अगर अटलजी स्फूर्ति दिखाते तो !
जरा याद कर लें (बकौल कवि प्रदीप की पंक्ति : ”आंख में आंसू भर लो” वाली नहीं।), बल्कि भरपूर अवसाद और ग्लानि से भरी, आज के दिन की घटना जो दो दशक पूर्व (13 दिसम्बर 2001) हुयी थी, जब पाकिस्तानी सियासी डकैतों ने भारत की संसद भवन पर हमला किया था। स्थल ठीक वहीं था, जहां नरेन्द्र मोदी ने सांसद चुने जाने के बाद में माथा नवाया था। इस गोलीबारी के साक्षी थे वाकपटु 77—वर्षीय अटल बिहारी वाजपेयी। मोटी दीवारों के पीछे से।
मेरे मानस पटल पर उस बेला की स्मृति आज तक बहुत साफ है। मैं तभी संसद भवन के सामने रेल भवन में गया था। हमारे (आईएफडब्ल्यूजे के) राष्ट्रीय अधिवेशन में करीब 450 प्रतिनिधि की यात्रा के लिए अतिरिक्त कोच लगवाने हेतु। नीतीश कुमार (आज बिहार के मुख्यमंत्री) तब रेल मंत्री और जॉर्ज फर्नांडिस की समता पार्टी के नेता से भेंट हुयी। वे चकित थे। पूछा : ”इतनी कठोर सुरक्षा के बीच आप को प्रवेश कैसे मिला ?” मेरा प्रत्युत्तर संक्षिप्त था। ”सूर्य किरण और रिपोर्टर से ऐसा प्रश्न पूछा नहीं जाता।” फिर रेल मंत्री ने हमले के बारे में निजी अनुभव बताये।
मुझे उसी दिन से ही अपेक्षा रही थी कि अटल बिहारी वाजपेयी इस्लामी पाकिस्तान और जनरल परवेज मुर्शरफ को कड़ा सबक सिखायेंगे। अटलजी को 1955 से लखनऊ के विभिन्न सभा स्थलों में मुजाहिदों पर शोले उगलते सुनता आया था। संसद भवन की घटना के तुरंत बाद प्रधानमंत्री ने भारतीय सेना को सीमा पर हजारों की संख्या में तैनात तो कर डाला था, पर बिगुल बजाना भूल गये। सैनिक बुत जैसी हफ्तों खड़े रहे। अरबों रुपये निरर्थक खर्च हुये होंगे। एक गोली भी नहीं दगी। बल्कि आतंकी अफजाल गुरु को फंदे पर लटकाने में कई साल लग गये। यूं अटलजी की तथा उनके सर्वणीय सुरक्षा सलाहकार (ब्रजेश मिश्र) की आपराधिक ढिलाई तथा कोताही 24 दिसम्बर 1994 को ही दिखी थी, जब भारतीय वायुयान आईसी—814 को पाकिस्तानी आतंकी कांधार उड़ा ले गये थे। प्रधानमंत्री अपनी 75वीं जन्मगांठ की अगले दिन की तैयारी में थे। जहाज (हाईजैक करने वाले पाकिस्तानी) आराम से अमृतसर से निर्बाध तेल भराकर उड़ते चले। यूं भी बृजेश मिश्र शाम ढले आदतन अवचेतन अवस्था में रहे होंगे।
जिस कीमत पर आतंकी हाफिज की अदला—बदली हुयी उससे ज्यादा शर्मनाक हादसा शायद ही कभी घटा हो। फिर भी 75—वर्षीय कनौजिया विप्र वाजपेयी ने अपने से तीन साल तीन माह छोटे सजातीय सुरक्षा सलाहकार मिश्र जी को बर्खास्त तक नहीं किया। भले आरएसएस और भाजपाई ऐड़ी चोटी तक कोशिश कर चुके थे। इस अनुभव की श्रंखला में ही संसद पर हमले का हो जाना खुजली में खाज जैसा लगा था। प्रधानमंत्री के आदेश पर तब फौज दिनरात सीमा पर खड़ी रहीं। अटलजी स्थितप्रज्ञ रहे। हमले का आदेश तक दिया नहीं। अटलजी के हलकेपन का ही अंजाम था कि 2008 में फिर पाकिस्तानी आतंकियों ने कसाब के साथ मुम्बई के ताज होटल पर हमला भयावह किया था।
अर्थात यदि बीस साल पहले पाकिस्तान की सेना को पाठ सिखा देते तो दस साल में चार बार हुये आक्रमणों पर निरीह भारतीय नागरिकों के प्राण बच जाते। अर्थात् यह तारीखें सब हमें मुहर्रम जैसी याद रखनी चाहिये। भले ही पाकिस्तानी उन अवसरों को ईद का पर्व मानें। कभी लोकसभा में अटलजी ने जवाहरलाल नेहरु को ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चैम्बरलेन बताया था। इस प्रधानमंत्री ने एडोल्फ हिटलर को बहलाने, फुसलाने, तुष्टिकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऐसी अकर्मण्यता, भय, झिझक, हिचक असमंजसपना अटलजी के व्यक्तित्व में खूब झलकी थी।
वहीं मानसिकता जो बौद्ध अशोक से जवाहरलाल नेहरु की कायरता का प्रतीक रही। केवल इन्दिरा गांधी (बांग्लादेश) और नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (बालाकोट) रहे जो शत्रु के घर में घुसकर मारते थे। एक पुराना फिल्मी डायलाग याद आया। हीरो राज कुमार दुश्मन से कहता है : ”मैं मारुंगा, गोली हमारी होगी, बंदूक भी हमारी होगी (सिनेमा सौदागर—1991) फिर वह वक्त और स्थल खुद तय करता है। डायलॉग पर श्रोताओं ने ताली बजायी थी। मगर अटलजी के संदर्भ में न बन्दूक रही। न गोली चली। न समय आया। न पाकिस्तानी जमीन मिली और न ही कोई वाह वाही। बस इतिहास उन्हें याद रखेगा कि नेविल चैंबरलेन और उनके प्रणेता जवाहरलाल नेहरु जैसे ही अटलजी भी रहे। कापुरुष।
तनिक मुकाबला कीजिये परस्पर इन दो भाजपायी प्रधानमंत्रियों का। पुलवामा के शहीदों के लहू का प्रतिशोध लिया गया, बालाकोट पर बम्बारी कर। वडनगर कस्बे के एक चायवाले दामोदरदास की छह संतानों में तीसरे, यह 70—वर्षीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र भारत के शासकों में पृथ्वीराज, राणा प्रताप और शिवाजी से भी आगे बढ़ गये, दुश्मनों को ठिकाने लगाने में। कामयाब रहे। सोच में लिबलिबा, निर्णय में लिजलिजा और क्रिया में कायर नहीं थे। शायद यही कारण था कि अपनी लाहौर यात्रा पर कांग्रेसी मणिशंकर अय्यर को पाकिस्तानियों से अनुरोध करना पड़ा कि, ” मोदीवाली भाजपा को हराने में सोनिया—कांग्रेस की मदद करें।”
उदाहरण मिला कन्नौज नरेश राजा जयचन्द की प्रार्थना का शाहबद्दीन मोहम्मद गोरी (1192) से। जयचन्द ने अपने जामाता अजमेर राजा पृथ्वीराज चौहान को मार डालने का निमंत्रण गोरी को भेजा था। तराईं के दूसरे युद्ध में गोरी और जयचन्द ने मिलकर भारतीय सम्राट को मारा था। सोनिया—कांग्रेसी इसी घटना को 829 वर्ष बाद शायद दोहराना चाहती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)