ज्ञानेंद्र शर्मादस्तक-विशेषसंपादकीयस्तम्भ

डबल ‘पी’ का खतरनाक गठजोड़

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

‘पी’ और ‘पी’ यानी पुलिस और पॉलिटिशियन के गठजोड़ ने उत्तर प्रदेश में न जाने कितने गुल खिलाए हैं और हर बार लोकतंत्र के ये दोनों मजबूत धड़े बचकर निकल गए और अपनी जड़ें और भी मजबूत कर लीं।

भारतीय जनता पार्टी के दो विधायकों ने इस आरोप का खण्डन किया है कि कानपुर के दुर्दान्त अपराधी विकास दुबे से उनके अंतरंग सम्बंध रहे हैं। वैसे कोई भी विधायक हो या नेता हो, वो ऐसे ही खण्डन जारी करेगा, अपनी सफाई देगा और अपने को दूध का धुला बताएगा।

सो भले ही विकास दुबे एक वीडियो में अपने सम्बंधों का साफ-साफ खुलासा कर रहा हो, उसको देखने के बाद भी बिठूर और बिल्हौर के इन विधायकों को अपना स्पष्टीकरण देने में जरा भी हिचक नहीं हुई।

विकास दुबे जैसे अपराधियों के पुलिस और नेताओं से गहन सम्बंध कोई रहस्योद्घाटन नहीं है। वैसे भी किसी राह चलते व्यक्ति से पूछ लें तो वह यही कहेगा, विकास दुबे जो कह रहा है, यह सही ही होगा, इसमें नई बात क्या है-यह तो आम बात है और यह आम बात आम और खास सभी जानते हैं- खुद नेताओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक।

‘पी’ और ‘पी’ यानी पुलिस और पॉलिटिशियन के गठजोड़ ने उत्तर प्रदेश में न जाने कितने गुल खिलाए हैं और हर बार लोकतंत्र के ये दोनों मजबूत धड़े बचकर निकल गए और अपनी जड़ें और भी मजबूत कर लीं। पिछले कुछ सालों में फर्क आया है पर इतना भर कि जिन अपराधियां को बात—बात पर राजनीतिक नेताओं की शरण में जाना पड़ता था, वह काफी हद तक बंद हो गया है क्योंकि अब अपराधी खुद ही बड़े नेता बन गए हैं।

पिछली बार हमने इसके कुछ आंकड़े बताए थे जो आज और भी प्रासांगिक हैं। 2014 की तुलना में 2019 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक रिकार्ड वाले निर्वाचित सदस्यों की संख्या 26 प्रतिशत बढ़ गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में 43 प्रतिशत यानी लगभग आधे ऐसे नवनिर्वाचित सांसद चुने गए जिन पर आपराधिक केस दर्ज थे।

29 प्रतिशत ऐसे थे जिन पर गंभीर अपराधों के मुकदमे दर्ज थे। गंभीर मुकदमों में बलात्कार, हत्या, हत्या का प्रयास, महिलाओं के खिलाफ अपराध शामिल थे। इस विश्लेशण में बताया गया 2009 के चुनाव के बाद से अब तक ऐसे सांसदों की संख्या में 109 प्रतिशत यानी दोगुने से भी अधिक की वृद्धि हुई है।

यह गठजोड़ तोड़ने की कई कोशिशें सालों से हो रही हैं लेकिन हालात बद से बदतर ही हुए हैं क्योंकि जिस तंत्र या एक्जीक्यूटिव को यह करना था, वह ऐन वक्त पर दूसरी तरफ मुॅह मोड़़ लेता है और बात सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के बीच भटकती रहती है। आखिर यह करे तो फिर कौन करे कि एक हंटर चले और अपराधी एक किनारे हो जाएं।

आला अफसर जब तक बड़ी कुर्सी पर बैठे रहते हैं, वे खुद नेताओं की पैरवी में लगे रहते हैं। लेकिन जैसे ही वे रिटायर होते हैं, वे एक्सपर्ट बन जाते हैं और बताने लगते हैं कि डबल ‘पी’ का गठजोड़ क्यों तोड़ना जरूरी है और कि यह कैसे टूटेगा। ठीक वैसे ही जैसे कि कोई क्रिकेट खिलाड़ी जिसने कभी कोई सेनचुरी न मारी हो, खेल से सन्यास लेने या रिटायर हो जाने के बाद कमेन्टेटर बाक्स में बैठकर यह बताने लगता है कि आफ स्टॅम्प पर जाती गेंद को सचिन तेंदुलकर को कैसे खेलना चाहिए।

बड़े पुलिस अ​फिसर ने भले ही उॅचे ओहदे पर बैठे किसी टेढ़े राजनीतिक नेता से कभी अपने किसी ईमानदार मातहत की रक्षा न की हो पर वह जैसे ही रिटायर होता है या कुर्सी छोड़ता है, पुलिस तंत्र की खामियॉ गिनाने लगता है, गड़बड़ियॉ बताने लगता है। वह बताने लगता है कि कैसे यह खतरनाक गठजोड़ तोड़ना चाहिए।

बात कई बार सुप्रीम कोर्ट तक गई लेकिन बात बनी नहीं। 17 सितम्बर 1997 को सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस फोर्स को स्वायत्तता दिए जाने की वकालत की और इस बात की कड़ी आलोचना की कि राजनीतिक तंत्र वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तक की बाहें मरोड़ते हुए थोड़े नोटिस पर तबादला कर देता है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने पुलिस की जॉच एजेंसियों को राजनीतिक शिकंजे से मुक्त करने की वकालत करते हुए इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट आए 15 साल हो गए लेकिन स्वायत्तता देने के मामले में फैसला नहीं किया गया।

आज हकीकत यह है कि कोई पुलिस वाला राजनीतिक संरक्षण के बिना अपने पद पर नहीं रह पाता और इसकी उसे कीमत चुकानी पड़ती है। राजनीतिक तंत्र उन्हें अपने इशारे पर नचाता है और वे नाचने को मजबूर होते हैं वरना ट्रांसफर की तलवार तो सिर पर लटकती ही रहती है।

फिर यह बात कम गौर करने लायक नहीं है कि अंगरक्षक प्रणाली के राजनीतिकरण ने पुलिस को नेताओं के कैसे नजदीक ला दिया है। कुछ साल पहले के आंकड़े बताते हैं कि एक एक वी0आई0पी0 की सुरक्षा के लिए जहॉ 3 पुलिस वाले तैनात होते थे, 1173 आम लोगों के लिए एक पुलिस वाला उपलब्ध हो पाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी 2013 को यह तक कह दिया था कि हमारी सुरक्षा में लगे पुलिस वालों को हटा लीजिए और उन्हें आम जनता की सुरक्षा में लगा दीजिए। यह बात कोर्ट ने तब कही जब उसे बताया गया कि दिल्ली में 8049 पुलिस वाले विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा में तैनात हैं जबकि अपराधों को रोकने और अपराधिक मामलों की जॉच करने के लिए केवल 3448 पुलिस वाले ही उपलब्ध हैं।

जय हिंद सर

Cartoon of the Week by Mahendra Bhawsar

और अंत में, पुलिस विभाग की भरती चल रही थी उसमें मंत्री जी का साला भी भाग ले रहा था स्वाभाविक ही था, सब उसके लिए प्रयास कर रहे थे मंत्रीजी के साले ने 1600 मीटर, रेस 5.30 मिनिट में पूरी कर ली, उपनिरीक्षक ने लिस्ट बनाते समय 5 मिनट कर दिया, जब लिस्ट आफिस में पहुॅची तो, समय 4.5 मिनिट कर दिया गया। लिस्ट डीएसपी, एसपी और डीआईजी से होती हुई आईजी के पास पहुॅची तो समय हो गया 1.30 मिनट। आईजी ने देखा तो चौंक गए और पूछा ये कौन है, पीए बोला मंत्री का साला है सर आईजी बोले वो तो ठीक है लेकिन अबे सालो विश्व रिकार्ड का ध्यान तो रखते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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