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चेतन आनंद की ‘हकीक़त’ से जानी लोगों ने कैफ़ी आज़मी की हकीक़त

मनीष ओझा

बस इक झिजक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में,
कि तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फ़साने में,
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ।।।
बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमाँ जो बस गए,
इंसाँ की शक्ल देखने को हम तरस गए,
गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो,
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ,

स्तम्भ: अपनी मज़ाक़िया आदतानुसार, इलाहबाद प्रवास के दौरान एक बार मैं दोस्तों के साथ अपने- अपने गृह जनपदों को लेकर चुहलबाजी कर रहा था। उस मंडली में मेरा एक ख़ास मित्र आजमगढ़ से था। आजमगढ़ वाले मित्र की जब बारी आयी तो उसने अपने जनपद की कई महान हस्तियों का नाम गिनाया। जिसमें से एक कैफ़ी आज़मी साहब का नाम लेते वक़्त वो अपने मन में संतोष व अधिक ऊर्जा को महसूस करते हुए मुझे उनके बारे में अधिक जानकारी इकठ्ठा करने की सलाह दे बैठा। चूँकि, भोजन बनाते वक़्त, समय का सदुपयोग करने के लिए ये हास परिहास चल रहा था तो जैसे ही पनीर की सब्ज़ी तैयार हुयी, हम सब इस बात को आयी गयी करते हुए छक कर खाने की तैयारी करने लगे।

लेकिन उस दिन के बाद के दिनों में, अपने मित्र का आत्म विश्वास, मुझे लगातार कैफ़ी साहब के बारे में पढने को प्रेरित करता रहा और मैंने ढूंढ ढूंढकर कैफ़ी साहब को जितना संभव हो सका पढ़ा। आइये एक नज़र डालते हैं इस दर्द भरे धाकड़ शायर की इस नज़्म पर

इतना तो ज़िंदगी में किसी के ख़लल पड़े,
हँसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े,
वीरानियाँ तो सब मिरे दिल में उतर गईं।।।
बस इक झिजक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में,
कि तेरा ज़िक्र भी आएगा इस फ़साने में,
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ।।।
बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमाँ जो बस गए,
इंसाँ की शक्ल देखने को हम तरस गए,
गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो,
डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।।।
इंसाँ की ख़्वाहिशों की कोई इंतिहा नहीं,
दो गज़ ज़मीं भी चाहिए दो गज़ कफ़न के बाद,
जिस तरह। हँस रहा हूँ मैं पीपी के गर्म अश्क,
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े।।।

इस नज़्म को कैफ़ी साब ने मात्र 11 साल की उम्र में लिखा था। उन्हीं दिनों एक मुशायरे में जाकर इसे मंच पर पढ़ा भी था। नज़्म को सुनने के बाद सबने ये मानने से इनकार कर दिया कि इतनी बड़ी बात कोई बच्चा समझ या लिख सकता है। यहाँ तक कि उनके वालिद भी मानते थे कि ये नज़्म ज़रूर इसने अपने बड़े भाइयों से लिखवाई होगी । लेकिन बाद में जब भाइयों ने इस बात से इनकार किया तब वालिद ने कैफ़ी साब को ऐसा ही कोई उम्दा नज़्म लिखने को कहा और इस मशहूर शायर बनने का सफ़र शुरू करने को मचलते हुए बालक ने एक और दिल की गहराइयों से संवाद करने वाली नज़्म लिख डाली। तब उस दिन इनके वालिद को कैफ़ी साब पर भरोसा हुआ था। बाद में इस नज़्म को गयिका बेगम अख्तर ने अपनी आवाज़ दी थी और उस वक़्त से लेकर आज भी ये गाना पॉपुलर है।

कैफ़ी आज़मी का जन्म साल 1919 में मिर्ज़ापुर के निकट स्थित आजमगढ़ ज़िले के मिजवां गाँव में एक ज़मीदार परिवार में हुआ था। इनके वालिद ने इनका नाम सय्यद अतहर हुसैन रिज़वी रखा था लेकिन इस ग़मज़दा शायर के दिमाग़ में जो क्रांति चल रही थी उसने इस नाम को ज्यादा दिन इनके साथ जोड़कर न रहने दिया। साल 1942 में साहब ने अपनी दीनी पढ़ाई छोड़कर ‘भारत छोडो आन्दोलन” में हिस्सा ले लिया और थोड़े ही दिन बाद साल 1943 में इन्होने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सद्स्यस्ता ग्रहण कर ली और अपना नाम बदलकर ‘कैफ़ी आज़मी’ रख लिया।

जीविकोपार्जन व सामज सेवा के वास्ते 24 वर्ष की उम्र में इन्होने कानपुर के एक जूता का कारख़ाने में काम शुरू कर दिया था। कुछ वक़्त बाद पार्टी ने इन्हें मुंबई भेजने का फ़ैसला लिया और इस तरह इस शायर के मशहूर शायर बनने की शुरुआत हुयी।

आज़मी साहब ने अपनी पहली फ़िल्मी नज़्म साल 1951 में रिलीज़ फिल्म ‘बुज़दिल’ में लिखा था। उसके बाद इन्होने कई फिल्मों में गीत लिखे। कहा जाता है साहिर लुध्यान्वी, मजरूह सुल्तानपुरी और कैफ़ी आज़मी ने हिंदी फ़िल्मी गीतों के बोल बदल दिए थे। इनका काम तो अच्छा चल रहा था लेकिन इनकी फ़िल्में फ्लॉप हो रही थीं। इन्हीं बीच गुरु दत्त साहब ने इन्हें ‘कागज़ के फूल’ में भी काम दिया लेकिन बदकिस्मती से गुरुदत्त साहब की ये खूबसूरत फिल्म भी फ्लॉप हो गयी।

कैफ़ी साहब के काम को लेकर तारीफ़ भी मिल रही थी किन्तु बदकिस्मती और ग़मज़दा होने की नियति ने एक और फ़साना गढ़ा, लगातार फिल्मों के फ्लॉप होने की वजह से उन दिनों कैफ़ी साहब के बारे में कहा जाने लगा था कि वे लिखते तो अच्छा हैं लेकिन फिल्मों के लिए वे मनहूस हैं। कैफ़ी साहब इस बात से मायूस रहने लगे। उसी बीच निर्देशक चेतन आनंद की भी फ़िल्में फ्लॉप हो रही थीं।

एक बार चेतन आनंद ने कैफ़ी साहब से मिलकर अपनी आगामी फ़िल्म में गीत लिखने को कहा तो कैफ़ी आज़मी जी ने बताया कि ‘मुझे लोग फिल्मों के लिए अनलकी मानते हैं आप मुझसे मत लिखवाइए।”

इस बात के जवाब में चेतन आनंद हँसते हुए अंदाज़ में बोले –“ कोई बात नहीं मैं भी मनहूस तुम भी मनहूस मिलकर क़िस्मत चमकाएंगे, तुम लिखना शुरू करो” और इस बातचीत के बाद कैफ़ी आज़मी और चेतन आनंद की ‘हकीक़त’ दुनिया के सामने आयी। सिर्फ़ आयी ही नहीं ज़बरदस्त हिट रही। उसके बाद कैफ़ी आज़मी और म्यूजिक डायरेक्टर मदन मोहन की जोड़ी ने हिट गानों का एक साम्राज्य स्थापित कर दिया।

होके मज़बूर उसने मुझे बुलाया होगा
ये नयन डरे डरे, तुम जो मिल गये हो
गरम हवा, वक़्त ने किया क्या हंसी सितम तुम रहे न हम
देखी ज़माने की यारी बिछड़े सभी बारी बारी
…और इतना जो मुस्करा रहे ह़ोद…”


कैफ़ी साहब की शायरी में दर्द को लेकर एक बार एक साक्षात्कार में पूछा गया था तो जवाब मिला कि “बचपन में मेरी बड़ी बहन को टी.वी. हो गया था। आज ये बीमारी नज़ला जुकाम जैसी आम बात है लेकिन उस वक़्त टी वी रोग बड़ा डरावना हुआ करता था। मैं ही उनका इलाज़ कराने जाया करता था।

उसी वक़्त मेरा ग़मज़दा दिल नज्में सोचा करता था, बाद में देश की हालत ने और अपने ऊपर गढ़े अफसानों ने गम का खूब अनुभव कराया, वही मेरे अल्फाजों में आया।” कैफ़ी साहब की इस बात को सुनकर मुझे आज एक बात का अफ़सोस हो रहा है कि कैफ़ी साहब से मैं बता नहीं सकता कि आज कोरोना नामक महामारी ने नज़ला जुकाम को भी साधारण नहीं छोड़ा। खैर कैफ़ी साहब पर सहमती और असहमति का भी बराबर दौर चलता रहा उनका मार्क्सिस्ट होना आज भी कई लोगों को खटकता है।

फ़िल्म और बॉम्बे में शोहरत हासिल करने के बाद एक दिन उन्हें अपनी इस शायरी की तरह

“राम बनवास से लौटकर जब घर में आये,
याद जंगल बहुत आया जब नगर में आये”

अपने गाँव की फ़िर याद आयी और आज़मी साहब ने साल 1992 में मिजवां वेलफेयर सोसायटी की स्थापना की जिसके तहत उन्होंने अपने गाँव की आधारभूत ज़रूरतों पर बहुत काम किया और साल 2002 में 10 मई के दिन अंतिम साँसे लेकर इस धरती को

‘कर चले हम फ़िदा जाने तन साथियों’

हते हुए अलविदा कह गए। आज मुल्क़ के चहेते शायर की पुण्यतिथि पर उनकी शायरी से ही इस लेख का अंत करना उचित होगा…

“रूह बेचैन है ये दिल अज़ीयत क्या है,
दिल ही शोला है तो ये सोंज़ ए मोहब्बत क्या है
वो मुझे भूल गयी इसकी शिकायत क्या है
रंज तो है के रो रो के भुलाया होगा ”

भुलाना तो क्या कैफ़ी आज़मी साहब रो—रो कर आपको याद करने वालों की कोई कमी नहीं है।

(लेेखक फ़िल्म स्क्रीन राइटर, फ़िल्म समीक्षक, फ़िल्मी किस्सा कहानी वाचक है)

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