बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने न्यूयार्क में रोहिंग्याओ पर दिया बड़ा बयान:
नई दिल्ली ( विवेक ओझा) : बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने रोहिंग्या लोगों पर बड़ा बयान दिया है। उन्होंने ये बयान न्यूयार्क में दिया है। मोहम्मद यूनुस इस समय न्यूयार्क की यात्रा पर हैं जहां उन्होंने यह बयान दिया है। उन्होंने कहा है कि रोहिंग्याओं को बांग्लादेश से वापस भेजना ही संकट का एकमात्र स्थाई समाधान है। रोहिंग्या संकट पर न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र के उच्च स्तरीय कार्यक्रम के दौरान मोहम्मद यूनुस ने म्यांमार से विस्थापित 12 लाख से अधिक रोहिंग्याओ के बांग्लादेश में होने के चलते आने वाली मुश्किलों का जिक्र किया। उनका मानना है कि बांग्लादेश में सामाजिक आर्थिक पर्यावरणीय व्यवस्था पर रोहिंग्याओ की उपस्थिति का असर पड़ा है।
कौन हैं रोहिंग्या समुदाय के लोग :
रोहिंग्या मुख्य रूप से एक मुस्लिम नृजातीय समुदाय है जो अधिकतर पश्चिमी म्यांमार के रखाइन प्रांत में रहते है। इस प्रांत की राजधानी सितवे है जहां भारत ने विशेष आर्थिक क्षेत्र बना रखा है । ये रोहिंग्या वहां पर आमतौर पर बोली जाने वाली बर्मीज भाषा की जगह बंगाली भाषा की एक बोली ( डाइलेक्ट) बोलते हैं । यद्यपि ये रोहिंग्या म्यांमार में सदियों से रह रहे हैं लेकिन म्यांमार का मानना है कि ये वो लोग हैं जो म्यांमार में वहां के उपनिवेशीय शासन के दौरान प्रवास कर आए थे । इसलिए म्यांमार सरकार ने रोहिंग्या मुसलमान लोगों को अभी तक पूर्ण नागरिकता का दर्जा नहीं दिया है । 1982 का बर्मा नागरिकता कानून कहता है कि एक नृजातीय अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में एक रोहिंग्या म्यांमार की नागरिकता पाने योग्य तभी होगा जब महिला या पुरुष रोहिंग्या इस बात का सबूत दे कि उसके पूर्वजों ने म्यांमार में वर्ष 1823 के पहले निवास किया था, अन्यथा उन्हें निवासी विदेशी ( रेजिडेंट फॉरेनर) या फिर सहवर्ती नागरिक यानि एसोसिएट सिटीजन माना जाएगा भले ही उनके अभिभावक में से कोई एक म्यांमार के नागरिक हों ।चूंकि रोहिंग्या मुसलमानों को नागरिकता का दर्जा नहीं मिला है इसलिए उन्हें वहां बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा गया है । वो म्यांमार की सिविल सेवा के भी अंग नहीं बन सकते , वे भाषाई शोषण के शिकार हैं ।
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने जून , 2019 में अपनी रिपोर्ट में बताया है कि म्यांमार के सैनिकों द्वारा रोहिंग्या महिलाओं का पाशविक बलात्कार किया गया है , वरिष्ठ नागरिकों और बच्चों तक को सैन्य बलों ने नहीं बख्शा है । रखाइन प्रांत में उनके आवाजाही पर भी पाबंदियां लगाई गई हैं । आज रोहिंग्या मुद्दे पर म्यांमार , बांग्लादेश और भारत आमने सामने क्यों हैं इसे जानने के लिए रोहिंग्या अधिवास का एक संक्षिप्त विवरण जरूरी है । आठवीं शताब्दी में रोहिंग्या एक स्वतंत्र साम्राज्य अराकान में रहते थे , जिसे ही आज रखाइन कहा जाता है । नवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच रोहिंग्या समुदाय अरब व्यापारियों के जरिए इस्लाम के संपर्क में आया और अराकान और बंगाल के बीच मजबूत संबंध विकसित हुए ।
1784 में बर्मा यानि आधुनिक म्यांमार के राजा ने स्वतंत्र अराकान पर कब्जा कर लिया और हजारों शरणार्थी जिन्हें आज रोहिंग्या कहते हैं बंगाल भाग गए । 1790 में हिरम कॉक्स नामक ब्रिटिश डिप्लोमैट को इन शरणार्थियों के मदद के लिए भेजा जिसने बांग्लादेश में कॉक्स बाजार शहर का निर्माण किया। जहां आज भी अच्छी खासी मात्रा में रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी रहते हैं ।
कालांतर में ब्रिटेन ने बर्मा पर कब्जा कर लिया और उसे म्यांमार के रूप में ब्रिटिश भारत का प्रांत बनाया । बर्मा से श्रमिकों ने ब्रिटिश भारत के कई भागों में अवसंरचना परियोजनाओं में काम करने वाले श्रमिकों के रूप में प्रवास किया , और भारत से भी रोहिंग्या लोग जुड़ गए । 1942 में जापान ने बर्मा पर आक्रमण किया और वहां से अंग्रेजों को निकाल दिया । जैसे ही अंग्रेजों ने जवाबी कार्रवाई की , बर्मा के राष्ट्रवादियों ने मुस्लिम समुदायों पर हमला कर दिया , क्यूंकि उन्हें लगता था कि रोहिंग्या मुस्लिम को ब्रिटिश औनिवेशिक शासन से लाभ मिला है । 1945 में ब्रिटेन ने आंग सान के नेतृत्व वाले बर्मा के राष्ट्रवादियों और रोहिंग्या लड़ाकों के साथ मिलकर बर्मा को जापानी प्रभुत्व से मुक्त करा दिया । इसके उपरांत रोहिंग्या लोगों ने ऐसा महसूस किया कि ब्रिटेन ने उन्हें धोखा दिया है क्यूंकि ब्रिटेन ने अराकान के स्वायत्तता के वायदे को पूरा नहीं किया ।
1948 में बर्मा की नई सरकार और रोहिंग्या लोगों के बीच तनाव बढ़ गया । इसमें से बहुत से रोहिंग्या चाहते थे कि अराकान मुस्लिम बहुमत वाले पाकिस्तान में मिल जाए । बर्मा सरकार ने इस पर रोहिंग्या लोगों को देश निकाला दे दिया और सिविल सैनिक के रूप में नियुक्त रोहिंग्या लोगों को बर्खास्त कर दिया । 1950 के दशक में रोहिंग्या लोगों ने मुजाहिद नाम वाले सशस्त्र समूह के जरिए बर्मा सरकार का प्रतिकार करना शुरू किया । 1962 में अंततः जनरल नी विन सत्ता में आए और रोहिंग्या लोगों के खिलाफ कठोर नीति अपनाई गई । म्यांमार में अब मिलिट्री जूंटा का शासन हो गया । 1977 में इस सैन्य सरकार ने रोहिंग्या की जनसंख्या और क्षेत्रों का पता लगाने के लिए ऑपरेशन नगामीन अथवा ड्रैगन किंग शुरू किया । ऐसे में 1977 में दो लाख रोहिंग्या लोगों को बांग्लादेश भागना पड़ा।
1978 में बांग्लादेश और बर्मा के बीच संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में रोहिंग्या लोगों के प्रत्यावर्तन को लेकर यानि देश वापसी को लेकर समझौता हुआ और रोहिंग्या बर्मा वापस पहुंचे। फिर उन्हें वहां शोषण, दमन , हत्या , बलात्कार का सामना करना पड़ा । अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी के जरिए रोहिंग्या म्यांमार सेना के दमन का बदला ले रहे हैं । 1989 में बर्मा के सेना ने बर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया । 1991 में 2.5 लाख रोहिंग्या लोगों को म्यांमार छोड़ कर भागना पड़ा । म्यांमार की सेना ने कहा कि वह रखाईन क्षेत्र में व्यवस्था स्थापित कर रही थी । 1992 से 1997 के बीच लगभग 2.3 लाख रोहिंग्या अराकान यानि रखाईन क्षेत्र में बांग्लादेश के साथ एक और प्रत्यावर्तन समझौते के जरिए पहुंचे । यहां आने के बाद इनका रखाईन के बौद्धों से संघर्ष शुरू हो गया चूंकि ये मुसलमान थे और बौद्धों के अधिकारों के सामने मुसीबत के रूप में थे । 2012 में दोनों के बीच खूनी झड़पें हुईं जिसमें 100 लोग मारे गए जिसमें अधिकांश रोहिंग्या मुसलमान थे । 10 हजार लोगों को फिर बांग्लादेश का रुख करना पड़ा। 1.5 लाख को रखाईन के कैंपों में रहने के लिए बाध्य कर दिया गया ।
2016 में रोहिंग्या मुस्लिम समूह हाराकाह अल यकीन ने म्यांमार में बॉर्डर गार्ड पोस्ट्स पर हमला कर नौ सैनिकों को मार दिया । जवाब में म्यांमार की सेना ने दमन शुरू किया और फिर 25 हजार से अधिक रोहिंग्या भीषण अत्याचारों का आरोप लगाते हुए बांग्लादेश में जाने को बाध्य हुए ।वर्तमान में बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में 9 लाख से अधिक रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं । इसमें से 7.5 लाख ऐसे रोहिंग्या हैं जो म्यांमार में 2017 में भीषण हिंसा के बाद से कॉक्स बाजार में आए हैं । मई , 2019 में यूनाइटेड नेशंस हाई कमीशन ऑन रिफ्यूजी ने रोहिंग्या शरणार्थियों को आइडेंटिटी कार्ड देने की प्रक्रिया शुरू की और पहली बार 2.5 से अधिक रोहिंग्या लोगों को पहचान पत्र दिए गए हैं ।
पंजीकरण की यह प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में जून , 2018 से शुरू हुई है ताकि रोहिंग्या शरणार्थियों के अधिकारों की रक्षा हो सके और जब वे निकट भविष्य में म्यांमार स्वैच्छिक स्तर पर जाना चाहें तो कोई उन्हें आतंकी , ड्रग लॉर्ड या किसी अन्य आरोप को लगा कर आने देने के मार्ग में रुकावट ना पैदा कर सके । यूएनएचसीआर और बांग्लादेश सरकार के तत्वावधान में बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में रहने वाले लगभग 60 हजार घरों के 2.7 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों का पंजीकरण किया जा चुका है । यूएनएचसीआर के बैनर तले बांग्लादेश में आज प्रतिदिन 6 अलग अलग स्थानों पर 4000 रोहिंग्या शरणार्थियों का पंजीकरण कर उन्हें पहचान पत्र देने का काम किया जा रहा है । 2019 के अंत तक इस बड़े मकसद को पूरा करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई थी लेकिन कोविड महामारी के आने के बारे सब कुछ नकारात्मक रूप से प्रभावित हो गया था।