Politics : बिहार में आरक्षण का दांव
–दस्तक ब्यूरो, पटना
आरक्षण ऐसा दांव है, जिसके जरिए वोटरों को साधने का काम किया जाता है। भले ही इसके लिए समाज को बांटना ही क्यों न पड़े। जातियों को टुकड़े-टुकड़े क्यों न करना पड़े। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद देश में जातीय राजनीति ने तेजी से उभार लिया। विभिन्न जातियों के नेता पैदा हुए, सत्ता पर पहुंचे। बिहार में तो जातीय राजनीति चरम पर है। बीते वर्ष नीतीश सरकार ने कुछ जातियों को लुभाने के लिए आरक्षण की सीमा को 50 से बढ़ाकर 65 फीसदी कर कर दिया था। इससे संबंधित बनाए गए कानून को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। 20 जून को पटना हाईकोर्ट ने सरकार के आरक्षण के इस कानून को रद कर दिया। अब राज्य सरकार इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में जाने की तैयारी में है। विपक्षी भी इसे लेकर एनडीए सरकार पर निशाना साध रहे हैं। इस तरह आरक्षण की इस सीमा का दांव कोई भी छोड़ना नहीं चाहता। इसका एक बड़ा कारण अगले वर्ष होने वाला विधानसभा का चुनाव है। तभी तो कोई भी दल हाईकोर्ट के निर्णय से सहमत नहीं है।
बिहार सरकार की ओर से दो अक्टूबर 2023 को जातीय जनगणना की रिपोर्ट जारी की गई थी। इसके अनुसार बिहार में सबसे अधिक जनसंख्या पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग की है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 27.12 फीसदी पिछड़ा वर्ग और 36 प्रतिशत जनसंख्या अत्यंत पिछड़ा वर्ग की है। इस आधार पर सरकारी नौकरी एवं शैक्षणिक संस्थानों के दाखिले में ओबीसी, ईबीसी, दलित और आदिवासियों का आरक्षण बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया था। इसमें सामान्य श्रेणी को मात्र 35 प्रतिशत व आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने की बात थी। राज्य सरकार के इस कानून को 21 नवंबर, 2023 को कोर्ट में चुनौती दी गई। तमाम दलीलें सुनने के बाद पटना हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीश के विनोद चंद्रन एवं न्यायाधीश हरीश कुमार की खंडपीठ ने आरक्षण को 65 फीसदी करने वाले कानून को रद कर दिया। वैसे पहले ही सुप्रीम कोर्ट आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं बढ़ाने के संंबंध में निर्णय दे चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की सीमा पर 50 प्रतिशत का प्रतिबंध लगाया था। सुनवाई में महाधिवक्ता ने आरक्षण के पक्ष में जमकर वकालत की। इन वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होने के चलते आरक्षण की यह व्यवस्था करने की बात कही, लेकिन कोर्ट उससे सहमत नहीं हुआ। हाईकोर्ट के निर्णय के बाद इस पर राजनीति भी होने लगी है। बयानबाजी की जा रही है। तमिलनाडु का हवाला दिया जा रहा, जहां 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण है। उसी तरह यहां पर आरक्षण देने की बात कही जा रही है। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने तंज कसते हुए कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कोर्ट के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जाना चाहिए। यदि सरकार नहीं जाएगी तो राजद जाएगा। जदयू के वरिष्ठ नेता व जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी ने इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही है।
इस तरह मिला था तमिलनाडु में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण
देश में तमिलनाडु इकलौता राज्य है, जहां 50 फीसदी से अधिक आरक्षण है। उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसका भी संवैधानिक कारण है। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं। वर्ष 1971 तक इसके तमिलनाडु में आरक्षण की सीमा 41 फीसदी थी। उस समय करुणानिधि सरकार ने ओबीसी आरक्षण की सीमा 25 फीसदी से बढ़ाकर 31 कर दिया था। साथ ही उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का आरक्षण 16 से 18 फीसदी कर दिया था। इस तरह आरक्षण 49 फीसदी तक पहुंच गया था। राज्य में एआइएडीएमके की सरकार वर्ष 1980 में बनी तो उसने ओबीसी का आरक्षण 50 प्रतिशत कर दिया था। 18 फीसदी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के साथ यह सीमा 68 फीसदी पहुंच गई थी। मद्रास हाईकोर्ट ने 1990 में एससी को 18 प्रतिशत आरक्षण के अलावा एक फीसदी कोटा अलग से एसटी के लिए कर दिया। इससे आरक्षण 69 फीसदी पहुंच गया। इंदिरा साहनी केस में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण नहीं देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखते हुए 1993 में जयललिता सरकार ने विधानसभा के विशेष सत्र में इस संबंध में एक प्रस्ताव पास कर तब की नरसिम्हा राव सरकार के पास भेजा। तब केन्द्र सरकार ने तमिनलाडु के इस आरक्षण कानून को संविधान की नौवीं सूची के तहत डाल दिया। दरअसल जो विषय संविधान की नौवीं सूची में है, उसका कोर्ट समीक्षा नहीं कर सकता। इसी आधार पर तेजस्वी मांग कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार बिहार के आरक्षण सीमा को नौवीं सूची में डाले।