दस्तक-विशेष

सपा की चुनौती सामने खड़ी बीजेपी या पर्दे के पीछे छिपी कांग्रेस

संजय सक्सेना

समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव के हौसले इस समय काफी बुलंद हैं। ऐसा होना स्वभाविक भी है क्योंकि लम्बे अंतराल के बाद सपा ने जीत का स्वाद चखा है। पार्टी ने यूपी की 80 में से 37 सीटों पर जीत हासिल की है। वहीं अखिलेश की बदौलत कांग्रेस भी यूपी में 6 सीटें जीतने में सफल रहीं। अब अखिलेश की नजर 2027 के विधानसभा चुनाव पर है। 2027 में सपा-कांग्रेस साथ-साथ रहेंगे यह तो अभी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि समाजवादी पार्टी यदि कांग्रेस के साथ चलती है तो इससे सिर्फ कांग्रेस को ही फायदा होता है। इस बात का अहसास अखिलेश यादव को भी होगा, भले ही वह इस संबंध में सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं बोल रहे हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। दरअसल, राहुल गांधी यूपी में अपने गठबंधन सहयोगी अखिलेश यादव के सामने बड़ी सियासी लाईन खड़ी करना चाहते हैं। यही बात समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक को परेशान कर रही है, लेकिन इस समय अखिलेश का सारा ध्यान भारतीय जनता पार्टी की ओर लगा है। वह मोदी और योगी सरकार पर कुछ इस तरह से हमलावर हैं जिससे उनका अपना पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) वोट बैंक और मजबूत हो सके। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव उस बीजेपी को चुनौती दे रहे हैं जिसने 2024 के लोकसभा चुनाव से पूर्व यूपी में लगातार दस वर्षों तक बेहतर प्रदर्शन किया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 71 और 2019 में 62 और अबकी 2024 में 33 सीटें मिली थीं। बात उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के नतीजों की कि जाये तो यहां भी बीजेपी का पलड़ा पिछले दो विधानसभा चुनाव से भारी रहा है। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 403 विधान सभा सीटों में 312 तथा 2022 में 273 सीटें जीती थीं। दोनों ही बार योगी के नेतृत्व में बीजेपी ने सरकार बनाई थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी में बीजपी की स्थिति थोड़ी कमजोर क्या हुई अखिलेश तो उसके पीछे ही पड़ गये हैं। वह भारतीय जनता पार्टी पर लगातार हमलावर हैं। इस पर सियासी पंडितों का भी यही कहना है कि राजनीति में ऐसा होना स्वभाविक भी है, उन्हें (अखिलेश यादव) अपने नेतृत्व में पहली बार लोकसभा चुनाव में 37 सीटों पर जीत का स्वाद चखने को मिला है।

इससे पहले अखिलेश की जीत रिकार्ड ना के बराबर था। वह समाजवादी पार्टी की बागडोर संभालने के बाद लगातार जीत केलिए तरस रहे थे। 2012 के विधानसभा चुनाव, जो समाजवादी पार्टी द्वारा मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़े गये थे, उसमें समाजवादी पार्टी को बहुमत हासिल हुआ था, लेकिन चुनाव जीतने के बाद मुलायम ने अपनी जगह बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था, जिसको लेकर पार्टी में मनमुटाव भी देखने को मिला था। तब से लेकर आज तक समाजवादी पार्टी यूपी से लेकर दिल्ली तक के चुनाव में अपनी पैठ नहीं बना पाई थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा को यूपी की 80 सीटों में से मात्र 05 सीटों पर एवं 2019 में सीटों पर जीत हासिल हुई थी। सपा ने 2019 का लोकसभा चुनाव बसपा के साथ मिलकर और अबकी 2024 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। वहीं 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव जो उसने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था उसमें सपा को मात्र 47 सीटों पर संतोष करना पड़ा था और 2022 में भी बहुत अच्छा करने के बाद भी 125 सीटों पर उसकी जीत का आंकड़ा ठहर गया था।

लब्बोलुआब यह है कि अखिलेश को सपा का नेतृत्व संभाले दस वर्ष हो चुके हैं। इन दस वर्षों में सपा को चार बड़ी हार और कई छोटी-छोटी हार का भी सामना करना पड़ा था। दस वर्षों के बाद पहली बार 2024 के आम चुनाव में में उनकी पार्टी की जीत का ग्राफ बढ़ा जरूर है, लेकिन यह बढ़त इतनी नहीं थी, जितना सपा प्रमुख द्वारा प्रचारित प्रसारित किया जा रहा है। भाजपा की यूपी में चार सीटें ही समाजवादी पार्टी से कम आई हैं और इसकी वजह बीजेपी के प्रति जनता की नाराजगी से अधिक उसके (बीजेपी) भीतर की खींचतान थी। बहरहाल, अखिलेश अपने हिसाब से राजनीति करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन उनका अहंकार उचित नहीं है। जीत की खुशी में किसी धर्म का मजाक नहीं उड़ाया जा सकता है। दुखद यह है कि अखिलेश यादव जाने-अनजाने ऐसा कर रहे हैं, जिस तरह मुलायम सिंह ने सत्ता में रहते कारसेवकों पर गोली चलाई और फिर इसके महिमामंडित किया था, उसी तरह से आज अखिलेश यादव अयोध्या से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी की जीत के बाद कर रहे हैं। इसके लिए वह सीधे तौर पर तो कुछ नहीं करते हैं, लेकिन उनके संकेत की राजनीति का यही निचोड़ नजर आता है कि आज भी समाजवादी पार्टी प्रभु श्रीराम की विरोधी है। यहां तक की संसद में भी अखिलेश ऐसा ही कर रहे हैं।

18वीं लोकसभा के पहले संसद सत्र में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और सांसद अखिलेश यादव ने सदन में बोलते हुए बीजेपी सरकार पर जमकर हमला बोला, इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं थी, यह सिलसिला अभी तक बदस्तूर जारी है। आम बजट आते ही वह पूछने लगते हैं कि योगी ने केन्द्र से यूपी के लिए क्यों कुछ नहीं मांगा। अखिलेश, योगी सरकार द्वारा कावड़ यात्रा के दौरान दुकानों पर नेमप्लेट लगाने के आदेश का विरोध करते हैं, पेपर लीक मुद्दा, अयोध्या, जाति जनगणना, एमएसपी, ओपीएस, अग्निवीर योजना जैसे कई मुद्दों के सहारे वह मोदी-योगी सरकार को घेरते हैं। सपा प्रमुख पेपर लीक मामले को लेकर सरकार के खिलाफ सवाल उठाते हैं। समाजवादी सरकार के समय में कैसे नकल माफिया घूमते थे, किसी ने छिपा नहीं है, लेकिन वह कहते हैं यूपी में परीक्षा माफिया का जन्म हुआ है। वहीं ईवीएम पर समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव उंगली उठाते हुए कहते हैं ईवीएम पर मुझे कल भी भरोसा नहीं था, आज भी नहीं है। मैं 80 में 80 सीटें जीत जाऊं तब भी नहीं भरोसा होगा। वह लगातार बोल रहे हैं कि ईवीएम का मुद्दा खत्म नहीं हुआ है। अखिलेश यहां तक कहते हैं कि दिल्ली में हारी हुई सरकार विराजमान है। ये चलने वाली नहीं गिरने वाली सरकार है। आवाम ने हुकूमत का गुरूर तोड़ दिया, जनता लगातार कह रही, सरकार गिरने वाली है। संविधान रक्षकों की जीत हुई है।खैर, सपा प्रमुख अखिलेश यादव की बातों में दम तो लगता है, लेकिन वह यह नहीं याद रखते हैं कि समाजवादी पार्टी में किस तरह से नकल माफिया सक्रिय रहते थे। सरकारी नौकरियां निकलने से पहले इनकी भर्ती के लिए सौदा हो जाता था। दबंग समाजवादी नेता कैसे थानों पर ‘कब्जा’ कर लेते थे। सरकारी टेंडर के लिए कैसे खून-खराबा होता था।

भूमाफिया किस तरह से जमीनों पर कब्जा कर लेते थे। लड़कियों का सड़क पर चलना मुश्किल हो गया था। कानून व्यवस्था के नाम पर जंगलराज फैल गया था। इसी को मुद्दा बनाकर बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा को सत्ता से उखाड़ कर फेंक दिया था। अखिलेश पर हिन्दुओं को दलित, ओबीसी के नाम पर बांटने पर भी आरोप लगता रहता है, परंतु वह इस पर कुछ नहीं बोलते हैं। वह यह भी नहीं बताते हैं कि पूर्व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव जिस कांग्रेस से हमेशा दूरी बनाकर चलते थे, उससे उन्होंने कैसे हाथ मिला लिया। अच्छा होता कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव आम चुनाव में मिली जीत से आनंदित होते, लेकिन वह आनंदित से अधिक अहंकार में डूबे ज्यादा नजर आ रहे हैं, जबकि वह अहंकार में डूबी बीजेपी का हश्र देख चुके हैं। सपा-भाजपा के बीच की ‘रेस’ के बीच सवाल यह भी है कि आखिर क्यों अखिलेश यादव कांग्रेस के बढ़ते कदमों को नहीं देख पा रहे हैं, जबकि उत्तर प्रदेश पर अपनी नजर लगाए बैठा गांधी परिवार और कांग्रेस आलाकमान एक और समाजवादी पार्टी का साथ लेकर यूपी में अपनी सियासी स्थिति मजबूत करने में लगी है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाने से भी नहीं चूक रही है।

सपा प्रमुख जिस प्रकार मुस्लिम वोटों और जातीय जनगणना की मांग को लेकर लगातार एग्रेसिव रहते हैं, उसी वोट बैंक में सेंधमारी के लिए कांग्रेस जाति आधारित गणना और पसमांदा मुस्लिमों को आरक्षण के मुद्दे के सहारे पैठ बनाने के लिए अभियान चलाने जा रही है। इसके लिए उत्तर प्रदेश कांग्रेस राष्ट्रीय भागीदारी दिवस जैसे कार्यक्रम चला कर रही है। लोकसभा चुनाव के परिणामों से उत्साहित कांग्रेस अब किसी भी वर्ग को अपने साथ जोड़ने में पीछे नहीं रहना चाहती है, चाहें फिर वह सपा का ही वोट बैंक क्यों न हो। शीर्ष नेतृत्व द्वारा कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग को जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह पसमांदा मुसलमानों के अलावा अल्पसंख्यकों, पिछड़ों व वंचित समाज के ज्यादा से ज्यादा नेताओं को पार्टी के साथ जोड़े।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग के प्रदेश अध्यक्ष शाहनवाज आलम ने बताया कि पिछड़ों और वंचित समाज के युवाओं को नौकरियों में आरक्षण दिलाने के लिए जरूरी है कि पहले जाति आधारित जनगणना हो, इसके लिए लोगों को जागरूक किया जाएगा। इस दिशा में अभियान चलाने के लिए कांग्रेस के अल्पसंख्यक, ओबीसी और फिशरमैन विभाग की तरफ से संयुक्त रूप से राष्ट्रीय भागीदारी दिवस के मौके पर 26 जुलाई से जागरूकता अभियान चलाया जाएगा। अभियान के साथ प्रदेशभर के अल्पसंख्यक, पिछड़े और अति पिछड़े समाज के नेताओं को जोड़ा जाएगा। कुल मिलाकर कांग्रेस की नजर समाजवादी पार्टी के पीडीए वोट बैंक पर लगी हुई है। वहीं कांग्रेस-सपा की दोस्ती पर भाजपा कहती है कि कांग्रेस परीजीवी हो गई है, वह एक न एक दिन समाजवादी पार्टी को खत्म कर देगी, जबकि राजनीति के जानकारों का कहना है कि अखिलेश को यह तय करना होगा कि उसका बड़ा सियासी दुश्मन कौन है। सामने खड़ी बीजेपी या पर्दे के पीछे छिपी कांग्रेस।

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