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ना और हां के बीच के लम्बे फासले

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ : मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रविवार को राजधानी में एक बड़े पते की बात कही। कोरोना महामारी से लडऩे में अपनी सरकार के ठोस कदमों का विवरण देते हुए और उनकी तरफदारी करते हुए उन्होंने कहा कि हम लड़ेंगे, बढ़ेंगे और जीतेंगे। उनका कहना था कि यह रामकृष्ण, गंगा-यमुना और प्रधानमंत्री मोदी के प्रतिनिधित्व वाला उत्तर प्रदेश है, यहां तमाम संभावनाओं के लिए ‘ना’ का कोई स्थान नहीं है।

जिस तरह उन्होंने प्रदेश के ‘हां’ के हित में ‘ना’ की खिलाफत की है, वह काबिले-गौर है। उनका कहना स्पष्ट है। वे कह रहे हैं कि हमारे राज में उत्तर प्रदेश में संभावनाएं भरी पड़ी हैं और इनके लिए ‘ना’ का कोई स्थान नहीं है। यानी हर संभावना ‘हां’ से ही शुरू होगी और ‘हां’ पर ही खत्म होगी। ‘ना’ को बीच में नहीं आने दिया जाएगा।

उनका कहने का शायद तात्पर्य यह था कि यहां कोरोना से लडऩे से लेकर विकास के पथ पर आगे बढऩे तक बीच में कहीं भी कोई नकारात्मकता आड़े नहीं आने दी जाएगी। उनके कथन का बारीक भाष्य किया जाय तो एक ही बात निकलकर सामने आती है कि तमाम सवालों के जवाब और उत्तरों के उत्तर सिर्फ ‘ ‘हां’ पर खत्म होंगे। हम तरक्की के लिए, आगे बढऩे के लिए सब कुछ करने को प्रस्तुत होंगे- हम पूरी तौर पर सकारात्मक रहेंगे।

‘ना’ और ‘हां’ की अलग-अलग और सामूहिक विवेचना करने, विश्लेषण करने और तात्पर्य निकालने के लिए हम थोड़ा सा और उन्मुक्त होने की कोशिश करें तो एक बहुत व्यापक कैनवास तैयार हो जाता है। ‘हां’ कहने की सकारात्मकता स्व-परिभाषित है लेकिन ‘हां’ कहने की नकारात्मकता को धकेलकर किसी अँधेरे कोने में फेंका भी नहीं जा सकता।

इसी तरह ‘ना’ कहने की नकारात्मकता अपनी जगह है लेकिन उसकी सकारात्मकता से मुख नहीं मोड़ा जा सकता। ‘हां’ कहना शायद कहीं आसान है लेकिन ‘ना’ कहने के लिए हिम्मत चाहिए, सोच चाहिए, जजबा चाहिए और तटस्थता को तोडक़र फेंक देने का साहस भी चाहिए। ‘हां’, वास्तव में ‘ना’ का अगला आसान कदम हो सकता है लेकिन ‘ना’ को ‘हां’ के मुकाम तक ले जाना है तो मोहब्बत चाहिए, आत्मीयता चाहिए, अंतरंगता चाहिए।

जिन मामलों पर, मुद्दों पर ‘ना’ बोलने की जरूरत होती है, हम चुप लगा जाते हैं, रुखविहीन हो जाते हैं, रक्षात्मक हो जाते हैं क्योंकि हमारी सोच में तटस्थता नाम की बीमारी ने गहरी पैठ बना रखी है। इसका सीधा नतीजा यह हुआ है कि हमारे गले के बीचोंबीच में कहीं ‘ना’ अटक कर रह भी गया हो तो उसे ‘हां’ ही मान लिया जाएगा और कहां की बात कहीं पहुॅच जाएगी। हम रोज ऐसी ढेर सारी समस्याओं से घिरे रहते हैं, जो राजनीतिक लोग हमारे लिए पैदा करते हैं या उन्हें समय रहते हल करने की कोशिश नहीं करते।

हमारा नजरिया सीधा सा यह हो जाता है कि जाने दो यार, हमें क्या करना, हम क्यों पचड़े में पड़ें। सीधे-सीधे होता यह है कि जो अच्छे लोग हैं, वे बुराई को लांघकर दूसरे तट पर पहुंचने की सोचते भी नहीं है, कोशिश भी नहीं करते। अंतत: हमें लगने लगता है कि तटस्थ रहने में ज्यादा सुविधा है। ऐसे कई मौके आ सकते हैं जब सोचना पड़ेगा कि समवेत स्वरों में बोली गई ‘ना’ क्या ‘हां’ से ज्यादा ताकतवर होती है, ज्यादा सकारात्मक होती है, ज्यादा कारगर होती है? और ‘हां’ तो ‘हां’ ही होती है, ‘ना’ उसे छूकर निकल तो सकता है, उसका चरित्र नहीं बदल सकता।

ऐसा नहीं है कि ‘हां’’ और ‘ना’ के अपने अलग मजे न हों। विधानसभा में जब किसी सरकारी प्रस्ताव पर ध्वनिमत से वोट पड़ते हैं तो अध्यक्ष महोदय सदन की राय जानने के लिए कहते हैं, जो प्रस्ताव के पक्ष में हों, ‘हां’ कहें और जो विरोध में हों ‘ना’ कहें। कई बार ‘ना’ की आवाज कहीं जोर से उठती है लेकिन अध्यक्ष महोदय कहते यही हैं कि ‘हां’ की संख्या अधिक है, इसलिए प्रस्ताव पारित हुआ।

अध्यक्ष महोदय अपना यह मत तब तक बदलने को तैयार नहीं होते जब तक ‘ना’ कहने वाले ‘हां’ को चुनौती देने को खड़े नहीं हो जाते और वोटिंग की मॉग नहीं करते। मतलब यह कि पूरे जोर से ‘ना’ कहने पर भी कई बार ‘ना’ को ‘ना’ नहीं माना जाता। पर ‘हां’ अपनी जगह ‘हां’ ही रहेगा चाहे ‘ना’ के कितने ही वार उस पर क्यों न किए जाएं।

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वरना यह गाना कैसे बनता, ‘‘ना-ना करके प्यार तुम्हीं से कर बैठे, करना था इन्कार मगर इकरार तुम्हीं से कर बैठे’’। पर बिना ‘ना’ कहे भी प्यार किया जा सकता है- सीधे-सीधे, बिना लाग लपेट के, सपाट तरीके से। बस सोच सकारात्मक हो और तटस्थता से किनारा हो तो!

और अंत में, पेश है नाजीवाद का विरोध करने वाले जर्मन कवि पॉस्टर निमालिर की यह कविता जो उन्होंने आतताइयों से निपटने में समाज की अक्षमता दर्शाने के लिए लिखी थी और कैसे यह तटस्थता के तिलिस्म को तोड़ती है:-

पहले वे आए यहूदियों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला,
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था,
फिर वे आए कम्युनिस्टों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था,
फिर वे आए मजदूरों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं मजदूर नहीं था,
फिर वे आए मेरे लिए
और कोई नहीं बचा था,
जो मेरे लिए बोलता!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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