॉ. नितेन चंद्रा समिति में शामिल थे। कमेटी के सदस्यों ने सात देशों की चुनाव व्यवस्था का अध्ययन किया। साथ ही संबंधित विषय विशेषज्ञों से चर्चा और विचार मंथन के बाद 191 दिन में 18 हजार 626 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की गई। कमेटी ने यह रिपोर्ट 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी थी। मोटे तौर पर एक चुनाव के लिए रिपोर्ट में सभी विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 तक करने का सुझाव दिया गया है।

राष्ट्रपति को सौंपी गयी रिपोर्ट में समिति ने सिफारिश करते हुए लिखा है कि चुनाव दो चरणों में कराए जाएं। पहले चरण में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव कराए जाएं। दूसरे चरण में नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव हों। यह भी कहा गया है कि इन्हें पहले चरण के चुनावों के साथ इस तरह का समन्वय बनाया जाए कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के सौ दिनों के भीतर इन्हें पूरा किया जाए। इसके लिए एक मतदाता सूची और एक मतदाता फोटो पहचान पत्र की व्यवस्था की जाए। इसके लिए संविधान में जरूरी संशोधन किए जाएं। समिति की सिफारिश के अनुसार त्रिशंकु सदन या अविश्वास प्रस्ताव की स्थिति में नए सदन के गठन के लिए फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं। इस स्थिति में नए लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल, पहले की लोकसभा (या विधानसभा) की बाकी बची अवधि के लिए ही होगा। इसके बाद सदन को भंग माना जाएगा। इन चुनावों को ‘मध्यावधि चुनाव’ कहा जाएगा, वहीं पांच साल के कार्यकाल के खत्म होने के बाद होने वाले चुनावों को ‘आम चुनाव’ कहा जाएगा।

समिति के अनुसार आम चुनावों के बाद लोकसभा की पहली बैठक के दिन राष्ट्रपति एक अधिसूचना के जरिए इस अनुछेद के प्रावधान को लागू कर सकते हैं। इस दिन को ‘निर्धारित तिथि’ कहा जाएगा। इस तिथि के बाद, लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से पहले विधानसभाओं का कार्यकाल बाद की लोकसभा के आम चुनावों तक खत्म होने वाली अवधि के लिए ही होगा। इसके बाद लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के सभी एक साथ चुनाव कराए जा सकेंगे। एक समूह बनाया जाए जो समिति की सिफारिशों के कार्यान्वयन पर ध्यान दे। समिति ने यह भी सुझाव दिया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए जरूरी व्यवस्थायें, यथा ईवीएम मशीनों और वीवीपैट खरीद, मतदान कर्मियों और सुरक्षा बलों की तैनाती और अन्य व्यवस्था करने के लिए निर्वाचन आयोग पहले से योजना और अनुमान तैयार करे। वहीं नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनावों के लिए ये काम राज्य निर्वाचन आयोग करे।

दरअसल, ‘एक देश एक चुनाव’ यानी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का सीधी भाषा में अर्थ यह है कि पूरे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव हों अर्थात देश की सभी 543 लोकसभा सीटों और सभी राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों की कुल 4130 विधानसभा सीटों पर एक साथ चुनाव होंगे। वोटर सांसद और विधायक चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय पर अपना वोट डाल सकेंगे जबकि वर्तमान में देश में अभी लोकसभा चुनाव और विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं। हालांकि देश में आजादी के बाद 1952 से लेकर 1957, 1962 और 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे। 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं तय समय से पहले भंग कर दी गई थीं। 1970 में लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी। इसके चलते ‘एक देश एक चुनाव’ की अवधारणा चूर-चूर हो गयी।

एक देश एक चुनाव की चर्चा के बीच देश में बड़े जोरशोर से जनगणना की भी मांग हो रही है। यदि साल 2029 से पहले जनगणना हो जाती है और फिर उसके बाद पूरे देश में एकसाथ चुनाव होंगे तो उससे पहले नए सिरे से परिसीमन भी होगा। वर्तमान में देश में अभी 543 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव होता है। ऐसे में चर्चा यह है कि साल 2029 में होने वाला लोकसभा चुनाव परिसीमन के बाद 543 की बजाय करीब 750 सीटों पर होगा और चूंकि तब तक महिला आरक्षण भी अमली जामा पहन लेगा ऐसे में इनमें से नारी शक्ति वंदन अधिनियम के मुताबिक, एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। यहां एक तथ्य यह भी है कि लोकसभा सीटों को बढ़ाने को लेकर दक्षिण के राज्य विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि अगर समान जनसंख्या के आधार पर परिसीमन के बाद लोकसभा सीटों पर निर्धारण होता है तो लोकसभा में दक्षिण के राज्यों का प्रतिनिधित्व गिर सकता है, जिस कारण वे विरोध कर रहे हैं। वहीं, मौजूदा समय में देश के 28 राज्य और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों में कुल 4130 विधानसभा सीटें हैं। सबसे अधिक विधानसभा सीटें उत्तर प्रदेश में 403 हैं तो सबसे कम राज्य के हिसाब से सिक्किम और केन्द्र शासित प्रदेश को जोड़कर देखें तो पुडुचेरी में 30 सीटें हैं।

खैर, एक देश एक चुनाव के दो अलग-अलग चरणों के लिए, दो संवैधानिक संशोधन विधेयक पास करने होंगे। इनके तहत नए प्रावधानों को शामिल करने और अन्य में संशोधन सहित कुल 15 संशोधन किए जाएंगे। पहले संविधान संशोधन के तहत केन्द्र सरकार पहला विधेयक संविधान में एक नया अनुच्छेद-82ए जोड़ेगी। अनुच्छेद 82ए उस प्रक्रिया को स्थापित करेगा जिसके जरिए देश एक साथ चुनाव की ओर बढ़ेगा, जबकि दूसरा विधेयक संविधान में अनुच्छेद 324ए पेश करेगा। यह केन्द्र सरकार को लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथ नगर पालिकाओं और पंचायतों के समानांतर चुनाव सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाने का अधिकार देगा। यहां पर सवाल यह भी है कि क्या राज्यों की विधानसभा से भी मंजूरी की जरूरत होगी? कहा जा रहा है कि दो संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के बाद, संसद अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन प्रक्रियाओं का पालन करेगी। चूंकि केवल संसद को ही लोकसभा और विधानसभा से संबंधित चुनाव कानूनों को बनाने का अधिकार है, इसलिए पहले संशोधन विधेयक को राज्यों से समर्थन की जरूरत नहीं होगी। लेकिन, स्थानीय निकायों में चुनाव से जुड़े मामले राज्य के अधीन हैं और इसके लिए दूसरे संशोधन विधेयक को देश के कम से कम आधे राज्यों द्वारा अनुमोदित किया जाना जरूरी होगा।

फिर दूसरे संविधान संशोधन विधेयक को राज्यों से मंजूरी के बाद, और दोनों सदनों में निर्धारित बहुमत से पारित होने के बाद, विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के लिए जाएंगे। एक बार जब वह विधेयकों पर हस्ताक्षर कर देती हैं, तो वे कानून बन जाएंगे। इसके बाद, कार्यान्वयन समूह इन अधिनियमों के प्रावधानों के आधार पर इन बदलावों को अंजाम देगा। वहीं, एकल मतदाता सूची और मतदाता पहचान पत्र के संबंध में प्रस्तावित कुछ बदलावों के लिए कम से कम आधे राज्यों से मंजूरी की जरूरत होगी। संविधान के अनुच्छेद 325 में एक नया उपखंड सुझाएगा कि एक निर्वाचन क्षेत्र में सभी मतदान के लिए एक ही मतदाता सूची होनी चाहिए। वहीं, इस सबसे इतर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की मंजूरी के बाद एक देश एक चुनाव को लेकर नफा-नुकसान का भी आंकलन अब नए सिरे से किया जाने लगा है। यह सही है कि हर साल देश में औसतन 5 से 7 विधानसभा चुनाव होते हैं, जिसका मतलब है कि भारत हमेशा चुनावी मोड में रहता है। यह केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, सरकारी कर्मचारियों, चुनाव ड्यूटी पर शिक्षकों, मतदाताओं, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों जैसे सभी प्रमुख हितधारकों को प्रभावित करता है। चुनाव के लिए चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता लागू करता है ताकि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराये जा सकें। संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट के अनुसार आदर्श आचार संहिता लागू होने से उस राज्य में जहां चुनाव हो रहा है, केन्द्र और राज्य सरकार की सामान्य सरकारी गतिविधियों और कार्यक्रमों को स्थगित कर दिया जाता है।

बार-बार होने वाले चुनावों से केन्द्र और राज्य सरकारों को भारी खर्च करना पड़ता है। इससे जनता के पैसे की बर्बादी होती है और विकास कार्य बाधित होता है। चुनाव की स्थिति में भारी मात्रा में सुरक्षा बल भी तैनात करना पड़ता है। वहीं बार-बार होने वाले चुनाव भी शासन के फोकस को दीर्घकालिक नीति लक्ष्यों से अल्पकालिक नीति लक्ष्यों की ओर ले जाते हैं। विधि आयोग के अनुसार, एक साथ चुनाव कराने के कई फायदे हैं। मसलन, बार-बार होने वाले चुनावों में लगने वाले भारी खर्च को कम करेगा। यह उस भारी जनशक्ति को कम करेगा जिसे हर बार चुनाव होने पर तैनात करना पड़ता है। विधि आयोग का मत है कि एक साथ चुनाव कराने से मतदान प्रतिशत भी बढ़ेगा। एक साथ चुनाव वोट बैंक तुष्टिकरण की राजनीति के खिलाफ भी काम कर सकते हैं। वहीं एक देश एक चुनाव को लेकर कुछ नुकसान की भी आशंका विशेषज्ञ जता रहे हैं। कहा जा रहा है कि एक साथ चुनाव कराने से मतदाताओं का निर्णय प्रभावित हो सकता है। मतदाता स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करेंगे। मजबूत केन्द्रीय राजनीति के कारण क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों को उचित तरीके से नहीं उठा पाएंगे। यह भारतीय राजनीति और राजनीति की केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाएगा।

एक साथ चुनाव होने से लोगों के प्रति सरकार की जवाबदेही पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। बार-बार चुनाव सरकार और विधायिका को नियंत्रण में रखते हैं जो एक साथ चुनाव के मामले में नहीं होगा। चुनावों को एक साथ करने के लिए, किसी राज्य में चुनावों को स्थगित करना होगा। यह केवल राष्ट्रपति शासन के माध्यम से किया जा सकता है जो लोकतंत्र और संघवाद के लिए समस्याग्रस्त होगा। हालांकि एक साथ चुनाव कराने से सरकारों के खर्च में कमी आएगी, लेकिन राजनीतिक दलों के खर्च पर इसका कोई असर नहीं हो सकता है जो राजनीति में भ्रष्टाचार के कारणों में से एक है। कमोवेश विधि आयोग का भी यह कहना है कि संविधान का मौजूदा ढांचा एक साथ चुनाव कराने के लिए उपयुक्त नहीं है। इसके लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के संविधान में विभिन्न संशोधनों और लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में संशोधन की आवश्यकता होगी। विधि आयोग के अनुसार, संवैधानिक संशोधनों की पुष्टि के लिए राज्य विधान सभाओं के 50 फीसदी की आवश्यकता होगी क्योंकि विभिन्न विधान सभाओं के चुनाव बेतरतीब होते हैं, इसके लिए एक संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होगी क्योंकि इन विधान सभाओं का कार्यकाल या तो बढ़ाया या घटाया जाना होगा।

वहीं, क्षेत्रीय दल एक देश एक चुनाव को विरोध कर रहे हैं। विपक्षी दल जैसे- कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और सपा इसका विरोध करते इस असंवैधानिक और लोकतंत्र विरोधी करार देते आ रहे हैं। इतना ही नहीं, क्षेत्रीय दल को डर है कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होंगे तो राष्ट्रीय मुद्दे प्रमुख हो जाएंगे और वे स्थानीय मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठा नहीं पाएंगे। वास्तव में क्षेत्रीय दलों को अपना अस्तित्व खतरे में दिखाई देने लगा है। वहीं बसपा ने एक देश एक चुनाव का समर्थन किया है। साल 2015 में आईडीएफसी की ओर से जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 77 फीसदी संभावना इस बात की होती है कि मतदाता राज्य और केन्द्र में एक ही पार्टी को चुनते हैं, जबकि अलग-अलग चुनाव होने पर केन्द्र और राज्य में एक ही पार्टी को चुनने की संभावना घटकर 61 प्रतिशत हो जाती है।

वास्तव में एक देश एक चुनाव कराने के लिए आम राय बनाना आज की परिस्थिति में केन्द्र सरकार के लिए आसान नहीं होगा। इसकी स्पष्ट वजह यह है कि केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत में नहीं है जैसी कि वह साल 2014 और 2019 में थी। इस बार सरकार को दो प्रमुख दल तेलगू देशम पार्टी और जनता दल यूनाइटेड समर्थन दे रहे हैं। हालांकि सरकार को समर्थन देने वाले और भी दल हैं लेकिन इन दो दलों के पास संख्या बल ठीक-ठाक है। विपक्ष का एक देश एक चुनाव पर संसद में क्या रुख रहेगा, यह तो आने वाला समय बतायेगा लेकिन उससे पहले इन दो दलों के रुख पर ही सरकार का अगला कदम उठेगा क्योंकि चर्चा है कि जब केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने इस आशय के प्रस्ताव को पारित किया तो इन दोनों दलों ने ‘मौन स्वीकृति’ दी थी। अब इस ‘मौन’ के मायने खोजे जा रहे हैं।

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