जिउतिया पर्व : संतान की लंबी आयु और सुखी जीवन के लिए माताओं ने रखा व्रत
तालाबों, घाटों, कुंडो पर जाकर जिउतिया माई की किया पूजा व अनुष्ठान, महालक्ष्मी का किया दर्शन-पूजन, देवालय की परिक्रमा
–सुरेश गांधी
वाराणसी : संतान के दीर्घायुष्य व आरोग्य कामना से महिलाओं ने रविवार को जीवित्पुत्रिका का निराजल व्रत रखा। गंगा तट या कुंड-सरोवर तट पर भगवान सूर्य व भगवती जगदंबिका की पूजा-अर्चना की। पारंपरिक मंगल गीतों के बीच आराधना-अनुष्ठान कर संतान के मंगलमय जीवन की कामना की। आश्विन कृष्ण पक्ष की अष्टमी के उदया मान के तहत भोर में महिलाओं ने व्रत का संकल्प लिया। इस दौरान व्रती महिलाओं ने चूल्हो, सियारिन व पितर-पितराइन को अपने कुल की परंपरा के अनुसार नैवेद्य अर्पित किया। इसके बाद मीठा भोजन के तौर पर दही-चिउरा आदि ग्रहण कर सरगही की विधि पूर्ण की। इसी के साथ 24 घंटे का निर्जला उपवास शुरू हो गया। दोपहर बाद स्नान-ध्यान कर फल, फूल, मिष्ठान्न आदि से पूजन का डाल सजाया। शाम को व्रती महिलाएं ढोल-नगाड़ों के बीच घाट-कुंडों व सरोवरों के तट पर एकत्र हुईं और सामूहिक पूजन किया।
पूजा के दौरान सामूहिक रुप से व्रती महिलाएं मिट्टी तथा गाय के गोबर से चील व सियारिन की प्रतिमा बनाई। इनके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया। इसके बाद जीवितवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, अक्षत पुष्प आदि अर्पित कर विधिवत पूजा-अर्चना की गई। पंडितों से जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनने के बाद जीवितवाहन भगवान की प्रतिमा की बनी माला को गले में धारण किया और संतान की सलामती की मन्नते मांगी। कई महिलाओं ने तो संतान की संख्या के आधार पर जीवितवाहन भगवान की प्रतिमा को धागे में पिरोकर धारण किया। एक दूसरे को सिन्दूर लगाकर सुहाग की सलामती की कामना भी की। शाम को खरजिउतिया करने वाली व्रतियों ने तारा देखकर अन्न-जल ग्रहण किया। सोमवार को जिउतिया रखने वाली महिलाएं पारण करेंगी।
बैरिया की गीता देवी, ब्रह्मपुरा की संगीता देवी ने बताया कि संतान के लिए जिउतिया सबसे उत्तम पर्व है। इससे उनपर आने वाली विपत्ति दूर होती है। इसके पूर्व शनिवार की शाम को सतपुतिया की सब्जी माताओं द्वारा खाने की परंपरा के निर्वहन के बाद से ही व्रत शुरु हो गया। दूसरे दिन रविवार को निर्जला रहकर व्रत का पालन किया। दोपहर बाद ईश्वरगंगी पोखरा और शंकुलधारा पोखरा, वरुणा नदी सहित कई पौराणिक महत्व के पोखरों पर जिउतिया पूजन करने के लिए महिलाएं फल और गन्ने के साथ पहुंचीं और पूजन किया। राजा जीमूतवाहन की कथा का श्रवण करते हुए संतान के दीर्घायुष्य के लिए भगवान से प्रार्थना की। मंदिरों में भी पूजन-अर्चन का क्रम देर शाम तक चलता रहा। पूजन के लिए व्रती महिलाओं की संख्या लक्सा स्थित लक्ष्मीकुंड पर रही। अस्सी घाट, शिवाला, दशाश्वमेध घाट, पंचगंगा व भैसासुर घाट, ईश्वरगंगी तालाब व लाट भैरव मंदिर पोखरा, मीरापुर बसही प्राचीन पोखरा, सारंगनाथ महादेव मंदिर शिवकुंड पर, डीएलडब्ल्यू के सूर्य सरोवर, कर्दमेश्वर महादेव कुंड समेत शहर से लेकर गांव तक के घाट-कुंडों पर भी पूजन किया गया।
लक्ष्मीकुंड पर सोरहिया मेला के अंतिम दिन महालक्ष्मी के दर्शन-पूजन के लिए श्रद्धालु पहुंचे। भक्तों ने भगवती को 16 प्रकार के फल, फूल, मिष्ठान्न, नारियल, चुनरी अर्पित कर सुख-समृद्धि की कामना की। इस दौरान मंदिर में महालक्ष्मी, महासरस्वती व महाकाली का फूल-मालाओं से भव्य श्रृंगार किया गया। भोर में चार बजे मंगला आरती के उपरांत मंदिर का कपाट आम श्रद्धालुओं के लिए खोला गया। दर्शन के लिए रात 12 बजे तक कतार लगी रही। दर्शन-पूजन के बाद लोगों ने 16 बार परिक्रमा भी की। मिट्टी की लक्ष्मी प्रतिमा खरीदी और पुरानी प्रतिमाओं का विसर्जन किया। इसके साथ ही 16 दिनीं महालक्ष्मी व्रत का भी समापन हो गया।
मान्यता है जीवित्पुत्रिका व्रत करने से अभीष्ट की प्राप्ति होती है तथा संतान का सर्वमंगल होता है। माताएं रसोईघर की चौखट को अन्नपूर्णा और मातृपक्ष के पितरों की स्मृति में टीका देती हैं। पुत्रवती होने के प्रतीक स्वरूप गले में धागे से बनी जिउतिया पहनती हैं जिसमें पुत्रों की संख्या से एक अधिक गांठ लगाई जाती हैं। अधिक वाली गांठ जिउतबन्हन की गांठ कहलाती है जिसे जीमूतवाहन नाम से समझा जा सकता है। स्वयं पहनने के पहले उसे कुछ देर पुत्र को पहना कर रखा जाता है। उसके बाद विविध पकवानों के साथ पारण किया जाता है। उपवास रखने से पहले सभी माताओं ने बाजार से सब्जी में सप्तपुतिया, नोनी और चौराई का साग, मडुआ का आटा से बने लिट्टी आदि का भोजन करती हैं। इसके बाद शुद्व घी में ओठगन बनाती है और सूर्योदय होने से पूर्व ही उसे बच्चों को खिला देती है। उपवास के दिन सभी व्रतिका नदी आहर पोखर, पईन या कुआं पर स्नान करके नया वस्त्र धारण करती हैं। नदी किनारे झूर में जियुत बंधन को रख चावल, फल और फूल चढाती है। उसी प्रसाद को उपवास तोड़ने के दिन ग्रहण करती है। हालांकि जो मां व्रत तोड़ने के निश्चिंत समय के बाद जितना ही विलंब करती हैं उतना ही उनके बच्चे की बलाय दूर होती है।