आज की राजनीति में आदर्शवाद ख्वाब है
मुबंई: भारत मे लॉकडाउन में थोड़ी सी ढील मिलते ही भाजपा ने बिहार में चुनाव प्रचार का बिगुल बजा दिया है। भाजपा विरोधी इस कवायद पर तंज कस रहे हैं। विरोधियो को बुरा लग रहा है कि जब पूरे भारत को कोरोना एमने जकडा हुआ है, चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल है, बडे शहरों से प्रवासी मजदूरों को पलायन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
ऐसे में भाजपा को चुनाव की पड़ी है। यह प्रवासी मजदूर अधिकतर बिहारी हैं, गरीब और मजबूर है। ऐसे में व्यक्तिगत रूप से इनकी मदद करने के बजाय भाजपा बिहार में चुनाव प्रचार कर रही है, लेकिन सच पूछे तो मुझे इस में कोई आश्चर्य नहीं लग रहा है। भाजपा एक राजनीतिक पार्टी है, कोई समाज सेवी संस्था नहीं है।
आज समाजसेवी संस्थाओं में भी राजनीति हो रही है तो ऐसे मे एक भाजपा जैसी राजनितिक दल से समाज के लिए जीने मरने की हम आस क्यो लगा रहे हैं? राजनीतिक दल है तो राजनीति करना इसके स्वभाव में ही है। वह दिन लद गये जब राजनीतिक दल आदर्श की मिसाल हुआ करते थे परन्तु आज तो राजनीति पार्टियां सिर्फ और सिर्फ राजनीति कर रही है। ऐसे मे इनसे आदर्शवाद खोजना कही ना कही हमारी नासमझी है, हमारी गलती है, हमारी भूल है।
कोई जीव हत्या की कितनी भी मुखालफत कर ले लेकिन एक कसाई से वह जीव दया की आस कैसे लगा सकता है? जीव हत्या करके ही तो उसका घर-परिवार चलता है, उसके बच्चों के भरण—पोषण के लिए ही तो वह यह सब करता है। जीव दया एक आदर्श है, इंसान होने की सबसे बड़ी पहचान है, कसाई भी एक इंसान होता है लेकिन आप जीव दया की आशा एक कसाई से नहीं कर सकते हैं। ऐसी आशा रखना भी गलत है। यह निष्पक्षता भी नहीं है। हर किसी के आदर्श उसके बात, व्यवहार और व्यवसाय की वजह से अलग-अलग होते हैं।
विरोधी दलों का ऐसा इल्जाम है कि भाजपा ने बिहार मे वर्चुल तरीके से चुनाव प्रचार करने के लिए बाकायदा बहत्तर हजार टेलीविजन सेट और एक लाख मोबाइल फोन का इस्तेमाल किया। विरोधियों का ऐसा मानना है कि एक चुनाव प्रचार में इतने करोडों रुपये खर्च करने की जगह बिहार के मजदूरों की मदद की जा सकती थी? जो भाजपा ने नहीं किया।
विरोधियों का पैमाना है कि एक एलईडी टेलीविजन सेट कम से कम बीस हजार रूपये में तो आता ही है, ऐसे में बहत्तर हजार टेलीविजन सेट की कुल लागत लगभग एक सौ चौवालिस करोड़ रुपये पडती है। इतनी बड़ी रकम गरीबों में भी बांटी जा सकती थी लेकिन इन विरोधी दलों को कौन पूछे कि बहत्तर हजार टेलीविजन सेट का इतना सही आकड़ा कहा से मिला?
यह झूठ भी हो सकता है। दूसरी बात यह कि इतने सारे टीवी सेट खरीदने से बेहतर तो इनको किराये पर लेना आसान है, कम खर्चीला है और भाजपा बनिया पार्टी है, अधिक खर्च करने की बेवकूफ़ी वह कभी नहीं कर सकती है। उसने किराये पर लिया होगा या फिर अपने शुभचिंतकों और समर्थकों से मुफ्त मे सिर्फ अमित शाह के भाषण के लिए मुफ्त में उठाया होगा? ऐसा होना संभव भी है।
याद कीजिए, जब लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे तो अपनी बेटी मीसा भारती की शादी के समय शोरूम में खडी नई और चमचमाती गाड़ियों का इस्तेमाल उन्होंने मेहमानों की आव भगत के लिए किया था। गाड़ियां भी नई थी और मुख्यमंत्री की रसूख या कह लें, खौफ की वजह से कोई अतिरिक्त खर्च भी नही हुआ था, सब कुछ मुफ्त में हो गया था। भाजपा की इस चुनाव प्रचार मुहिम मे भी ऐसा होना संभव है?
दूसरी तरफ दिल्ली मे बेहिसाब बढ़ते कोरोना के मरीजों के मुकाबले अस्पतालों मे उनके लिए बिस्तर की अनुपलब्धता की वजह से दिल्ली से बाहर के लोगो का दिल्ली मे इलाज न करने के बयान पर सभी पार्टियाँ अरविंद केजरीवाल जी को घेर रही है, उनके बयान का विरोध कर रही है हालांकि एलजी ने इस आदेश को पलट लिया है। फिर भी मुझे उनके बयान में कुछ गलत नहीं लगा, मैं पूर्णतया व्यवहारिक सोंच रख कर यह बात कर रहा हूँ।
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री है, चुनाव में वोट उनको दिल्ली के बासिंदे देते हैं तो फिर वे बयान किसके समर्थन में देंगे? आज कोई भी राजनीति दल अपने कोर वोटरों को नाराज करना नहीं चाहता, दिल्ली वासी ही आम आदमी पार्टी के कोर वोटर है तो ऐसे में मुख्यमंत्री चाहेंगे कि साम, दाम, दंड, भेद के सभी नियमों का प्रयोग करते हुए, उनके मुख्यमंत्री उनके साथ खडा नजर भी आए। फिलहाल के लिए आदर्शवादीता को किनारे रख कर सोचें।
एबीपी न्यूज की एंकर रूबिका लियाकत ने इस बयान पर पक्ष-विपक्ष में ट्विटर पर एक सर्वे भी किया था। आपको जानकर हैरानी होगी कि दिल्ली की जनता अपने मुख्यमंत्री के पक्ष मे खडी थी और जो इस निर्णय का विरोध कर रहे थे, वे दिल्ली से बाहर के लोग थे। यह सर्वे ही अपने आप मे बताता है कि दिल्ली की जनता अरविंद केजरीवाल जी के साथ खडी है। यह अरविंद केजरीवाल की अपने आप मे जीत ही है, क्यो कि चुनाव के वक्त वोट यही देंगे। इसलिए सारे आदर्श को ताक पर रख कर केजरीवाल को ऐसा बयान देना पडा और यह निर्णय लेना पडा।
आदर्शवाद आज वोट नही दिलाता है। एक वोट से अटल बिहारी वाजपेयी जी को सत्ता से हटाना इसकी जीती जागती मिसाल है। आदर्शवाद के फेर मे वे सत्ता से बेदखल कर दिये गये थे। तब किस लोगो ने उनके प्रति संवेदना व्यक्त की थी लेकिन किसी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी नही दी थी। यह वोट की राजनीति ही थी कि चंद्रशेखकर को रूसवा होना पडा।
वोट की राजनीति की ही महिमा थी कि मनमोहन सिंह जैसे बेहतरीन शख्स को दस साल तक कठपुतली पर बन रहना पडा। ऐसे में वर्तमान राजनीति मे हम आदर्शवाद क्यो खोजते हैं? क्या यह हमारी नादानी नही है? आज हर नेता ऐन केन प्रकणेन अपनी कुर्सी को बचाये रखना चाहता है, ऐसे में वह हमेशा अपने कोर वोटर को ध्यान में रखकर फैसले लेता है, तो क्या गलत है? क्योंकि वोट तो उसे स्थानिय जनता ही देगी। जो उसके वोटर नहीं है या स्थानिय नही है। वो फिर विरोध करें या समर्थन, कुछ फर्क नहीं पड़ता है।
राजनीति दल अपने समर्थकों के हिसाब से निर्णय लेती है तो इसमे क्या गलत है? आज के समय में आदर्शवाद से पेट नही भरता है। जीतने वाला इतिहास बनाता है। इतिहास लिखता है। राजनीति भी आज शह और मात का खेल हो गई है। हर हाल मे जीत महत्वपूर्ण हो गई है, फिर यह कैसे भी हासिल की जाए, क्या फर्क पड़ता है? आज की राजनीति युद्ध जैसी है और युद्ध के कोई नियम नहीं होते हैं। कम से कम आदर्श तो नही ही होते हैं। हर हाल में जीत मायने रखती है।