21वीं सदी में भारत : नाट्य अभिनेताओं पर छा गए निर्देशक
रंगकर्म के बारे में भारतीय दृष्टि कहती है कि दुनिया एक रंगमंच नहीं, बल्कि अभिनेता का रंगकर्म है जो मंच पर प्रकट नहीं होता। इस दृष्टि को साथ लेकर भरत से भारतेंदु तक नाटकों ने एक प्रशस्त यात्रा तय की है। इसकी रोशनी पिछली सदी के आखिरी दिनों तक बांगला और मराठी रंगकर्म में उत्सव की शक्ल लेती गई लेकिन हिंदी में कुछ और ही होता गया। अभिनेताओं की पहचान मिटती गई और नाटकों पर निर्देशक हावी होते गए। रंगमंच की दुनिया में पिछले 20 सालों में क्या बदला। बता रहे हैं मशहूर रंगकर्मी व लेखक निर्देशक गौतम चटर्जी।
रंगमंच जैसी सम्पूर्ण कला का वांग्मय एशियाई पृथ्वी पर न सिर्फ प्राचीनतम है बल्कि इसकी प्रशस्त परम्परा सदा से उत्तरवर्ती रही है। कहानी कुछ इस तरह है कि भरत मुनि से लेकर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र तक और फिर गिरीश घोष और शिशिर भादुड़ी से लेकर शम्भू मित्र, उत्पल दत्त और बादल सरकार तक भारतीय रंगकर्म लगातार आधुनिक और समृद्ध होता गया था। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक तो हिन्दी रंगकर्म का उत्साहित वैभव देखते ही बनता था, कि एक शाम हिन्दी रंगकर्म में ही एक विकृति आयी, कहानी का रंगमंच। यह मराठी या बांग्ला रंगमंच पर नहीं आयी बल्कि हिन्दी में आयी। यह किसी ग्रन्थि की क्षतिपूर्ति थी। पढ़ते हुए आप असहज हो सकते हैं कि कहानी का रंगमंच एक प्रयोग हो सकता है, विकृति कैसे है, तो जनाब आपको आश्चर्य होगा यह जानकर भी कि अभी तक हिन्दी में प्रयोग करते आ रहे रंगकर्मियों को भी यह प्रयोग विकृति के रूप में नहीं दिखा है। अभी दिख जायेगा आपको। भरत से भारतेन्दु तक और रबीन्द्रनाथ से बादल सरकार तक के रंगकर्मी इस स्पष्ट सहजता के साथ पल्लवित हुए कि नाटक के लिए नाट्यालेख प्रथम शर्त है। रंगकर्म का प्रथम परिचय ही है नाट्यालेख। नाटक यानी दृश्य काव्य पहले कालिदास या भास ने रचा फिर हमने उसे मंचस्थ किया। नाट्यवेद में भरत मुनि ने भी हमें यही अनुशीलन सिखाया है। यह सोचना ही असहज था, और होना भी चाहिए कि बिना नाटक यानी नाट्यालेख यानी दृश्यकाव्य के भी रंगकर्म हो सकता है। रबीन्द्रनाथ ने नाटक लिखा राजा या रक्तकरबी और शम्भू मित्र और तृप्ति मित्र ने इसे मंचस्थ किया। बादल सरकार ने नाटक लिखा पगला घोड़ा या बाकी इतिहास और आज भी यह नाटक खेले जा रहे हैं। प्रेमचन्द ने तीन नाटक लिखे और उन्हें लगा वे कहानी और उपन्यास तो लिख सकते हैं लेकिन नाटक लिखना, यह कला उनसे सध नहीं रही थी। वे चाहते तो नाटक लिखते रहते। सब स्वीकार्य होता चला जाता। वे चाहते तो अपनी किसी कहानी को ही नाट्यरूप दे देते लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया, सोचा भी नहीं, क्यों? क्योंकि उन्हें यह स्पष्ट था कि कहानी लिखना है तो कहानी लिखेंगे और नाटक लिखना है तो नाटक। एक बार लिखी गयी कहानी या उपन्यास को नाट्य रूपान्तरित नहीं करेंगे। आप अभी भी सोच रहे होंगे कि आखिर किसी कहानी या उपन्यास के नाट्य रूपान्तरण में हर्ज क्या है! कहानी के रंगमंच में परेशानी क्यों या क्यों है मुझे!
नहीं लिखे जा रहे नए नाटक
जयशंकर प्रसाद ने नाटक लिखना आरम्भ किया था ‘अग्निमित्र’। प्रेमचन्द ने उन्हें सुझाया कि इस विषय को उपन्यास में ढालें, कहानी या नाटक में नहीं। प्रसाद ने उपन्यास ‘इरावती’ आरम्भ कर दिया। पूरा होने से पहले उनका देहान्त हो गया। उपन्यास अधूरा रह गया। अब ‘कादम्बरी’ तो था नहीं कि इसे यदि बाणभट्ट पूरा नहीं कर सके तो इस प्रथम गद्य यानी उपन्यास को उनके बेटे ने पूरा कर दिया। ‘इरावती’ को उनके परिवार में किसी ने पूरा नहीं किया। कोई बात नहीं। लेकिन प्रसाद ने इतने नाटक लिखे, उन्हें कभी यह नहीं सूझा कि किसी उपन्यास या कहानी को नाट्यरूप दिया जाय। ऐसा प्रसाद या प्रेमचन्द को इसलिए नहीं सूझा क्योंकि नाटक में तो कहानी होती ही है, तो फिर किसी लिखे नाटक को कहानी या लिखी कहानी को नाटक में क्यों बदला जाय भला! लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ऐसा हुआ। सुप्रवृत्ति की फलश्रुति होती है और विकृति की आसक्ति, जन्मता है अभिशाप।
इक्कीसवीं सदी के पिछले दो दशकों में हिन्दी रंगकर्म के पास सब कुछ है सिवाय नाटक के। जब कहानी को नाट्य रूपान्तरित करने की विकृति पूरे देश में फैल गयी तो न नये नाटककार आये न नाटक। अभी भी नाटक के लिए युवा रंगकर्मियों को देखना पड़ता है मोहन राकेश को, सुरेन्द्र वर्मा को, धर्मवीर भारती को, रमेश बख्शी को, उपेन्द्रनाथ अश्क को, मुद्राराक्षस को, स्वदेश दीपक को या फिर बादल सरकार, चेखोव, गिरीष कर्नाड या कामू के अनुवाद को। हिन्दी में नया कोई नाटक नहीं। पिछले दो दशकों में नहीं। पिछली सदी के अन्त में यही बोया गया था। बांग्ला में बादल सरकार के बाद आये ब्रात्य बसु और मराठी में महेश ऐलकुंचवार के बाद आये सतीश आलेकर। नाटककार विजय तेन्डुलकर और वसन्त कानेटकर तो थे ही। बांग्ला और मराठी में चूंकि ऐसी मूर्खता की विकृत मानसिकता पनपी ही नहीं, इसलिए वहां अभी भी नाटक हैं। भारतीय अंग्रेजी लेखन में कहानी, कविता और उपन्यास की तो पीढ़ियां बनती गयी हैं लेकिन नाटककार वहां महेश दतानी के बाद आये ही नहीं। लेखकों की रुचि नाटक लिखने में पनपी नहीं। यह कला विशिष्ट इसी अर्थ में है कि इसे हर कोई नहीं लिख सकता। और अज्ञान एक भाव है, अभाव नहीं। यह ज्ञान का विरोधी भाव है।
गुम होते गए अभिनेता
बीती सदी की दूसरी विकृति देखिए। रंगमंच अभिनेता का माध्यम है, जैसे सिनेमा निर्देशक का। भारतीय रंगकर्मियों के वेद नाट्यशात्र में आचार्य भरत ने अभिनेताओं के लिए सैंतीस अध्याय लिखे हैं लेकिन इस पूरे ग्रन्थ में निर्देशक के लिए एक अध्याय भी नहीं मिलता, न कोई अकेली कारिका। क्योंकि रंगकर्म इस तरह त्रिधा है कि इसमें सिर्फ तीन तत्व अनिवार्य हैं, विचार, अभिनय और रस। विचार का वहन दृष्य काव्य यानी नाट्यालेख करता है, अभिनय का नट या अभिनेता और रस का दर्शक। बस, प्रस्तुतकर्ता या प्रस्तोता या प्रयोक्ता के लिए कोई जगह नहीं। यहां तक कि प्रेक्षक यानी दर्शक और समीक्षक के लिए भी भरत ने चार-चार कारिकाएं लिखी हैं लेकिन निर्देशक का ख्याल उन्हें नहीं आया क्योंकि इसकी ज़रूरत उन्हें नहीं दिखी। है भी नहीं। भारतेन्दु ने भी रंगकर्म पर इतना कुछ लिखा लेकिन निर्देशक पर एक शब्द नहीं। न अपनी किताब ‘नाटक’ में, न कवि वचन सुधा में और न हरिश्चन्द्र मैगजीन में। नाटकों पर प्रसाद ने कुल पांच निबंध लिखे हैं लेकिन निर्देशक शब्द आया ही नहीं है। बीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र में रंगदर्शक सुदीर्घ समय से शिशिर भादुड़ी, शम्भू मित्र, उत्पल दत्त, अजितेश बन्दोपाध्याय और तृप्ति मित्र का अभिनय देखने रंगालयों में जाते रहे हैं। आज भी जाते हैं।
हमने कभी किसी निर्देशक की चर्चा सुनी ही नहीं, न किसी पत्रिका में नाट्य समीक्षा में पढ़ी। मराठी दर्शक भी सत्यदेव दुबे और श्रीराम लागू और नीलू फुले का अभिनय देखते रहे, किसी निर्देशक का नाम कभी सामने नहीं आया। जो ग्रीक नाटक हमें मिले हैं, वहां भी नाटककार तो हैं निर्देशक नहीं, जैसे सोफोक्लीज, यूरीपिडीज आदि। लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्दी रंगकर्म में निर्देशक आया। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ और अभी तक इसकी परिणति यह हुई है कि पूरा देश निर्देशक को जानता है, एक भी अभिनेता को नहीं। अभिनेता को तो अपने सीखे हुए का परिचय पाने के लिए या तो सिनेमा की शरण में जाना पड़ा है या फिर रंगमंडल यानी रेपर्टरी के। पूरा देश इब्राहिम अल्काजी, एमके रैना, ब. व. कारन्त, कावालम नारायण पणिक्कर, रतन थियम, मोहन महर्षि, भानु भारती, बी. एम. शाह, प्रसन्ना आदि को तो जानता है, इनके विशाल दल के एक भी अभिनेता को नहीं। पिछले सत्तर सालों में ऐसा हुआ है और इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जिस भी शहर में पणिक्कर या रतन थियम या कारन्त का नाटक मंचित हुआ, दर्शकों ने भूरी भूरी प्रशंसा की, सभी पणिक्कर या रतन थियम के कारण उनका नाटक देखने गये। अब आप किसी भी दर्शक से पूछिए, चालीस अभिनेताओं के दल के किसी भी एक अभिनेता का नाम बताओ, वह नहीं बता पायेगा, नहीं बता पाया है। पिछले सत्तर सालों में, यानी बीती सदी के पचास और इस सदी के बीस वर्षों में भी नहीं। उषा गांगुली को सभी जानते हैं लेकिन क्या आप उनकी संस्था ‘रंगकर्मी’ ये जुड़े किसी भी अभिनेता या अभिनेत्री का नाम बता सकते हैं?
तीसरी विकृति। बीती सदी की इन विकृतियों का विष ही नयी सदी में अभिशाप बनता गया है। जैसा कि इस आलेख में भरतनाट्य शास्त्र का उल्लेख बार-बार हुआ है कि यही एकमात्र रंगकर्मियों की गीता है, इस पर अब थोड़ा ध्यान देंगे। बौद्धिक रंगकर्मी और विशेषकर संस्कृत रंगकर्म से जुड़ा व्यक्ति इस ग्रन्थ की चर्चा को अपना गौरव मानता है। नाट्य विद्यालयों में इस ग्रन्थ का कुछ अंश पाठ्यक्रम में भी है। पढ़ाते भी आ रहे हैं लेकिन पिछले सत्तर वर्षों में हिन्दी में एक भी नाटक इस वेद के अनुसार मंचित नहीं हुआ। अभिनेता को प्रशिक्षित किया गया स्टैनिस्लाव्स्की की अभिनय पद्धति से, मेस्नर, ब्रेष्ट, मेस्नर और आर्तो की मेथड ऐक्टिंग से। तो फिर नाट्यशास्त्र कोर्स में रखा क्यों गया? सिर्फ यह बताने कि भारतीय रंगवांग्मय में ऐसा भी एक ग्रन्थ है जिसकी पूजा की जानी चाहिए? यदि मंचन या अभिनय में इसका कोई उपयोग नहीं है तो इसके कुछ अध्यायों से पढ़ाया क्या गया है पिछले सत्तर सालों में? पढ़ाया गया नाट्यशास्त्र में अभिनय और उसके चार अंग- आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य और विद्यार्थी को सिखाया गया स्टैनिस्लाव्स्की और ब्रेष्ट के अनुसार अभिनय करना। इनकी किताबों के हिन्दी अनुवाद पढ़ना अनिवार्य किया गया। विकृति में सिर उठाती विडम्बना देखिए। पोलिश रंगकर्मी जर्जी ग्रोटोव्स्की भारत आये, कई बार आये, नाट्य शास्त्र पढ़ा, सीखा और इसे वे अपने देश ले गये। उनका दल ताउम्र नाट्य शास्त्र के अनुसार अभिनय करता रहा।
किसी नाटक को कैसे करें, अभिनय कैसे करें, इसे प्रयोग स्तर पर बताने का पाठ्य है नाट्य शास्त्र। जब 1955 तक इसका आधिकारिक संस्कृत पाठ तैयार हो गया तो इसके हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुए। लेकिन इसे संस्कृत नाटकों तक सीमित कर दिया गया। यानी नाट्य शास्त्र के अनुसार वे नाटक ही देशभर में मंचस्थ होते रहे जो संस्कृत में लिखे गये हैं, जैसे कालिदास, भास, शूद्रक या विषाखदत्त के नाटक। क्यों भला? यदि नाट्य शास्त्र नाटक करने या अभिनय करने का प्रविधिशास्त्र है तो इस प्रविधि से कोई भी नाटक खेला जा सकता है, चाहे वह किंग लीयर हो या वेटिंग फॉर गोडा, चेरी की बगिया हो या फिर क्रॉस पर्पज? फिर क्या समस्या है? या क्या समस्या थी भारतीय रंगकर्मियों के आगे? बनारस में तो दिल्ली नाट्य विद्यालय की एक शाखा ही खोली गयी है संस्कृत नाटकों के लिए। संस्कृत रंगकर्म का हाल यह है कि पूर्वरंग में यदि नान्दिपाठ करना है या धु्रवागान प्रस्तुत करना है तो गायक को इस ग्रन्थ की कोई कारिका दे दी जाती है कि वह इसे किसी राग में गा दे। ख्याल गायक गाता रहता है और दर्शक इसे रंगालय में ध्रुवागान समझ कर सुन रहे होते हैं। इससे हास्यास्पद और क्या हो सकता है।
कहना चाहिए कि नाट्य शास्त्र संस्कृत और हिन्दी क्षेत्रों में पढ़ा ही नहीं गया है न समझा गया है। ग्रन्थ के संस्कृतपाठ में यदि कहा गया है कि जब पूर्वरंग में नट मंच के प्रवेश स्थान पर आकर ठहरे और नटी आक्षेप स्थान पर तब वर्धमानक, विष्कम्भक और पिण्डिबंध का प्रयोग कर आश्रावणा विधि से अड्डिता ध्रुवा गायी जाय और कुतप नान्दिपाठ करे … तो जब इन तकनीकी शब्दावलियों के अर्थ अनुवाद में हैं ही नहीं, तो मंच पर क्या होता रहा है और नाट्य विद्यालयों में पढ़ाया क्या गया है अभी तक? है न दिलचस्प? कुछ चतुर सुजान संस्कृत निर्देशक बचाव करते हैं कि हमें कैसे पता चले कि ढ़ाई हजार साल पहले धु्रवा गान कैसे गाते थे। नाट्यशास्त्र के बत्तीसवें अध्याय की पांच सौ से अधिक कारिकाओं में छन्द और मीटर के साथ यानी स्वरलिपियों के साथ बताया गया है कि ध्रुवा गान कैसे गाया जाय। यानी किसी ने अभी इस ग्रन्थ को पढ़ा ही नहीं! न पुनर्नवा हुआ न उत्तरण। सम्भावना इसी में है। इसलिए इन स्थितियों को बताते हुए अब इस आलेख को विराम दे देना चाहिए, इस प्रार्थना के साथ कि डिजिटल युग में उत्तरण भी होगा और पुनर्नवा भी।