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असम में अतिक्रमण हटाने के नाम पर हुई हिंसा में धार्मिक एंगल भी है क्या?

अक्सर हिन्दी पट्टी की ख़बरों से बाहर रहने वाला उत्तर-पूर्व इन दिनों चर्चा में है. वजह है नॉर्थ ईस्ट का असम राज्य. करीब महीने भर पहले, असम एक सीमा विवाद को लेकर अपने पड़ोसी राज्य मिज़ोरम के साथ भिड़ा हुआ था लेकिन इस बार मामला बाहर का नहीं आंतरिक है. सबकी नज़रें गुरुवार को असम की ओर तब अचानक गईं जब वहां के दरांग जिले में पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच हिंसक झड़प हुई. इसमें दो लोगों की जान चली गयी, साथ ही चौबीस के करीब लोग घायल हो गए. 9 पुलिसवालों के भी घायल होने की ख़बर है. पुलिस का कहना है कि ये लोग वहां अतिक्रमण किये हुए थे, ऐसे में इलाके को खाली कराने के दौरान लोगों ने हमला कर दिया.

सवाल उठता है कि क्या यह केवल अतिक्रमण का मामला है या कुछ और? साथ ही इसे धार्मिक चश्मे से देखना कितना ठीक है? सही मायनों में देखें तो यह केवल धौलपुर इलाके की बात नहीं है, बल्कि पूरे असम में अतिक्रमण का मामला है. कागजातों में भी देखें तो कम से कम 15 जिले अतिक्रमण की मार झेल रहे हैं और कम से कम 22 प्रतिशत जंगल की जमीन अतिक्रमण में जा चुके हैं. वहां के स्थानीय लोगों ने भी कई दफा सरकार से अतिक्रमण हटाने की मांग की है. साल 2015 में मंगलदोई जिले में एक कोर्ट केस फाइल किया गया था. इसमें एक शिकायतकर्ता थे कोबद अली. इससे पता चलता है कि यह धार्मिक मसला नहीं है, बल्कि पूरी तरह जमीन का मसला है.

हालांकि अतिक्रमणकारी कौन है, भारतीय है या घुसपैठिए, यह कोर्ट या सरकार ही तय कर पाएगी. लेकिन सरकारी जमीन, निजी जमीन या जंगल की जमीन पर अतिक्रमण हुआ है यह सच्चाई है. इस अतिक्रमण की वजह से दोनों गुटों में एक अतिक्रमण का इतिहास रहा है. बीजेपी 2016 से यानी कि सरकार में आने से पहले से ही कहती आ रही है कि वह राज्य को इस अतिक्रमण से मुक्त करेगी.

पहले भी कई दफा अतिक्रमण मुक्त करने की कोशिश की गई है. यह कोशिश पूरी तरह से सफल नहीं है. क्योंकि इसमें काफी खामियां रही हैं. अतिक्रमण से मुक्त करने का मतलब सिर्फ एक इलाके की बात नहीं है. क्योंकि ये लोग वहां से हटकर फिर दूसरी जगह बस जाते हैं. ऐसे में समस्या का पूरा समाधान नहीं हो पाता है. ऐसा कहा जा सकता है कि सरकार ने इस मामले में पूरी तरह से ध्यान नहीं दिया और पुलिस ने जो कार्रवाई की वो भी सुनियोजित तरीके से नहीं था. इतिहास में भी देखें तो यह लड़ाई दो गुटों में है- स्थानीय नागरिक और अतिक्रमणकारी. इसलिए यह पूरा मामला सिर्फ जमीन विवाद का है, कोई धार्मिक एंगल नहीं है.

अतिक्रमण का यह मामला 1980 की शुरुआत से शुरू हुआ. जिसके बाद कई बार हिंसा के मामले सामने आए हैं. स्थानीय लोगों के मन में इन अतिक्रमणकारियों की वजह से काफी असुरक्षा की भावना भी रही है. जेहरूल इस्लाम नाम के एक स्थानीय नागरिक बताते हैं कि इन अतिक्रमणकारियों की वजह से मवेशियों के लिए काम में आने वाली चारागाह जमीन हमने खो दी है. हमारी बेटियां बेखौफ होकर बाहर नहीं निकल सकतीं. क्योंकि हमें डर है कि अतिक्रमणकारी उसे उठा ना ले और कुछ गलत ना कर दे.

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