दस्तक-विशेषराष्ट्रीय

चीख, कुतर्क, झूठ और खिंचे हुए पाले

नवीन जोशी

जब फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल साइटें नहीं थीं क्या तब भी सामयिक और ज्वलंत मुद्दों पर अपनी भिन्न-भिन्न राय रखने वाले लोग एक-दूसरे पर इतनी तीखी और फूहड़ टिप्पणियां, गाली-गलौज करते थे, जितनी/जैसी इन दिनों कर रहे हैं? विवाद अप्रिय स्थिति तक पहुंच जाए तो किसी को ‘ब्लॉक’ करते थे और कैसे? फेसबुक और ट्विटर पर पिछले कुछ वर्षों से जैसी मार-काट मची है, उसे देखकर हैरान होते हुए मैं सोचता हूं। परस्पर लम्बा पत्र-व्यवहार, अखबारों के चिट्ठी-पत्री स्तम्भ में कुछ पाठकों में मत-मतांतर का सिलसिला, चाय-काफी की मेजों पर देर तक चलने वाली बहसें, कभी-कभी गुस्सा और अबोला भी विरोधी विचार वालों के बीच हमेशा होता रहा है। कई शहरों के कॉफी हाउस गरमागरम बहसों के लिए प्रसिद्घ रहे हैं। किसी जमाने में जब लखनऊ कॉफी हाउस खूब गुलजार रहता था, उसकी एक दीवार में यह चेतावनी टंगी हुई थी- अ लाउडेस्ट व्हिस्पर इज बेटर दैन अ लो शाउट यानी बहुत धीरे चीखने से कहीं अच्छा है कि खूब जोर से फुसफुसाया जाए। बहस कीजिए, शोर-शराबा नहीं।
आज फेसबुक में बेहद शोर है। बहुत बदमिजाजी है। वह भयानक शोर हमारे कानों को सुनाई नहीं देता लेकिन हमारे दिल-दिमाग को सुन्न बना रहा है। वहां हर कोई अपनी और दूसरे की वॉल पर चीख रहा है। तर्क और विचार नहीं, सिर्फ चीख-चिल्लाहट और गाली-गलौज है। मैं फेसबुक के अपने मित्रों में अधिकसंख्य के बारे में बता सकता हूं कि मुद्दा कोई भी हो, वे किस पाले में खड़े होंगे और क्या-कैसी राय व्यक्त करेंगे। साफ-साफ पाले खिंचे हुए हैं। यूं भी कह सकते हैं कि दो पालों में बंटे लोगों ने वहां कब्जा कर लिया है। मुद्दा कोई भी हो, एक-दूसरे पर हमले किये जा रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तक इतना तीखा विभाजन नहीं था। मुद्दे को समझने की चेष्टा की जाती थी। तब राय बनायी जाती थी। विपरीत मत से आश्वस्त होने पर कुछ लोग राय बदल भी लेते थे या शालीनता से स्वीकार कर लेते थे कि हमारी राय अलग ही रहेगी। इससे रिश्तों पर आंच नहीं आती थी। आज सोशल साइटों ने पुराने और अच्छे रिश्ते तक बिगाड़ दिये हैं।
पिछले डेढ़-दो दशक में धीरे-धीरे और 2012 के आसपास से समाज में तीव्र वैचारिक ध्रुवीकरण हुआ है। इसी दौरान सोशल साइट भी विकसित और लोकप्रिय हुईं। अब हर-एक के पास एक मंच है, हाथ में एक माइक है और वह चीखे जा रहा है। आरएसएस, भाजपा और उसके संगठनों ने बहुत चालाकी से ब्रेन-वॉशिंग की है। उग्र हिंदू-राष्ट्रवाद के प्रचार-प्रसार और उसके सत्तारोहण ने उस बहुत बड़ी आबादी को भी आक्रामक बना दिया है जो बहुत उदार एवं सहिष्णु था। जनाधार छीझने से किनारे होते गये वाम-मार्गी भी अपनी सारी खीझ वहीं निकाल रहे हैं और उसी अंदाज में। कांग्रेस, समाजवादी और क्षेत्रीय राजनैतिक दलों की सत्ता की अवसरवादी राजनीति ने इसे पनपने देने के बढ़िया जमीन तैयार की। आज वे विलाप की मुद्रा में भले हों, उन्हें कैसे श्रेय-वंचित किया जाए!
एक बड़ा पाला भाजपा, बल्कि नरेंद्र मोदी समर्थकों का है। वे हर बात में ‘वामपंथियों’ और ‘सेकुलरों’ को पानी पी-पी के गरिया रहे हैं। दूसरी तरफ से ‘भक्तों’ पर ताबड़तोड़ हमले हो रहे हैं। ‘सेकुलर’ और ‘भक्त’ यहां सबसे प्रचलित और सबसे बुरी गालियां हैं। कोई भी पोस्ट, कितनी ही विचारणीय और मौजूं क्यों न हो, पूरी पढ़ी नहीं जाती, बात समझी नहीं जाती। आपको किसी पाले में धकेल कर हमला पहले शुरू हो जाता है। कई बार तो यह देख कर ही ‘गोलाबारी’ होने लगती है कि पोस्ट ‘भक्त’ की है या ‘सेकुलर’ की। मारो-मारो का शोर उठता है और लोग पिल पड़ते हैं।
पिछले वर्ष असहिष्णुता की बहस में यही हुआ। लेखकों, फिल्मकारों, इतिहासकारों, विज्ञानियों, समाज-विज्ञानियों, आदि-आदि की पुरस्कार वापसी के मुद्दे को उसके मूल में समझने की बजाय, उसका खूब मखौल बनाया गया। नाम ही पड़ गया ‘पुरस्कार वापसी गैंग’। आप ‘भक्त’ हैं या ‘गैंग’ में शामिल हैं। गोहत्या के नाम पर निर्दोष लोगों की हत्या का विरोध हो अथवा सर्जिकल स्ट्राइक, कश्मीर में सेना की भूमिका, सेनाध्यक्ष के बयान और बिल्कुल हाल का एनडीटीवी मामला, आप सवाल उठाएंगे तो एक पाले में फैंक दिये जाएंगे। शोर-बली और कुतर्क-बली किसी भी बाहुबली से ज्यादा आक्रामक हैं। विमर्श की गुंजाइश नहीं। सवाल पूछना गुनाह। यहां झूठ और अफवाह फैलाने वालों का गिरोह भी बहुत सक्रिय है। कोई ‘इतिहास’ का ‘गोपनीय’ अध्याय खोलकर आपको बतायेगा कि नेहरू परिवार किस मुस्लिम-खानदान की विरासत को ढोते हुए भारत को बर्बाद करने पर तुला है, कि ताजमहल असल में तेजोमहालय है, और ऐसी सूची बहुत लम्बी है। कहीं की फोटो कहीं लगा दी जाएगी, किसी पर किसी की आवाज डब कर दी जाएगी। टेक्नॉलाजी राजनैतिक गिरोहबाजों का खिलौना बन गयी है। जिन सोशल साइटों को हर व्यक्ति का अपना मंच होना था, कहने-सुनने-समझने का अवसर बनना था, हमारे यहां उन पर लट्ठमार पालेबाजों, अफवाह फैलाने और राजनैतिक दुष्प्रचार वालों का कब्जा हो गया है। यह अकारण नहीं कि बहुत सारे संतुलित लोग यह टिप्पणी करते हैं कि यहां विमर्श सम्भव नहीं। गम्भीर, विचारणीय पोस्ट पढ़ी नहीं जाती। ऊल-जलूल पोस्ट सैकड़ों लाइक एवं कमेंट खींचती है। इसलिए लोग ‘मित्र-सूची’ की छंटाई करते हैं। ‘ब्लॉक’ करते हैं, ‘मित्र’ को ‘शत्रु’ बनाते हैं। तो, आज फेसबुक में एक मित्र-सूची है और एक शत्रु-सूची भी बन गयी है।
ई-मेल में अंग्रेजी के बड़े हिज्जे (कैपिटल लेटर) लिखना शोर मचाना और इसीलिए असभ्यता माना जाता है। सोशल साइट्स के लिए जैसे कोई आचार-विचार बना ही नहीं! यहां हर कोई आजाद है किसी विषय पर, किसी से कुछ भी कह देने के लिए। आप किसी से व्यर्थ न उलझना चाहें और मौन धारण कर लें तब भी वह ललकारेगा- ‘डर कर भाग गये?’ चर्चा न हुई, डब्ल्यू-डब्ल्यू-ई का मारक अखाड़ा हो गया! बहुत सारे सीधे-सरल लोग इस बहिया में बहे जा रहे हैं। हमारे देश की विशाल आबादी के पास खूब समय है, बेरोजगारी है, अशिक्षा और नासमझी है। सस्ते इंटरनेट की दुनिया मजेदार तमाशा है। उन्हें झूठ भी सच लग रहा है। वे किसी पाले में घसीट लिये गये हैं, दुष्प्रचार का औजार बना दिये गये हैं, यह वे जान ही नहीं पाते।
यह बहुत खतरनाक बात है। 

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