भारतीय समाज को भारतीय नजरिये से समझने की एक कोशिश
भाग-5
सन् 50 तक तो अंग्रेजों को दोष दिया जाना शायद कुछ जायज होता। उसमे भी इस प्रश्न का उत्तर नही था कि 30 हजार अंग्रेज कैसे करोड़ों के देश पर हावी हो सके। गहरे आत्मनिरीक्षण कर उसमे से सीखने की जरुरत है देशज सोच के समर्थकों को।
मैक्सवेबर, मैकाले आदि को कसूरवार सन् 50 तक माना जाय यह तो समझ मे आ सकता है। पर सन् 50 के बाद हम उन बहानों के पीछे अपनी जिम्मेदारी से भागें यह उचित नही। यह आत्म विश्वास की कमी का परिचायक है।
50 के दशक मे एक प्रभावी विचार था कि जो देश द्वितीय विश्व युद्ध मे विजयी हैं वे विकसित है। वे अपना पुनर्निर्माण कर रहे हैं। जो पिछड़े गरीब देश है उन्हें चाहिये कि विकसित देशों का अनुकरण करें। उन जैसा बने तो वे भी विकसित हो जायेंगे।
इसके लिये उन्हें अपने अतीत को छोड़ना होगा। अतीत के प्रति गौरव के भाव का तो सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये। अतीत तो बोझ है, उसे उतार देना चाहिये। अतीत मे कुछ भी गर्व करने लायक नही हैं। पश्चिमी देशों के जैसा बनने की कोशिश करनी चाहिये। हमे समझाया गया कि आपके पास अपना कुछ अच्छा नही है। गलिच्छ है। उससे मुक्त होना ही श्रेयस्कर है।
यह बात अलग है कि 2012 आते-आते संयुक्त राष्ट्र संघ ने रवैया बदल लिया। सबका विचार था कि सारे देशों के प्रगति का एक समान रोडमैप नही हो सकता। सबके लिये अलग-अलग रास्ता होगा। पर स.रा.संघ ने तब तक के अपने पढाये हुए नुस्खों से हुए नुकसान की किसी तरह की जिम्मेदारी नही ली।
भारत मे कृषि, जमीन, जल, जंगल, जानवर, देशज ज्ञान-परंपरा, शिक्षा-संस्कार व्यवस्था, परिवार और ज्ञाति परंपरा आदि सभी की तीव्र उपेक्षा हुई। तिरस्कृत कर पश्चिमी ठंढे मुल्कों की व्यवस्था को प्रगति के नाम पर भारत जैसे गरम मुल्क पर हर तरह से थोपने की कोशिश हुई। दूसरी और तीसरी धारा के लोगों ने पहली धारा को कुचलने का आनंद लेते हुए आत्म विस्मृति की ओर देश की तासीर के खिलाफ बढाया। भीमकायपन को व्यामोह ज्यादा चल नही पाया। हिन्दी चीनी भाई-भाई का भंडा 1962 मे फूट गया;। छह सम्देशो के नेताओं के द्वारा गुट बनाकर गुटनिरपेक्ष देशों की ताकत बनने की मुहिम सिरे नही चढ़ी। क्योंकि ये सभी अपने देश को उस कदर बलशाली और सुरक्षित नही बना सके थे।
भारत मे कृषि मे पशुशक्ति को हटाकर यांत्रिकशक्ति और रसायनी खेती मे बदला गया। ग्रीन रिवोल्युशन को मात्र लेवी लेने की व्यवस्था के लिये गेहूं क्रान्ति बना दिया गया। ट्रेक्टर, मशीनी, रसायनी युग ने खेती का और उससे ज्यादा किसान परिवारों का नुकसान किया। अब वर्ग पर वर्ण ने भी असर दिखाना शुरू किया। उसी गति से विषमता बढ़ी। भारत मे यह अनायास ही नही था कि आर्थिक दृष्टि से सब से कमजोर तबका सामाजिक दृष्टि से भी सबसे नीची श्रेणी मे था।
व्यावहारिक रूप से डॉ. लोहिया का कहना ठीक था कि भारत मे वर्ग संघर्ष का स्वरूप है वर्ण संघर्ष। उनका आग्रह बुलेट नहीं बैलट पर था।
गलत कृषि एवं कारीगरी की नीति का परिणाम था कि अवर्षा के कारण 65-67 तक का अकाल पड़ा। राजनैतिक उथल-पुथल बढ़ी। सामाजिक-आर्थिक विषमता मे वृद्धि हुई। साथ ही औपनिवेशिक काल की शिक्षा मे बदल नही हुआ। उससे उलट शिक्षा ज्ञानार्जन एवं समग्र व्यक्ति विकास की जगह रट्टू पद्धति और नंबर जुगाड़ की व्यवस्था सी बनने लगी।