भारत के सुकरात के शिष्य सत्यनिष्ठा और निर्भीकता के उदाहरण थे गोखले
भारत के ग्लैडस्टोन गोपाल कृष्ण गोखले की जयंती पर विशेष
स्तम्भ: महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि फिरोजशाह मेहता यदि हिमालय हैं तो बाल गंगाधर तिलक महासागर परन्तु गोपाल कृष्ण गोखले गंगा नदी के समान हैं। हिमालय या महासागर पार करना काफी कठिन होता है लेकिन गंगा नदी सभी को अपने अवगाहन के लिए बुलाती है । फर्ग्युसन कॉलेज के अध्यक्ष गोखले से मिलकर गांधी उनके मुरीद हो गए। गोखले से गांधी की पहली मुलाकात 12 अक्टूबर , 1896 को पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में हुई थी। गांधी, फिरोजशाह मेहता की सलाह पर मुंबई से पुणे गए थे, जहां वो गोखले के अलावा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और आर जी भंडारकर से भी मिले थे। इस मुलाकात के बाद गांधीजी ने तीनों महान नेताओं की खासियत बताते हुए लिखा:
“फिरोजशाह मेहता मुझे हिमालय जैसे लगे, लोकमान्य समुद्र के समान, तो गोखले गंगा जैसे जान पड़े, जिसमें आप नहा सकते हैं. हिमालय पर चढ़ा नहीं जा सकता, समुद्र में डूबने का खतरा रहता है, पर गंगा की गोद में तो क्रीड़ा की जा सकती है।”
गांधी और जिन्ना के गुरु थे गोखले
भारतीय राजनीतिक जगत में गोखले की स्वीकार्यता और धाक इस स्तर पर थी कि आगे चलकर पाकिस्तान के कायदे-आजम हुए मुहम्मद अली जिन्ना भी गोखले को अपना रोल मॉडल और मेंटॉर मानते थे। इतना ही नहीं 1912 में दिए एक भाषण में उन्होंने ‘मुस्लिम गोखले’ हो जाने की ख्वाहिश भी दिखाई थी। गोखले की सलाह पर ही जिन्ना मुस्लिम लीग में शामिल हुए थे, इस शर्त पर कि “मुस्लिम लीग और मुसलमानों के सरोकार के प्रति वफादारी का तात्पर्य किसी भी तरह से यह नहीं होगा कि उसकी छायामात्र भी राष्ट्र के प्रति उनकी निष्ठा पर पड़े जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया है।”
उनका सपना मुस्लिम गोखले बनना था। गोखले को गांधी स्वयं अपना राजनीतिक गुरू स्वीकार करते थे। अपनी आत्मकथा में भी उन्होंने गोखले को अपना मेंटॉर और गाइड बताया है। उन्होंने कहा है कि गोखले की बात निराली है। उन्होंने मेरे हृदय में मेरे राजनीतिक गुरु की तरह निवास किया। उनसे मिलने से पहले मेरे मन में भय था। लेकिन उन्होंने एक क्षण में मेरे मन का सारा भय दूर कर दिया…और जब मैंने उनसे विदा ली, उस समय मेरे मन से एक ही आवाज आई – यही है मेरा गुरु। ” गांधी के ही बुलावे पर गोखले ने साल 1912 में दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया था।गांधी ने साल 1915 में भारत वापसी के बाद एक साल तक बिना कोई राजनीतिक कार्यक्रम चलाए। भारत-भ्रमण का फैसला गोखले के सुझाव पर ही लिया था।
गोखले का शैक्षणिक सफर
गोपाल कृष्ण गोखले डेक्कन एजुकेशन सोसायटी से संबंधित फर्ग्युसन कॉलेज में प्राध्यापक थे जो वर्ष 1885 में गठित हुआ था। इससे पूर्व ही गोखले 1880 में तिलक के संपर्क में न्यू इंग्लिश स्कूल के जरिए आ गए थे। इस स्कूल को वर्ष 1880 में बाल गंगाधर तिलक, गोपाल गणेश आगरकर, विष्णु शास्त्री चिपलुणकर और महादेव बल्लाल नामजोशी ने शुरू किया था जो कालांतर में 1884 में दक्कन एजुकेशन सोसाइटी के रूप में पुणे में गठित हुई थी। बाद में ये महाराष्ट्र के ‘सुकरात’ कहे जाने वाले गोविन्द रानाडे के शिष्य बन गये। शिक्षा पूरी करने पर गोपालकृष्ण कुछ दिन ‘न्यू इंग्लिश हाई स्कूल’ में अध्यापक रहे। बाद में पूना के प्रसिद्ध फर्ग्यूसन कॉलेज में इतिहास और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बन गए।
अंग्रेजी भाषा के प्रति उनका विशेष लगाव था। अपने सहयोगियों से जिनमें आगरकर प्रधान थे मतभेद हो जाने के कारण बाल गंगाधर तिलक 1891 में फर्ग्युसन कॉलेज और दक्कन एजुकेशन सोसाइटी से अलग हो गए। तिलक के पदत्याग कर देने के बाद गोखले को अंग्रेजी पढ़ानी पढ़ रही थी, यद्यपि उनका विषय गणित था क्योंकि अंग्रेजी पढ़ाने के लिए अधिक समय और तैयारी की जरूरत थी, दक्कन एजुकेशन सोसाइटी ने यह आवश्यक समझा कि गणित पढ़ाने के लिए किसी योग्य अध्यापक को नियुक्त करें जो प्रोफेसर गोखले को गणित से छुटकारा दिला सके तब उन्हें धोंडो केशव कर्वे का ध्यान आया जो एलफिंस्टन कॉलेज में उनके समकालीन छात्र थे और गणित के अध्ययन में उन्होंने अच्छी ख्याति प्राप्त की थी।
प्रोफ़ेसर गोखले ने अपने पत्र में डी के कर्वे को फर्गुसन कॉलेज में अध्यापन करने के लिए आमंत्रण दिया था। फर्ग्युसन कॉलेज जैसे प्रतिष्ठित संस्था का बुलावा कर्वे को बड़ा सम्मान पद और दुर्लभ सौभाग्य जान पड़ा लेकिन उन्हें आत्म संदेह था कि वह सिर्फ बीए तक पढ़े थे, इसलिए इस संशय में पड़ गए कि बीए के विद्यार्थियों को कैसे पढ़ा सकूंगा । उन्हें लगा कि कॉलेज की कक्षाएं बड़ी बड़ी होती है, छात्र वृंद को मैं नियंत्रण में नहीं कर सकूंगा ।
उन्होंने अपने मित्र को धन्यवाद देते हुए खेद के साथ इस आमंत्रण को स्वीकार करने की ठानी । जब उन्होंने अपने भूतपूर्व अध्यापक राजा राम शास्त्री से इस निर्णय के बारे में बात की तो उन वयोवृद्ध तथा कृपालु सहृदय ने कर्वे को उनकी अस्पष्ट शंका को उपहासास्पद बताया। उन्होंने कहा कर्वे यह मूर्खता होगी ऐसा मत करो।
अगर तुमने निमंत्रण स्वीकार नहीं किया तो आजीवन अपनी मूर्खता पर पछताओगे कर्वे ने नम्रता पूर्वक अपने गुरु से कहा गुरु जी शिक्षण का सहयोग मुझे यहां भी मिला है मेरे लिए वही बहुत है मैं मराठा स्कूल को छोड़ने की बात ही क्यों सोचो वह इसलिए कि फर्ग्युसन कॉलेज में तुम्हारी जरूरत है और वहां तुम्हें अपने हृदय की अंतरंग अभिलाषा को पूरा करने के और भी अच्छे अवसर मिलेंगे । इस पर कर्वे ने राजा राम शास्त्री का परामर्श शिरोधार्य किया।
गोखले को कई पाश्चात्य विचारकों जैसे एडमंड बर्क आदि के विचारों से लगाव था । उन्होंने बर्क की पुस्तक रिफ्लेक्शन्स ऑफ द् फ्रेंच रिवोल्यूशन को कंठस्थ कर, बर्क से न केवल भाषण कला की प्रेरणा प्राप्त की बल्कि ब्रिटिश रूढिवाद को भी अपना लिया। गोखले का उदारवादी चिंतन तथा उनके क्रांति विरोधी विचार, बर्क के विचारों से ही प्रभावित थे।जिस समय वे फर्ग्यूसन कॉलेज में कार्यरत थे तब उनकी भेंट महादेव रानाडे से हुई। वे गोखले की बुद्धिमता और कर्त्तव्य-परायणता से अत्यधिक प्रभावित हुए। रानाडे के मार्ग निर्देशक में उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन आरंभ किया। वे रानाडे को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।
रानाडे ने उन्हें पूना की सार्वजनिक सभा का सचिव बनवा दिया। यह सभा बंबई प्रदेश की मुख्य राजनीतिक संस्था थी, अतः इस संस्था का कार्य करते हुए गोखले प्रांत के प्रमुख व्यक्तियों में गिने जाने लगे। फर्ग्यूसन कॉलेज के विस्तार के लिए धन एकत्रित करने के लिए उन्होंने महाराष्ट्र का दौरा करना पङता था। 31 वर्ष की आयु में ही दक्कन सभा ने उन्हें इंग्लैण्ड में वेल्वी आयोग के समक्ष सभा का प्रतिनिधित्व करने भेजा। नौकरियों का भारतीयकरण करने तथा सेना के व्यय को कम करने के संबंध में उन्होंने आयोग के समक्ष जो तर्क प्रस्तुत किये उससे अत्यंत ही प्रभावित हुआ।
1899 ई. में वे बंबई व्यवस्थापिका के लिए प्रदेश के केन्द्रीय क्षेत्र की नगरपालिकाओं के प्रतिनिधि चुने गये। विधायक के रूप में उन्होंने सरकार की भू-राजस्व नीति की आलोचना की और भूमि हस्तांतरण अधिनियम को सरकारी बहुमत से पारित किये जाने के विरोध में अन्य चुने हुए सदस्यों के साथ परिषद् से बहिर्गमन किया।
उन्होंने जिला नगरपालिका अधिनियम में संशोधन के प्रस्ताव का भी विरोध किया तथा उसकी कमियों को दूर करने के लिए सुझाव दिए। 1902 ई. में वे केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य चुने गये। अनेक सार्वजनिक हितों एवं समस्याओं पर गोखले ने अपने विचारों से भारत में ब्रिटिश शासन का मार्गदर्शन किया। बजट पर होने वाली बहस में उनके भाषणों का विशेष महत्त्व माना जाता था। उन्हें न केवल सदस्यों द्वारा बल्कि शासकों द्वारा भी ध्यान से सुना जाता था। लार्ड कर्जन के प्रतिक्रियावादी सुधारों का गोखले ने तीव्र विरोध किया, फिर भी कर्जन ने गोखले की विधायी प्रतिभा की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए कहा, ईश्वर ने आपको असाधारण योग्यता दी है और आपने इसको बिना किसी शर्त के देश सेवा में लगा दिया है।
गोखले की सफलता का रहस्य उनकी भाषण-शैली , तथ्यों का चयन,मृदुभाषिता एवं विचारों की सौम्यता थी। गोखले का अर्थशास्त्र संबंधी गहन ज्ञान था। वे भारतीयों के द्वारा राष्ट्रीय वित्त पर नियंत्रण रखे जाने के पक्ष में थे। इंग्लैण्ड में प्रवास के दौरान गोखले को पूना के पत्रकारों द्वारा सूचना प्राप्त हुई कि बंबई प्रशासन में प्लेग की रोकथाम के लिए जो कदम उठाये, उससे जनमत क्रुद्ध हो उठा है तथा पूना में दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी है।
पूना से मिली सूचना के आधार पर गोखले ने इंग्लैण्ड में वक्तव्य दिया कि प्लेग की रोकथाम के दौरान गोरे सिपाहियों ने भारतीय महिलाओं का शील भंग किया जिससे उन महिलाओं ने आत्महत्या कर ली।
गोखले के इस वक्तव्य से ब्रिटिश संसद में सरकार पर प्रश्नों की बौछार शुरू हो गयी।किन्तु बंबई सरकार ने इस खबर को निराधार पाया। इस पर उन्होंने तुरंत बंबई के गवर्नर से लिखित क्षमायाचना की। इस पर गोखले के विरोधियों ने इनकी तीव्र आलोचना की। किन्तु गोखले ने क्षमायाचना से स्पष्टवादिता,सत्यनिष्ठा और निर्भीकता का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।
गोखले भारत के राजनीतिक तथा सार्वजनिक जीवन में ऐसे कार्यकर्त्ता तैयार करना चाहते थे जो धर्मनिष्ठ होकर जन सेवा का कार्य कर सकें। अतः गोखले ने 1905 ई. में भारत सेवक समाज की स्थापना कर देशभक्तों का एक संगठन तैयार किया।
इस संगठन के उद्देश्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन की प्राप्त,भारत तथा ब्रिटेन के संबंधों की अनिवार्यता,भारत में ब्रिटिश शासन ईश्वर के वरदान के रूप में स्वीकारोक्ति आदि थे।जनता के राजनीतिक शिक्षण, विभिन्न समुदायों में प्रेम एवं सहिष्णुता, स्त्रियों तथा दलितों की शिक्षा का विस्तार,वैज्ञानिक एवं औद्योगिक शिक्षा का प्रचार,भारत में औद्योगिक विकास के लिए प्रयत्न तथा संवैधानिक पद्धति से राष्ट्रीय हितों का संरक्षण आदि इस सोसाइटी के मुख्य कार्य थे। 1905 ई. में गोखले काँग्रेस प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में लाला लाजपतराय के साथ इंग्लैण्ड गये, जहाँ ब्रिटेन की जनता को भारतीय हितों से अवगत कराया। इंग्लैण्ड से लौटने पर गोखले ने 1906 ई. में काँग्रेस के बनारस-अधिवेशन की अध्यक्षता की।
तत्पश्चात् वे पुनः इंग्लैण्ड गये और भारत सचिव मॉर्ले से भारत में संवैधानिक सुधारों की माँग की। गोखले,तिलक, लाजपतराय, विपिनचंद्र पाल के निष्क्रिय प्रतिरोध एवं स्वराज्य के कार्यक्रम को उचित नहीं मानते थे। ब्रिटिश सरकार ने गोखले के कार्य-कलापों से प्रभावित होकर उन्हें लार्ड इजलिंगटन की अध्यक्षता में नियुक्त पब्लिक सर्विसेज कमीशन का सदस्य मनोनीत किया।
गोविंद रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें भारत का ‘ग्लेडस्टोन’ कहा जाता है।
गोपाल कृष्ण गोखले का जन्म 9 मई, 1866 को हुआ था। पिता के असामयिक निधन ने गोपाल कृष्ण को बचपन से ही सहिष्णु और कर्मठ बना दिया था। वे भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी समाजसेवी, विचारक एवं सुधारक थे। गोपाल कृष्ण तब तीसरी कक्षा के छात्र थे।
अध्यापक ने जब बच्चों के गृहकार्य की कॉपियाँ जाँची, तो गोपाल कृष्ण के अलावा किसी के जवाब सही नहीं थे। उन्होंने गोपाल कृष्ण को जब शाबाशी दी, तो गोपाल कृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। सभी हैरान हो उठे। गृहकार्य उन्होंने अपने बड़े भाई से करवाया था। यह एक तरह से उस निष्ठा की शुरुआत थी, जिसके आधार पर गोखले ने आगे चलकर अपने चार सिद्धांतों की घोषणा की-
- सत्य के प्रति अडिगता
- अपनी भूल की सहज स्वीकृति
- लक्ष्य के प्रति निष्ठा
- नैतिक आदर्शों के प्रति आदरभाव।
गोखले और कर्जन
1905 में कांग्रेस के बनारस सम्मेलन में अध्यक्ष के तौर पर दिये गए भाषण में उन्होंने कहा था-
“सात सालों तक रहे लॉर्ड कर्जन के शासन का अंत हुआ है… मैं इसकी तुलना औरंगजेब के शासन से करता हूं। इन दोनों शासकों में अनेक समानताएं हैं. जैसे अत्यधिक केंद्रीकृत शासन, स्वेछाचारी व्यक्तिगत फैसले, अविश्वास और दमन। सौ सालों से भी अधिक समय से भारत इंग्लैंड के लिए ऐसा देश बन गया है, जिसकी अपार दौलत देश से बाहर ले जाई गयी है।”
गोखले की विधिक और संविधानिक जिंदगी
गोपाल कृष्ण गोखले, जिन्होंने सबसे पहले एक सरकारी बिल के विरोध में लेजिस्लेटिव काउंसिल से वॉक आउट किया था । 1910 में ब्रिटिश वित्त-सचिव सर एडवर्ड-लॉ ने भरे सदन में गोखले के भाषण से पहले कहा कि, ‘जब गोखले अपनी बात रखने के लिए खड़े होते हैं तो ऐसा लगता है कि हजारों सालों के अभ्यास के बाद एक मातम मनाने वाला अपना प्रदर्शन करने के लिए तैयार है. वो ऐसा कारुणिक रुदन करते हैं कि लगता है ये न्यायप्रिय सरकार गरीबों के हित के लिए कुछ नहीं कर रही है। जब किसानों से भूमि अधिकार छीनने के लिए रखे गए एक बिल पर चर्चा चल रही थी। फिरोजशाह मेहता ने बिल की कड़ी आलोचना करते हुए कहा, ‘ब्रिटिश हुकूमत एक ऐसी बाप बनती जा रही है जो मां से कहती है कि बच्चों को गरीबी में भी जिंदा रखो। जबकि वो खुद अय्याशी करने में मगन है। “
मेहता आगे बोले, ‘एक भारतीय किसान के जीवन में क्या है? मिट्टी के कुछ नए बर्तन। कुछ जंगली किस्म के फूल। देहाती टमटम। पेट भर खाना। रद्दी सा पान सुपारी और कभी-कभी भड़कीले चांदी के गहने। यही तो वे चंद खुशियां हैं जो एक सामान्य गृहस्थ जिसकी जिंदगी सुबह से शाम तक एक थका देने वाले श्रम की अटूट कड़ी है त्योहार के मौके पर महसूस करता है। ” इसके बाद सरकार बहुमत के बल पर विधेयक पास करने पर अड़ गई तो मेहता, गोखले और दूसरे सदस्य सदन से वॉकआउट कर गए। ऐसा उससे पहले कभी नहीं हुआ था। ऐसा करने से अंग्रेज और उनके समर्थक जल-भुन गए। उस वक्त टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार के एडिटर भी एक अंग्रेज ही हुआ करते थे। उन्होंने लिखा, ‘इन सदस्यों से फौरन इस्तीफा लिखवा लेना चाहिए।
गोखले का योगदान
गोखले ने बाल विवाह शोषण रोकने के लिए कंसेंट बिल का समर्थन किया था जो 1891 में पेश किया गया था। इसके जरिए कंसेट एज 10 से बढ़ाकर 12 साल कर दी गई थी। इंडियन नेशनल कांग्रेस अपने आंदोलन के लिए दुनिया भर के समर्थन की खोज में थी। इसी वक्त बस 5 साल पहले कांग्रेस से जुड़े गोखले ने आयरलैंड का दौरा किया। आयरिश नागरिकता वाले ब्रिटिश पार्लियामेंट के मेंबर अल्फ्रेड वेब को 1894 में इंडियन नेशनल कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए राजी कर लिया। ये दुनिया को अपने स्वतंत्रता के आंदोलन से जोड़ने की दिशा में बड़ा सफल कदम था।
गोखले की सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी ने शिक्षा के प्रसार के लिए स्कूल बनवाए। रात में पढ़ाई के लिए फ्री-क्लासें लीं और एक मोबाइल लाइब्रेरी की भी व्यवस्था की। गोखले ने अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का अपना फॉर्मूला साल 1910 में ‘प्राथमिक शिक्षा बिल’ के रूप में रखा। 1910 में गोखले ने नटाल इंडेंचर्ड लेबर ( बलात श्रम) विधेयक का प्रस्ताव भी किया था। इसका उद्देश्य भारत से अफ्रीका गए बधुआ मजदूरों का शोषण रोकना था।
गोखले का सामाजिक सरोकार
तथाकथित निचली जातियों के लोगों के साथ होने वाले बुरे बर्ताव की उन्होंने बेहद कड़े शब्दों में निंदा की थी “निचली जातियों के लोगों की हालत (जिन्हें निचली जाति का कहने में तकलीफ होती है), सिर्फ असंतोषजनक नहीं है। ये इतनी खराब है कि इसे हमारी सामाजिक व्यवस्था पर एक बड़ा दाग कहना चाहिए। कोई भी इंसाफ पसंद व्यक्ति मानेगा कि इंसानों के एक तबके को, जो शरीर, बुद्धि और मन से हम जैसे ही हैं, अनंतकाल के लिए दरिद्रता, अभाव, अपमान और गुलामी की जिंदगी जीने के लिए मजबूर करना पूरी तरह राक्षसी काम है।
इतना ही नहीं, उनके विकास के रास्ते में ऐसी अड़चनें खड़ी की गई हैं कि वो अपनी हालत में कभी सुधार ही न कर सकें। ये स्थिति इंसाफ की भावना के बिलकुल खिलाफ है। अगर हमारे देशवासियों की बड़ी आबादी इन हालात में रहने को मजबूर होगी, तो हम अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं को पूरा करने और दुनिया के देशों में सम्मानजनक जगह बनाने में कामयाब कैसे हो सकते हैं?”
गोखले का स्वर्गवासी होना
गोखले 19 फरवरी 1915 को मात्र 49 साल की उम्र में चल बसे थे । गोखले को डायबिटीज और कार्डिएक अस्थमा की शिकायत थी। गांधी उस वक्त बंगाल में थे। गांधी वहां गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने गए थे।
गोखले की मृत्यु का समाचार सुनकर वो वहां से चले आए। एक महीने बाद उन्होंने टैगोर से दुबारा शांतिनिकेतन जाकर मुलाकात की। गांधी का कहना था कि गोखले क्रिस्टल की तरफ साफ थे। एक मेमने की तरह दयालु थे। एक शेर की तरह साहसी थे। और इन राजनीतिक हालात में आदर्श पुरुष थे। पट्टाभि सीतारामैय्या ने उनके लिए कहा था, ‘गोखले विरोधियों को हराने में नहीं, उन्हें जीतने में यकीन रखते थे।’
उनकी मृत्यु पर तिलक ने तब उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था
“भारत का ये नगीना, महाराष्ट्र का ये रत्न, कामगारों का ये राजकुमार आज चिरनिद्रा में सो रहा है। इसकी तरफ देखो और इसके जैसा बनने की कोशिश करो। “
(लेखक अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं)