हिन्दी पत्रकारिता के उस पार
प्रसंगवश
स्तम्भ : हिन्दी पत्रकारिता के अंग्रेजीकरण ने अब कई नए आयाम खोज निकाले हैं। हिन्दी हेडलाइन्स के बीच अंग्रेजी के उपशीर्षक और हिन्दी के बेहतरीन शब्दों को किनारे कर उन पर अंग्रेजी हावी करना आम बात हो गई है। अब इस बात पर भी खुली चर्चा होने लग गई है कि तमाम टी.वी. चैनलों पर जो कुछ परोसा जा रहा है, क्या वास्तव में वहीं खबर है और कि खबर क्या ऐसी ही होनी चाहिए।
जिस तरह अब सिंहासन हिन्दी का मत्था लगाकर अंग्रेजी में बुदबुदाने लग गए हैं, सत्ता के श्रृंगार पुष्प अंग्रेजियत में डूबकर इतराने लगे हैं, मीडिया जिस तरह सरकारी रंगरोगन में सजकर इठलाते हुए चलने लगा है और सबसे आसान ‘बीट’ विपक्ष पर हमला करना हो गई हो तो ऐसे में किस पत्रकारिता पर किस किस्म का जश्न मनाना चाहिए? क्या यह विचार नहीं होना चाहिए कि ऐसे में आज एक और हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर वह किस पायदान पर खड़ी नजर आ रही है, जरा बताइए तो!
वैसे भी हिन्दी पूजनीय भर रह गई है। 12 सितम्बर को हिन्दी दिवस और 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर हिन्दी के लिए जलसे होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कि नवरात्र में कन्या भोज के आयोजन होते हैं और फिर कन्याओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। उधर, धीरे—धीरे हिन्दी के बड़े बड़े अखबार, हिन्दी भाषा की व्याकरण अंग्रेजी में लिखने लग गए हैं। हिन्दीभाषियों को ‘ट्विंकिल ट्विंकिल लिटिल स्टार’ समझाने लगे हैं। लेकिन संतोष की बात अब भी यह है कि भले ही जितनी तरक्की हिन्दी नहीं कर पाई हो, उतनी हिन्दी पत्रकारिता ने कर ली है।
तकनीकी मामलों में हिन्दी के अखबार अब किसी भी मामले में अंग्रेजी वालों से पीछे नहीं हैं। आज हिन्दी के बेहतरीन कम्प्यूटर हैं, उनकी हिन्दी की वेबसाइट हैं और मोबाइल फोन्स और व्हाट्स-एप ने हिन्दी पत्रकारिता को आसमान की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है। इंटरनेट, ब्राडबैंड, टैबलेट, मोबाइल ने लोगों की खबरों की भूख बढ़ाई है और हिन्दी ने इसका पूरा लाभ लिया भी है। सभी हिन्दी अखबारों की अब अपनी वेबसाइट हैं।
लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तो हिन्दी पत्रकारिता की बेहद किरकिरी करके रख दी है। घटिया किस्म की विषय वस्तु, टेबुल पर बैठकर सारी पत्रकारिता की बेतुकी चीरफाड़, अज्ञानता से भरपूर अेंकरिंग और आमजनों के सरोकारों से कहीं दूर हटकर मूल पाठों से खिलवाड़ आम बात हो गई है। इसके चलते टी.वी. पत्रकारिता पहचान, नाम और विश्वसनीयता के बड़े संकटों में घिरी पड़ी है। यह प्रातः स्मरणीय मंत्र भुला दिया गया कि मीडिया, सरकार से जनता को नहीं, जनता से सरकार को प्रभावित करने की कसमें लेकर जन्मा और पनपा है और इसकी कोई और भिन्न भूमिका न पहले कभी थी और न आज है। पत्रकारिता के एक बड़े हिस्से का सरकार का भोंपू बजाना कोई नई बात नहीं है। लेकिन मजबूत विपक्ष उसकी काट के लिए मौजूद होता था। अब जबकि विपक्ष टुट-रूं-टूू है, खुद अपने पैरों पर खड़े हो पाने में लाचार है तो मीडिया को उसकी ताकत का संचार अपने बाजुओं से करके देना चाहिए था, जो नहीं हो रहा है।
मीडिया से इस समय कहीं अधिक अपेक्षाएं हैं क्योंकि विपक्ष या तो अदृश्य है और या फिर अकर्मण्य और अक्षम है, लेकिन गिने चुने वरिष्ठ पत्रकारों, अखबारों व चैनलों को छोड़कर बाकी तो वंदनवार, जय जयकार, फूलों के हार से अपनी उर्जा को श्रृंगारित किए पड़े हैं।
फिर दुखती रग एक और भी है। बड़ी कुर्सियों पर बैठे पत्रकारिता के वरिष्ठजन खुद तो मूल पाठ भूल ही गए हैं, सामने मौजूद कनिष्ठों को उनकी याद भी नहीं कराना चाहते। एक जमाना था जब पत्रकार कलम चलाते समय अपने संपादक के चाबुक की याद अपनी छाती से चिपकाकर रखते थे। संपादक की सशरीर उपस्थिति कहीं जरूरी नहीं थी। और अब? अब तो तमाम खबरें संपादक की मेज से न तो प्रेरित होती हैं और न ही उनकी नजरों से गुजरती हैं। इन हालात ने टेलिविजन पत्रकारिता को तो और भी कहीं बहुत खतरनाक मोड़ पर पर पहुंचा दिया है क्योंकि मौके से भेजी गई रिपोर्ट तो किसी छोटे बड़े सब एडिटर की आंखों से होकर तक नहीं जाती।
बदलाव की तुरंत जरूरत है : दृष्टिकोण में और संवेदनशीलता में। नेताओं के भाषणों और बयानों की लम्बाई कम हो और कलम भी और माइक्रोफोन भी वहां हो, जहां आम आदमी का दर्द छिपा हो, अत्याचार हो, अन्याय हो, उत्पीड़न हो और वह कथ्य हो जो सरकार के बहरे कानों को गुंजा देने की क्षमता रखता हो।
पहली जरूरत आज इस बात की है कि पत्रकारों के प्रशिक्षण को ओर बहुमुखी बनाया जाय और यह एक निरंतर प्रक्रिया बनाई जाय। हिन्दी की वर्तनी और शब्दकोष को ज्यादा मजबूत बनाया जाय और उसमें संस्कृत व उर्दू के शब्दों का सहज उपयोग हो। संपादन कर्मियों पर वरिष्ठों का ज्यादा संपादकीय नियंत्रण हो, समाचारों के विष्लेशण और फाॅलो-अप पर ज्यादा ध्यान हो। इसकी जरूरत अंग्रेजी से ज्यादा हिन्दी की पत्रकारिता को है आज!
और अंत में, लोग पूछते हैं कि एक अखबार के पत्रकार को कैसा होना चाहिए?
मेरा जवाब होता है कि उन्हें बड़े बड़ों की नजर में सायं वंदनीय और प्रातः निंदनीय
लेकिन आम पाठकों की दृष्टि में सुबह सबेरे सराहनीय होना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)