सुभाष बोस की वापसी
इतिहास का उतार—चढ़ाव देखें। साथ में वक्त की करवट भी। पांच दशक बीते, नयी दिल्ली के हृदय स्थल इंडिया गेट से अपने विशाल भारत साम्राज्य को निहारती रही ब्रिटिश बादशाह जॉर्ज पंचम की पथरीली मूर्ति। अब उसके हटने से रिक्त पटल पर कल (23 मार्च 2022) उनकी 125वीं जयंती पर अंग्रेज राज के महानतम सशस्त्र बागी सुभाष चन्द बोस की प्रतिमा स्थापित होगी। नरेन्द्र मोदी करेंगे। शायद बागी बोस फिर अपने हक से वंचित रह जाते क्योंकि वहां इंदिरा गांधी की प्रतिमा लगाने की बेसब्र योजना रची गयी थी। स्वाधीन भारत के दो दशकों (नेहरु राज के 17वर्ष मिलाकर) यह गुलामी का प्रतीक सम्राट का बुत राजधानी को ”सुशोभित” करता रहा। मानों गोरे अबतक दिल्ली में ही रहे!
वह बादशाह जिसके विश्वव्यापी राज में सूरज कभी नहीं डूबता था, (किसी न किसी गुलामदेश में दिखता था) को अस्त कराने में नेताजी बोस की भूमिका का सम्यक वर्णन अभी बाकी है। इतिहास की दरकार है। युग का न्याय भी कितना वाजिब रहा! आज दिल्ली का कोरोनेशन पार्क (जहां जॉर्ज पंचम का पुतला 1968 से पड़ा है।) उत्तरी दिल्ली में खाली पड़ा एक मैदान मात्र है। इस जॉर्ज पंचम का वैभवी पुतला गत अर्ध सती से इस मैदान के जंगली झांड़ियों से आच्छादित वीरान कोने में पड़ा है। हर मौसम के थपेड़े खाता रहा। लंदन अजायबघर भी इसे लेने में दिलचस्पी नहीं रखता। कभी निपुण ब्रिटिश शिल्पियों की हस्तकला का यह नायाब नमूना रहा होगा।
जब शरीर में प्राण थे यह जॉर्ज पंचम अपनी महारानी मैरी के साथ दिसम्बर 1911 में भारतीय उपनिवेश में आये थे। कोहिनूर जो गुलाम भारत से छीन कर ले जाया गया था, ब्रिटिश मुकुट की शोभा बढ़ा रहा था। नयी दिल्ली में राजकीय दरबार लगा। तब दो ऐतिहासिक घोषणायें हुयीं। बंग भंग (बंगाल का पूर्वी—पश्चिमी भूभाग में विभाजन) वाला निर्णय निरस्त कर फिर से संयुक्त बंगाल बना। भारत की नयी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लायी गयी। इसी राजतिलक के पर्व पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपना जानामाना गीत ”जनगण मन अधिनायक” इस गोरे सम्राट के लिये पेश किया था। इस जलसे में प्रत्येक शासक (राजकुमार, महाराजा एवं नवाब) तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति, भारत इस शोषक को अपना सलाम करने पहुंचे। सम्राट—युगल अपनी शाही राजतिलक वेशभूषा में आये थे। सम्राट ने आठ मेहराबों युक्त भारत का इम्पीरियल मुकुट पहना, जिसमें छः हजार एक सौ सत्तर उत्कृष्ट तराशे हीरे थे, जिनके साथ नीलम, पन्ना और माणिक्य जड़े थे। साथ ही एक शनील और मिनिवर टोपी भी थी, जिन सब का भार 965 ग्राम था। फिर वे लाल किले के एक झरोखे में दर्शन के लिये आये, जहां दस लाख से अधिक लोग दर्शन हेतु उपस्थित थे।
दिल्ली दरबार मुकुट के नाम से सम्राज्ञी का एक भव्य मुकुट था। उन्हें पटियाला की महारानी की ओर से गले का खूबसूरत हार भेंट किया गया था। यह भारत की सभी स्त्रियों की ओर से महारानी की पहली भारत यात्रा के स्मारक स्वरूप था। सम्राज्ञी की विशेष आग्रह पर, यह हार, उनकी दरबार की पन्ने युक्त वेशभूषा से मेल खाता बनवाया गया था। 1912 में गेरार्ड कम्पनी ने इस हार में एक छोटा सा बदलाव किया, जिससे कि पूर्व पन्ने का लोलक (पेंडेंट) लगा था। उसके स्थान पर एक दूसरा हटने योग्य हीरे का लोलक लगाया गया। यह एक 8.8 कैरेट का मार्क्यूज़ हीरा था। गरीब भारत की सब संपत्ति थी। दिल्ली दरबार 1911 में लगभग 26,800 पदक दिये गये, जो कि अधिकांशतः ब्रिटिश रेजिमेंट के अधिकारी एवं सैनिकों को मिले थे। भारतीय रजवाड़ों के शासकों और उच्च पदस्थ अधिकारियों को भी एक छोटी संख्या में स्वर्ण पदक दिये गये थे।
किताबों में दर्ज है कि अपनी रियासत के रक्त पिपासु राजेमहाराजे बेगैरत रीति से सम्राट के कृपापात्र बनने की होड़ में रहते थे। सन 1857 के गोरे हत्यारों की मिन्नत में। अब बारी आ गयी नेताजी की। नेहरु वंश की हर कोशिश, बल्कि साजिश के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस को नैसर्गिक अधिकार हासिल हो ही गया। हालांकि बोस की रहस्यात्मक मृत्यु की अभी तक गुत्थी सुलझी नहीं। नेताजी की मृत्यु के विषय में प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचना कई बार मांगी गयी, पर कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला। जवाहरलाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह सरकारों से पूछा जा चुका है।
एक रपट के अनुसार ढाई दशक पूर्व (1995) में मास्को अभिलेखागार में तीन भारतीय शोधकर्ताओं ने चंद ऐसे दस्तावेज थे जिनसे अनुमान होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस कथित वायुयान दुर्घटना के दस वर्ष बाद तक जीवित थे। वे स्टालिन के कैदी के नाते साइबेरिया के श्रम शिविर में नजरबंद रहे होंगे। सुभाष बाबू के भतीजे सुब्रत बोस ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से इसमें तफ्तीश की मांग भी की थी। इसी आधार पर टोक्यो के रेणकोटी मंदिर में नेताजी की अनुमानित अस्थियां कलकत्ता लाने का विरोध होता रहा।
सुभाषचंद्र बोस पर मिली इन अभिलेखागार वाली सूचनाओं पर खुले दिमाग से गौर करने की तलब होनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री से राष्ट्र की मांग है। यह भारत के साथ द्रोह और इतिहास के साथ कपट होगा यदि नेहरू युग से चले आ रहे सुभाष के प्रति पूर्वाग्रहों और छलभरी नीतियों से मोदी सरकार के सदस्य और जननायक भी ग्रसित रहेंगे और निष्पक्ष जांच से कतराते रहेंगे। संभव है कि यदि विपरीत प्रमाण मिल गए तो जवाहलाल नेहरू का भारतीय इतिहास में स्थान बदल सकता है, पुनर्मूल्यांकन हो सकता है।
एक खोजपूर्ण दृष्टि तो अब भी डाली जा सकती है। भारत की स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों की राजनीतिक स्थिति और संघर्ष के दौरान की घटनाओं का विश्लेषण करें तो पूरा दृश्य कुछ स्पष्ट होता लगेगा। जैसे आजाद भारत के कांग्रेसी नेताओं का सुभाषचंद्र बोस की जीवित वापसी से बड़ा खतरा महसूस करना। यह इस परिवेश में भी समचीन लगता है कि राज्य सत्ता हासिल करने की लिप्सा में तब के राष्ट्रीय कर्णधारों ने राष्ट्रपिता को ही दरकिनार कर जल्दबाजी में देश का विभाजन स्वीकार कर लिया था। फिर वे सत्ता में सुभाष बोस की भागीदारी कैसे बर्दाश्त करते? देश कृतज्ञ है नरेन्द्र मोदी का कि सरदार पटेल के बाद सुभाष बोस को राष्ट्र के समक्ष पेश कर, उनकी भव्य प्रतिमा लगवाकर एक परिवार द्वारा ढाये जुल्म का अंत हो रहा है। मूर्ति लगाने से नेताजी को न्याय दिलाने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गयी है। अब इसका तार्किक अंत भी हो।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)