दस्तक-विशेष

काषायधारी को पूर्व कैदी का लाल सलाम !!

के. विक्रम राव

स्तंभ: योगी आदित्यनाथजी ने सत्तर साल पुरानी (1941 वाली) ब्रिटिश जेल नियमावलि को 16 अगस्त 2022 को निरस्त कर दिया। उसे आधुनिक बना दिया। अतः फांसी का यह दण्डारोपी रहा, पूर्व कैदी (1976 का डाइनामाइट केस वाला), मैं (श्रमजीवी पत्रकार) मुख्यमंत्री का कृतज्ञ हूं। हमारी पुरानी जनवादी मांग उन्होंने स्वीकारी। नारकीय कारागारों को खत्म कर, मानवीय बना दिया। जेल में जन्मे शिशु कृष्ण के अवतार की बेला पर ये समस्त सुधार घोषित हुये हैं। क्या संयोग है! या माकूल मुहूर्त?

लेकिन कोफ्त तो होती है। खलिश, खासकर! राज-काज चलाने वाले अधिकतर मंत्री, आठ प्रधानमंत्री और बहुतेरे मुख्यमंत्री जेल काट चुके हैं, फिर भी भारत की जेलों में पूरी सदी के दरम्यान पर्याप्त सुधार हुए ही नहीं। माना कि ‘‘जेल होटल नहीं हो सकता।‘‘ यही कहा था इन्दिरा गांधी के गृह राज्यमंत्री ओम मेहता ने अपने समधी बलिया के सांसद ठाकुर चन्द्रशेखर सिंह से, जब दो लाख विरोधियों को इमरजेन्सी (1975) में जेल में ठूँसा गया था। लेकिन यह भी सच है कि कानून और व्यवस्था का एक अदना हिस्सा ही जेल अब हो गया था। पुलिस तथा न्यायपालिका से जुड़कर जेल एक नुकीला त्रिभुज बनाता है। न्यायिक हिरासत जेल व्यवस्था का खास अंग है। कठोर और निर्मम।

भारत में आधुनिक जेलों का निर्माण करने वाली ब्रिटिश सरकार ने राजनेता जान हावार्ड के आन्दोलन पर जेल सुधार कार्यक्रम अपनाया था। भारत में अंग्रेजी शासन वाले प्रांतों में 1920 में एक सुधार समिति बनी थी। इसने जेल कानून में संशोधन और सूचारू प्रबंध में प्रशिक्षित कर्मियों के आवश्यकता पर बल दिया था। इसके अध्यक्ष एलेक्सेंडर कार्डयू ने कैदियों के पुनर्वास के लिये कारगर योजना सुझायी थी। बाद में जवाहरलाल नेहरू के राज्य के दौरान 1957 में डब्लयू. सी. रेक्लूज की अध्यक्षता में जेल सुधार समिति बनी। इसने राष्ट्रीय जेल मैनुअल नियामावली की रचना का प्रस्ताव किया था। इसी दिशा में 1972 में इंदिरा गाँधी ने जेल सुधार कार्यदल स्थापित किया था। मगर जनापेक्षा 1977 में बढ़ी थी, जब सिवाय जगजीवन राम तथा हेमवती नंदन बहुगुणा के, सारे केन्द्रीय काबीना के मंत्रीगण ने जेल से रिहा होकर अपने पद और गोपनीयता की शपथ ली थी। मगर मोरारजी देसाई की इस जनता पार्टी सरकार ने जेल से सरकार में आने पर भी जेल सुधार को प्राथमिकता के तौर पर लिया ही नहीं। एक मील का पत्थर 1980 में आया था, जब न्यायमूर्ति आनन्द नारायण की अध्यक्षता में जेल सुधार समिति इंदिरा गांधी ने बनायी थी। इसकी रपट ठंडे बस्ते में रह गयी।

तो योगीजी ने अब बहुत सत्कार्य किया। महिला कैदियों को सधवा बना दिया! गिरफ्तारी पर इन बन्दिनियों का मंगलसूत्र जमा करा लिया जाता था। अब परिष्कृत जेल नियमावलि के अनुसार वे सधवा के इस भूषण को पहने रहेंगी। इन ऋतुमतियों को स्वच्छता (सेनिटरी) पैड मिलेगा। शैंपू और तेल भी। परिधान में शलवार-कुर्ती पहनने की अनुमति होगी। शिशुओं की देखरेख, नामकरणवाले अनुष्ठान आदि होंगे। गर्भवती कैदी को पौष्टिक आहार उपलब्ध होगा, टीकाकरण, औषधियां भी। सरसों के तेल की जगह अब रिफाइंड तेल मिलेगा। बेकरी खुलेगी। पुरूष कैदी को मुड़ाई, कटाई और छटायी के साथ दाढ़ी की हजामत (भुगतान पर) का नियम बना है। सारी सूचनायें अब कम्प्यूटर पर दर्ज होंगी। कारागार राज्यमंत्री धर्मवीर प्रजापति ने बताया कि पर्वों पर पकवान, रोजेदारों को खजूर और उपवास पर गुड़ दिया जायेगा। याद आया, बड़ौदा जेल में मुझे नाश्ते में केवल गुड़-चना ही मिलता था। चना तो चिड़ियों को और गुड़ चीटियों को मैं खिला देता था। बागवानी खूब करता था। सैकड़ों तुलसी के पौधे रोपे। जेलर पण्डया मुदित होते थे। विप्र जो ठहरे!

मुख्यमंत्री द्वारा ढेर सारे परिमार्जन के फैसलों के इन परिवेश में मुझे लगता है कि जो लोग जेलें बनाते हैं, वे अवश्य नरक देखकर आये होंगे। क्योंकि धरा पर कहीं नरक है तो वह बस जेल में ही है। अतः अब योगी शासन को सजा में छूट के बारे में भी सोचना चाहिये। मसलन मैंने कई आजीवन कारावास के कैदियों का इन्टर्व्यू किया। वे सभी पत्नीहंता थे। मैंने पूछा कि पश्चाताप है ? वे सभी बोले ‘‘हां‘‘। फिर क्यों हत्या की ? जवाब था : ‘‘परपुरूष के साथ हमबिस्तर थी। पकड़ा तो मर्द भाग गया। स्त्री हाथ लगी। क्रोध में मार डाला।‘‘ ऐसे लोगों को प्रायश्चित का मौका मिलना चाहिये। एक सत्कार्य मैने और किया था। जिन अनपढ़, अज्ञानी कैदियों ने निर्धारित अवधि की सजा काट ली थी, उनसे आवेदनपत्र करा कर उन्हें रिहा भी मैंने कराया। हाईकोर्ट से टाइपराइटर पास रखने की मुझे अनुमति थी। उसका जेल में खूब इस्तेमाल किया।

‘‘उसके जेल में प्रवेश मात्र से आभास हो जाता है कि वह राष्ट्र कितना सभ्य है”, कहा था रूसी उपन्यासकार फ्योडोर दोस्तोविस्की ने। दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर भारत के पांच जेलों में तेरह महीने गुजारने के आधार पर यह सब मेरा निजी तजुर्बा है। कई जगह प्रति आठ कैदियों को गुसल के लिए केवल एक बाल्टी पानी दिया जाता है। घर से आया खाना रिश्वत देने पर भी उन्हें नहीं मिलता था, जबकि अदालत का आदेश है कि आरोपी कैदी घर का खाना मंगवा सकता है। दूसरी ओर तस्करी में पकड़े गये बन्दियों को हर किस्म का ऐशो-आराम उपलब्ध रहते हैं।

जेल में भीड़ का खास कारण यह है कि कोर्ट में रिमाण्ड कैदी और मुल्जिम की देरी से सुनवाई के कारण मुद्दत तक वे लोग जेल में पड़े रहते हैं। जेल सुधार में एक व्यवधान हमेशा यह रहा कि यह संविधान की धारा 252 के तहत राज्य सूची में जेल का विषय है। अतः इस पर केंद्र सरकार कोई कानून नहीं बना सकती है। यह मात्र एक बहाना है। आये दिन मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाकर प्रधानमंत्री अन्य कई विषयों पर राष्ट्रव्यापी कानून का मसविदा तय कर लेते हैं। फिर जेल सरीखे महत्वपूर्ण मसले पर राज्यों की स्वीकृति से सुधारवादी कानून क्यों नहीं बन सकते ? जेल कानून 1884 में बना था। डेढ़ सदी बीत गयी। इसमें आमूलचूल परिवर्तन पर विचार टलता रहा। वर्ष 1998 में उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय स्तर पर एक समान मैनुअल (नियमावली) तैयार करने का आदेश दिया था। जेल मैनुअल विलायती सरकार ने देशी प्रजा को अपराधी जाति में रखकर बनाया था। आजाद भारत में इस औपनिवेशिक नियमावली का उपयुक्त स्थान राष्ट्रीय संग्रहालय होना चाहिये था। जब राज्य सभा में (14 जून 1998) प्रश्न पूछा गया कि केन्द्रीय सरकार जेल मैनुअल के सुधार पर क्या कदम उठा रही है तो तत्कालीन गृह मंत्री लालचन्द किशिनचंद आडवाणी ने लिखित उत्तर में कह दिया था कि भारत सरकार जेलों के आधुनिकीकरण हेतु वित्तीय मदद दे सकती है। शेष कार्य राज्य सरकारों को ही करना होगा। यह बस टका सा जवाब था उस व्यक्ति के पास से जो स्वयं भुक्तभोगी है तथा महीनों जेल में रह चुका है। इसी जानी बूझी उपेक्षा की परिणति है कि आज जेलों के भीतर अपराधी ज्यादा स्वतंत्र हैं। महाराष्ट्र के औरंगाबाद तथा नासिक जेलों में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने छापा मारा तो सेल फोन, विदेशी मुद्रा आदि पकड़ी और अधीक्षकों को निलंबित कर दिया। उत्तर प्रदेश की जेलों में माफिया कैदियों की सुविधा जनक जिंदगी का विवरण बहुधा सुर्खियों में रहता है। मगर योगीजी के सुधारों के बाद अब खूंखार कैदी माफिया मुख्तार अंसारी को फल-मिठाई आदि की तस्करी नहीं करनी पड़ेगी। अब नयी नियमावलि के अनुसार सब जेलों में ही मिल जायेगा।

यूपी जेलों के लिये एक सुझाव है। व्यावसायिक शिक्षा के आयाम तिहाड़ जेल में श्रीमती किरण बेदी (आईपीएस) ने जोड़े थे। यूपी के जेल इसे अपना सकते हैं। इसी क्रम में विशिष्ट जेल प्रबंधन का कार्यक्रम भी पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक नजरिया अपनाने की जरूरत है। सितारगंज जेल में तो व्यापक पैमाने पर कृषि कार्य में कैदी खेतिहर मजदूरी करते हैं। इससे खाद्य समस्या हल हो जाती है। कलकत्ता के अलीपुर कारागार में मुंगेर के योगिक शिक्षक कैदियों की मानसिकता और सोच को सुधारने में लगे रहते हैं। यह सुझाव उत्तर प्रदेश में कारगर हो सकता है।

भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद् ने 14 जेलों में मनोवैज्ञानिक प्रयोग द्वारा अपराध प्रवृत्ति को कमजोर करने का प्रयास किया है। मगर काबिले गौर बात यह है कि पर्याप्त आपसी संपर्क के अभाव में विभिन्न जेल सुधार कार्यक्रम अभी राष्ट्रीय स्तर पर नहीं चलाये जा रहे हैं। आखिर मथुरा के कृष्ण से लेकर ईसा मसीह, दार्शनिक सुकरात, लोक मान्य तिलक, महात्मा गाँधी, राममनोहर लोहिया सभी ने जेलों से जीवन का सन्देश दिया है। फिर ऐसे विशेष स्थल की दुर्गति, दुर्दशा क्यों सहन हो? यदि ऐसा नहीं हुआ तो अमरीकी विद्रोही विचारक हेनरी डेविड थोरो से सहमत होना पड़ेगा कि सरकारें अन्यायपूर्ण रवैया अपनाएंगी तो हर न्यायप्रिय नागरिक का उचित स्थान जेल ही होगा।

यूपी के जेल सुधार के संदर्भ में एक विफलता मुझे सताती रहती है। तब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे। उनके जेल मंत्री राजेन्द्र चौधरी को मैनें सुझाया था कि यूपी की जेलों में जहां-जहां डा. राममनोहर लोहिया को कैद रखा गया था, वहां-वहां तक पट्टिका लगा दी जाये कि इन तारीखों पर डा. लोहिया इस बैरक में बन्द रखे गये थे। इन जेलों में कन्नौज, आगरा, लखनऊ आदि हैं। राजेन्द्र चौधरी ने स्वीकारा पर किया नहीं। सिख नेता मास्टर तारा सिंह और द्रविड जननायक पेरियार ईवी रामास्वामी नायकर को छोड़ कर आजाद भारत की जेल में सर्वाधिक बार लोहिया ही कैद रहे। इस अनवरत धुमक्कड़ का एक पैर रेल में दूसरा पैर जेल में रहता था। अखिलेश शायद अनभिज्ञ हैं!! कारण ? यह विपक्ष का नेता कभी जेल गया ही नहीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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