स्मिता, शबाना, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, जैसे सितारों को बॉलीवुड के आसमान पर लाए थे श्याम बेनेगल
श्याम बेनेगल की दस मशहूर फिल्मे
मुंबई: छुट्टियों में मौज-मस्ती में 12 साल के श्याम बेनेगल ने एक फिल्म बनाई थी। सिनेमा बनाना कब जनून बन जाएगा ये हैदराबाद के लड़के श्याम को मालूम ही नहीं चला। वो बॉलीवुड की मनोरंजन फिल्मों की दुनिया थी। राजेश खन्ना, दिलीप कुमार, धर्मेंन्द्र, जीतेन्द्र, संजीव कुमार,शशि कपूर जैसे ग्लैमरस सितारों का दौर था। ऐसे में एक युवा निर्देशक ‘अंकुर’ की स्क्रीप्ट लेकर मुम्बई की सड़कों पर संघर्ष कर रहा था। ऐसे में उसे मोहन जे. बिजलानी मिले। निर्देशक और निर्माता बिजलनी अंजान को राहें , राते के अँधेरे में और दिल ने पुकारा के लिए जाना जाता था। ‘अंकुर’ के साथ हिन्दी फिल्मों के इतिहास में एक नई धारा का अंकुरण हुआ। बाद में इसे समानांतर सिनेमा कहा गया। जिसने हिंदी फिल्म इंड्रस्टी को स्मिता पाटिल, नसीरूदीन शाह, ओम पुरी, अमरीश पुरी, और शबाना आज़मी जैसे लाजवाब कलाकार दिए। वह श्याम बेनेगल आज नहीं रहे। 90 साल की उम्र में वे समानांतर दुनिया की यात्रा पर निकल गए।
हम दस्तक टाइम्स के पाठकों को श्याम बेनेगल की टॉप दस फिल्मों का ब्योरा दे रहे हैं जो हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती हैं।
- अंकुर (1974)
बेनेगल की पहली फिल्म भारतीय समानांतर सिनेमा में एक मील का पत्थर है। अंकुर ग्रामीण भारत में जाति और लैंगिक असमानता का एक मार्मिक चित्रण है, जो एक जमींदार के एक दलित महिला के साथ अवैध संबंध के इर्द-गिर्द घूमती है। इस फिल्म ने दुनिया के सामने पहली बार शबाना आजमी को पेश किया, जिनके सशक्त अभिनय ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिलाया। बेनेगल की सामाजिक रूप से जागरूक कहानी कहने के लिए अंकुर ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता। श्याम इस फिल्म में वहीदा रहमान को साइन करना चाहते थे तो वहीदा ने इंकार कर दिया। जबकि शायर कैफ़ी आज़मी और मंच अभिनेत्री शौकत आज़मी की बेटी शबाना आजमी इस रोल के लिए झट से राजी हो गई।
- निशांत (1975)
निशांत फिल्म सामंती उत्पीड़न की एक साहसिक आलोचना है। निशांत सत्ता के दुरुपयोग और उसके नतीजे में होने वाले विद्रोह की पड़ताल करती है। स्मिता पाटिल, गिरीश कर्नाड और अमरीश पुरी अभिनीत यह फिल्म ऑस्कर में भारत की आधिकारिक प्रविष्टि थी। इसने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता, जिससे एक फिल्म निर्माता के रूप में बेनेगल की प्रतिष्ठा और मजबूत हुई, जिन्होंने सामाजिक मानदंडों पर सवाल उठाने का साहस किया। फिल्म ने पहली बार स्मिता पाटिल जैसे अदाकारा का परिचय कराया। इससे पहले वे टीवी पर न्यूज पढ़ा करती थीं। हमेशा से थोडी़ विद्रोही रही स्मिता की बडी़ आंखों और सांवले सौंदर्य ने पहली नज़र मे ही सभी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया।
- मंथन (1976)
1976 में आई श्याम बेनेगल की फ़िल्म मंथन 48 साल बाद कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में दिखाई गई। फ़िल्म का ओपनिंग टाइटल अपनी इस बात के लिए मशहूर है जहाँ लिखा है, ‘5,00,000 फार्मर्स ऑफ़ गुजरात प्रेजेंट …मंथन।’ फ़िल्मकार श्याम बेनेगल के मुताबिक गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन पर बनी इस फ़िल्म को पांच लाख किसानों ने मिलकर फ़ाइनेंस किया था और सबने दो-दो रुपए का योगदान दिया था। इस फ़िल्म के लिए संयुक्त राष्ट्र ने श्याम बेनेगल और वर्गीज़ कुरियन को ख़ास तौर बुलाया था। दूसरे देशों में कोऑपरेटिव मूवमेंट के बारे में बताने के लिए मंथन का शो यूएन मुख्यालय पर रखा गया था. जिसके बाद रूस और चीन में भी इसे दिखाया गया। दरअसल मंथन सिनेमा नहीं बल्कि श्वेत क्रांति को एक सिनेमाई श्रद्धांजलि है। स्मिता पाटिल और गिरीश कर्नाड अभिनीत यह फिल्म सहकारी डेयरी फार्मिंग के संघर्ष और जीत का वर्णन करती है। मंथन ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता और यह जमीनी स्तर पर सशक्तिकरण की एक कालजयी कहानी बनी हुई है।
- भूमिका (1977)
यह फिल्म 1940 के दशक की अभिनेत्री हंसा वाडेकर की आत्मकथा पर आधारित हैं। यह एक महत्वाकांक्षी अभिनेत्री की ”खुद को खोजने की जरूरत” और कई टूटे रिश्ते की भ्रामक संतुष्टि की कहानी पेश करती है। भूमिका, प्रसिद्धि, प्रेम और स्वतंत्रता की परस्पर विरोधी मांगों के बीच एक महिला की पहचान की तलाश की पड़ताल करती है। स्मिता पाटिल के प्रदर्शन ने उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिलाया, जबकि फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर क्रिटिक्स अवॉर्ड जीता। फिल्म ने दुनिया भर में नाम कमाया। भूमिका को 1978 में कार्थेज फ़िल्म फ़ेस्टिवल शिकागो में आमंत्रित किया गया। जहाँ इसे गोल्डन प्लाक 1978 से सम्मानित किया गया। 1986 में इसे फ़ेस्टिवल ऑफ़ इमेजेस, अल्जीरिया में आमंत्रित किया गया था। अमरीश पुरी की आत्मकथा, द एक्ट ऑफ लाइफ में वे बताते हैं, “भूमिका के लिए, यह बिल्कुल अलग भूमिका थी, जिसमें मैंने गोवा के एक जमींदार की भूमिका निभाई थी। दिलचस्प बात यह है कि इस फिल्म के निर्माण के दौरान श्याम ने मुझसे कहा, “इस भूमिका के लिए तुम्हारा चेहरा बहुत कठोर है और मैं किसी और को भी नहीं ले सकता। इसलिए, मैं चाहता हूं कि तुम थोड़ी नरम दिखो।” मैंने कहा, “मैं क्या कर सकता हूं?” उन्होंने सुझाव दिया, “किसी ब्यूटी पार्लर में जाओ और थोड़ा फेशियल करवाओ।” मैंने कहा, “लेकिन चेहरा वैसा ही रहेगा।” उन्होंने कहा, “नहीं, नहीं, कोमलता आ जाएगी।” इसलिए, मुझे फेशियल के लगभग दस सत्रों के लिए ताज महल होटल भेजा गया, जिसके लिए स्वाभाविक रूप से भुगतान किया गया और इससे फर्क पड़ा; क्योंकि मैंने देखा कि चेहरा वास्तव में बहुत नरम लग रहा था।
- जुनून (1978)
जूनन 1979 में बनी हिंदी भाषा की भारतीय फ़िल्म है, जिसका निर्माण शशि कपूर ने किया और निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया। यह फ़िल्म रस्किन बॉन्ड के काल्पनिक उपन्यास, ए फ़्लाइट ऑफ़ पिजन्स पर आधारित है, जो 1857 के भारतीय विद्रोह पर आधारित थी। इस फिल्म में जेनिफर केंडल, नसीरुद्दीन शाह और शबाना आजमी सहित कई शानदार कलाकार हैं। जुनून ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार भी जीता। जूनन की कहानी 1857 के भारतीय विद्रोह के इर्द-गिर्द सेट की गई है। जावेद खान ( शशि कपूर ) मुस्लिम पठान विरासत का एक लापरवाह सामंती सरदार है, जिसकी दुनिया वाहक कबूतरों के इर्द-गिर्द घूमती है। उनके छोटे बहनोई, सरफराज खान ( नसीरुद्दीन शाह ) राजनीतिक रूप से संजीदा हैं और सक्रिय रूप से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई की योजना बनाते हैं। स्वतंत्रता सेनानी चर्च में प्रेयर कर रहे अंग्रेजों पर हमला कर देते हैं। वे उन सभी का नरसंहार कर देते हैं। लेकिन मिरियम लाबादूर ( जेनिफर केंडल ) अपनी बेटी रूथ ( नफीसा अली ) और मां ( इस्मत चुगताई ) के साथ भागने में सफल हो जाती है। मां रामपुर के शाही नवाब परिवार की एक मुस्लिम महिला थी और उसकी शादी एक अंग्रेज से हुई थी। जूनन जावेद और रुथ की एक प्रेम कहानी है जो इस संदेश के साथ खत्म होती है कि जावेद अंग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो जाता है जबकि रूथ और उसकी माँ इंग्लैंड लौट जाती हैं। इसके पचपन साल बाद रूथ की अविवाहित मृत्यु हो जाती है।
- मंडी (1983)
मंडी श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित 1983 की हिंदी भाषा की फिल्म है। यह फिल्म गुलाम अब्बास की एक क्लासिक उर्दू लघु कहानी आनंदी पर आधारित है। फिल्म एक वेश्यालय की कहानी बताती है, जो शहर के केंद्र में स्थित है, एक ऐसा क्षेत्र जिसे कुछ राजनेता अपने प्रमुख इलाके के रूप में चाहते हैं। फिल्म राजनीति और वेश्यावृत्ति पर एक व्यंग्यात्मक कॉमेडी है, और इसमें शबाना आज़मी , स्मिता पाटिल और नसीरुद्दीन शाह जैसे अन्य कलाकार हैं। शबाना आज़मी ने चकले की मैडम के रूप में अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ काम किया है। फिल्म में स्मिता पाटिल और नसीरुद्दीन शाह सहित कई कलाकार शामिल हैं। फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। यह सामाजिक मानदंडों पर एक साहसिक फिल्म थी। मंडी सबसे अधिक संख्या में 12 फिल्मफेयर पुरस्कार विजेताओं वाली हिंदी फिल्म है। फिल्म में काम करने वाले स्मिता पाटिल , शबाना आजमी , नीना गुप्ता , नसीरुद्दीन शाह , ओम पुरी , सईद जाफरी , अन्नू कपूर , सतीश कौशिक , पंकज कपूर , अमरीश पुरी , इला अरुण और केके रैना को इस फिल्म में एक्टिंग के लिए फिल्म फेयर मिला। इसके अतिरिक्त फिल्म में फिल्मफेयर नामांकित कलाकारो में कुलभूषण खरबंदा,अनीता कंवर, रत्ना पाठक शाह और सोनी राजदान शामिल हैं।
- सूरज का सातवां घोड़ा (1992)
धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित, यह दार्शनिक फिल्म परस्पर जुड़ी कहानियों के माध्यम से सत्य और प्रेम की प्रकृति का पता लगाने के लिए एक अनूठी कथा संरचना का उपयोग करती है। रजित कपूर और अमरीश पुरी अभिनीत, सूरज का सातवां घोड़ा ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। इसकी बौद्धिक गहराई और कहानी कहने की नवीनता इसे बेनेगल की कृतियों में विशिष्ट बनाती है।
- ज़ुबैदा (2001)
प्रेम और त्रासदी की एक मार्मिक कहानी, जुबैदा अपनी इच्छाओं और सामाजिक अपेक्षाओं के बीच फंसी एक महिला की कहानी बताती है। खालिद मोहम्मद द्वारा लिखित और करिश्मा कपूर के मंत्रमुग्ध कर देने वाले अभिनय से सजी इस फिल्म ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता। इसका भावपूर्ण साउंडट्रैक ए.आर. रहमान का था।
- सज्जनपुर में आपका स्वागत है (2008)
कॉमेडी-ड्रामा में बेनेगल के प्रवेश को चिह्नित करते हुए, वेलकम टू सज्जनपुर में एक ग्रामीण गांव के जीवन को हास्यपूर्ण लेकिन संवेदनशील तरीके से चित्रित किया गया है। श्रेयस तलपड़े की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म हल्के-फुल्के आकर्षण को बरकरार रखते हुए सामाजिक मुद्दों की आलोचना करती है। इसकी आकर्षक कथा और प्रासंगिक पात्रों के लिए इसे समीक्षकों ने काफी सराहा।
- शाबाश अब्बा (2010)
भ्रष्टाचार और नौकरशाही पर मजाकिया सटायर है शाबाश अब्बा। यह रोल बोमन ईरानी ने निभाया था। ईरानी का किरदार सरकारी अक्षमता को दूर करने वाले एक पिता का है। जिसमें अब्बा अपनी बेटी के लिए लड़का ढूंढने के लिए अपने सूखाग्रस्त गांव में छुट्टी पर जाता है और रिश्वतखोरी वाली नौकरशाही में फंस जाता है। फिल्म ने सामाजिक मुद्दों पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता, जो सामाजिक चुनौतियों से निपटने के लिए बेनेगल की स्थायी प्रतिबद्धता को उजागर करता है।