दारा शिकोह अधुना एक दीप स्तंभ है !
स्तंभ: तनिक कल्पना कीजिये 363 वर्ष पूर्व उदार इस्लाम यदि महजबी उग्रवाद को हरा देता, समावेशी दारा शिकोह शाहजहां के बाद मुगल बादशाह बन जाता तो? आज के भूगोल का पुराना इतिहास ही भिन्न होता। दरियादिल मुगल वली अहद मुहम्मद दारा शिकोह की सनातनी आस्था और जिज्ञासा एक बहुलतावादी भारत की बुनियाद बनाती। मगर प्रारब्ध बड़ा क्रूर निकला। होनहार ही ऐसा था।
आज के इस्लामी तनाव के परिवेश में दारा शिकोह बहुत याद आते हैं। उस मध्यकालीन दौर में यह मुगल युवराज वस्तुत: सेक्युलर था। सर्वधर्म अनुयायी था। मगर विषाद होता है कि आजाद भारत में जालिम औरंगजेब के नाम वाले रोड और लेन (28 अगस्त 2015) के दिन, 65—वर्ष देरी से, बदले गये। मगर दारा शिकोह के नाम पर प्रथम बार नयी दिल्ली में (फरवरी 2017) किसी मार्ग का नामकरण हुआ। वह ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड जेम्स डलहाउजी रोड था। यह उस व्यक्ति के नाम पर जिसने भारतीय रियासतों के शासकों के राज को हड़पने हेतु कानून बनाया था कि जो भी देशी राजा या रानी निसंतान मर जाते है उनकी रियासत साम्राज्य में विलय कर दी जायेगी। नतीजन झांसी का राज कब्जिया लिया गया था।
इस मुगल युवराज दारा पर लेखिका नेहा दाभाडे के 27 फरवरी 2017 पर प्रकाशित लेख का एक उद्धहरण पेश है। उसने कहा कि दारा शिकोह की तुलना अक्सर उनके परदादा अकबर से की जाती है। अकबर ने भी अन्य धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया परंतु दोनों के बीच महत्वपूर्ण अंतर थे। अकबर की सहिष्णुता की नीति और विभिन्न धर्मों के विद्वानों के साथ उनके विचार विनिमय का लक्ष्य राजनीतिक था। वे भारत, जहां की अधिकांश आबादी हिन्दू थी, में अपने साम्राज्य को मजबूत बनाना चाहते थे। परन्तु दारा शिकोह को सत्ता और दुनियावी चीजों से जरा भी मोह नहीं था। उन्होंने सत्य की तलाश में विभिन्न धर्मों का अध्ययन किया। वे पूरी निष्ठा से यह मानते थे कि किसी धर्म का सत्य पर एकाधिकार नहीं है। सत्य के कई पक्ष और आयाम है और सत्य हर धर्म में मौजूद है।”
उनकी अध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत महान सूफी संतों के संपर्क में आने से हुयी। वे मियां और मुल्लाशाह बदाक्षी के बहुत नजदीक थे। उन्होंने सूफीवाद का अध्ययन किया और कादिरी सूफी सिलसिला के सदस्य बने। वे मुल्लाओं के कटु विरोधी थे क्योंकि मुल्ला अक्सर इस्लाम की गलत व्याख्या कर धर्मान्धता और असहिष्णुता को बढ़ावा देते थे। सूफीवाद के उनके गहन अध्ययन से दारा शिकोह को यह अहसास हुआ कि ईश्वर के साथ एकाकार होने के लिए न तो हमें मुल्लाओं की जरुरत है और न ही कर्मकांडों की। जरुरत है तो केवल ईश्वर के प्रति प्रेम और उसके आगे निस्वार्थ भाव से समर्पण की।
यहां उल्लेख हो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का, जो आगरा न जाकर दारा की मजार पर ही क्यों गये थे? ओबामा युगल ने यह भी जता दिया कि वे पर्यटक नहीं हैं, हालांकि हर राज्य अतिथि द्वारा मलिका मुमताज महल का मकबरा देखना एक मनोरंजक रिवायत बन गई है। उस लीक से हटकर बराक ओबामा ने शाहजहां की इमारत के बजाय उनके परदादा की समाधि देखकर खण्डित उपमहाद्वीप के समाज को नये संकेत दिए हैं। लालकिला के प्राचीर पर ओबामा जा सकते थे। कुतुब मीनार की ऊंची, पुरानी चोटी को देख सकते थे। तो हुमायूं का मकबरा ही क्यों? गत दो दशकों तक जीर्णशीर्ण पड़े और विश्व धरोहर (1993) बनने के बाद से संवारे गये इस मकबरे को अपनी यात्रासूची में शामिल कर ओबामा ने परोक्ष पैगाम दिए हैं। दारा शिकोह यही दफन हैं
ओबामा को बताया गया कि मध्यकालीन शासकों की मौत अधिकतर समरभूमि में अथवा बीमारी से होती रही। मगर हुमायूं का असामयिक निधन पुस्तकालय भवन की सीढ़ी पर से उनके फिसलने के कारण हुआ था। हुमायूं संस्कृति के संरक्षक थे, इल्म में रूचि रखते थे। उसी परम्परा में था उसका पडपोता दारा। वहां मकबरे में अतिथि रजिस्टर पर ओबामा ने लिखा भी कि : ‘‘साम्राज्यों के पतन अभ्युदय के दौर में भारत विश्व में नई ऊँचाइयां छूता रहा।’’ बराक और मिशेल ओबामा ने हुमायूं के मजार के निकट वाली कब्र गौर से देखी। वह उनके प्रपौत्र युवराज दारा शिकोह की है जो इतिहास का एक अत्यन्त त्रासद, कारुणिक पुरुष रहा। पुरातत्व अधिकारी ने राष्ट्रपति दम्पति को बताया कि दारा का सिरकटा धड़ यहां दफन है। दारा को पिता शाहजहां अपना उत्तराधिकारी नामित कर चुके थे, पर कट्टरवाद के सूरमां औरंगजेब ने बाप को कैद कर लिया और बड़े भाई दारा को काफिर करार देकर चान्दनी चौक में हाथी से कुचलवा दिया था। दारा की कब्र देखकर और उनकी गाथा सुनकर बराक ओबामा के जेहन में वही विचार कौंधा होगा जो आम भारतीय आज भी तीन सदियों से सोचता है। यदि भारत का बादशाह बजाय कट्टरवादी औरंगजेब के समरसतावादी दारा शिकोह हो जाता तो शायद मजहबी आतंकवाद की त्रासदी से हमारा उपनिवेश बच जाता। नामित बादशाह होने से कही ज्यादा दारा शिकोह एक सूफी फकीर थे। संस्कृत के ज्ञाता थे, इस्लाम और वैदिक धर्म के बीच सेतु थे। वे जड़ दृष्टि के खिलाफ थे जो उनके छोटे भाई औरंगजेब की खास पहचान थी। दारा उसे सिर्फ नमाजी मानते थे जो इस्लाम के केवल बाह्य रूप को ही जानता था। एक मायने में दारा शिकोह भी मुगल युग के बराक ओबामा जैसे ही थे। श्वेत अमरीका के उदारवादियों ने ओबामा को अपना लिया, मगर मध्यकालीन कट्टरवादियों ने दारा को मौत दिया।
आज की काशी पर मुगलराज की जजिया के अलावा यात्रीकर भी लगता था। दारा शिकोह ने निरस्त कराया, जकात फिर औरंगजेब ने थोप दिया। लेखक बच्चन सिंह (दैनिक गांडीव, 30 मई 2005) के लेख में है कि दारा शिकोह का बनारस से बहुत लगाव था। वह बनारस के पंडितों का बहुत सम्मान करता था और उनसे हिन्दू धर्मग्रंथों के बारे में जानकारी प्राप्त करता था। दारा ने वट भूमिक नामक एक संस्कृत ग्रंथ का अनुवाद भी किया था। एक जगह दारा कहते हैं कि उसने सूफी मत ग्रहण किया था। जब हिन्दू फकीरों से उसे पता चला कि दोनों मतों केवल शाब्दिक अंतर है, उसने 1658 में मजमून उल—बहरेन लिखा जिससे दोनों धर्मों में समंवय हो सके।
आजकल मुगलिया नाम बदलना रुचिकर हो गया है। सरसरी तौर पर यह कोई विवादास्पद नहीं होना चाहिए। किन्तु योगी आदित्यनाथ जी का तर्क गौरतलब है कि मुग़ल शासक भारत के हीरो कदापि नहीं कहे जा सकते। सही भी है। खासकर, आलमगीर औरंगजेब के सन्दर्भ में| सिवाय संहार, हत्या, तोड़फोड़, जजिया, धर्मांतरण, ईदगाह (मथुरा) और ज्ञानवापी (काशी) बनाने के इस छठे मुगल बादशाह ने हिन्दुस्तान को दिया ही क्या ? हाँ, अपने तीन सगे भाइयों की लाशें जरूर दीं। अब दिल्ली में औरंगजेब मार्ग का नाम बदलकर एपीजे अब्दुल कलाम मार्ग रखकर भाजपा शासन ने एक आदर्श भारतभक्त मुस्लिम वैज्ञानिक का सम्मान तो किया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)