दस्तक-विशेषबिहार

श्मशान में चिता भूमि पर मंदिर

पटना से दिलीप कुमार

श्मशान में मंदिर तो आपने कम ही देखे होंगे, लेकिन बिहार का दरभंगा ऐसा जिला है जहां श्मशान में चिता भूमि पर एक दो नहीं बल्कि आधा दर्जन मंदिर हैं। इन मंदिरों की ख्याति पूरे बिहार में है। आसपास के अन्य प्रदेशों के साथ नेपाल से भी बड़ी संख्या में यहां भक्त दर्शन के लिए आते हैं। इन मंदिरों का निर्माण करीब 250 वर्ष पहले शुरू हुआ। सभी मंदिर और चिता भूमि दरभंगा राज परिवार से संबंधित हैं, जिनका इतिहास बहुत ही समृद्ध रहा है। पूरे देश में दरभंगा राज की जमीन से लेकर भवन हैं। बिहार में तो कई विश्वविद्यालय व सरकारी भवन उनकी जमीन या भवन पर बने हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में भी दरभंगा महाराज का बड़ा योगदान है।

दरभंगा राज अब भले ही अस्तित्व में नहीं है, लेकिन उनकी विरासत आज भी जिंदा है। दरभंगा राज का श्मशान स्थल अब दरभंगा शहर का हिस्सा है। कभी यह 51 बीघे में था। तब यहां चारों ओर जंगल था। बताया जाता है कि पूरे देश के तंत्र साधक यहां आकर तंत्र साधना करते थे। दरभंगा राज के कई महाराजा भी तंत्र साधक थे। दरभंगा राज की शुरुआत 1556 से मानी जाती है। तब राजा महेश ठाकुर (1556-1569) ने अपनी राजधानी मधुबनी जिले के भउर (भौर) ग्राम में बनाई थी। इसके अंंतिम राजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह हुए। इनके समय में ही भारत स्वतंत्र हुआ और देशी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह को संतान नहीं होने से उनके भतीजे कुमार जीवेश्वर सिंह संपत्ति के अधिकारी हुए।

दरभंगा राज के शासकों में महाराजा माधव सिंह (178-1807) की ख्याति सबसे अधिक रही है। उन्होंने दरभंगा को राजधानी बनाई। माधेश्वर नाम से शिव मंदिर बनाकर इसे श्मशान स्थल के रूप में संरक्षित किया। दरभंगा राज के निजी श्मशान का नाम माधेश्वर परिसर रखा। यहां उन्होंने अपनी माता के नाम पर गंगा जी का मंदिर बनवाया। इस परिसर में माधेश्वर शिव मंदिर ही एकमात्र मंदिर है, जो किसी की चिता पर नहीं है। साथ ही परिसर का सर्वाधिक पुराना मंदिर है। माधेश्वर महादेव मंदिर परिसर में ही राजा माधव सिंह का अस्थि कलश रखा है। उनका निधन दरभंगा में नहीं होने के कारण ऐसा किया गया था। इसी अस्थि स्थल पर राज परिवार के शव को अंतिम संस्कार से पूर्व रखने की परंपरा आज भी बरकरार है। पूरे परिसर में राज परिवार के दो दर्जन लोगों की चिता भूमि है। दो चिता भूमि पर महादेव और चार पर देवी मंदिर बने हैं। एक चिता पर अद्र्धर्निमित मंदिर है।

महाराजा कामेश्वर सिंह की दूसरी पत्नी महारानी प्रिया के चिता स्थल पर एक कमरे का निर्माण कराया गया है जो आज भी बंद है। इसके बंंद होने का कारण बताया जाता है कि चिता स्थल को देख महाराजा भावुक हो जाते थे, इसलिए वहां एक कमरे के बाद निर्माण बंद कर दिया गया। शेष चिता भूमि पर पेड़ लगे हैं। पहली चिता भूमि महाराजा माधव सिंह के पोते रुद्र सिंह की है, जो दक्षिण दिशा में है। उनके चिता स्थल पर रुद्रेश्वरी काली मंदिर बना है। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की चिता भूमि पर लक्ष्मीश्वरी तारा मंदिर, राज माता रामेश्वरी लता की चिता भूमि पर अन्नपूर्णा मंदिर है। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह की पहली पत्नी लक्ष्मेश्वरी की चिता भूमि पर महादेव मंदिर बना है। महारानी रामेश्वरी की चिता भूमि पर अद्र्धनिर्मित मंदिर है। परिसर के दक्षिण व पश्चिम कोने पर महाराजा कामेश्वर सिंह की चिता भूमि पर कामेश्वरी श्यामा मंदिर है। इसका निर्माण महारानी राजलक्ष्मी ने वर्ष 1965 में अपने आभूषण बेचकर कराया था।

इस परिसर में सबसे प्रसिद्ध श्यामा माई मंदिर है। दरभंगा राज के महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने अपने पिता प्रसिद्ध तांत्रिक और शक्ति के प्रबल उपासक महाराज रामेश्वर सिंह की चिता भूमि पर 1933 में मां श्यामा काली मंदिर की स्थापना की थी। मां श्यामा की आदमकद प्रतिमा भगवान शिव की सीने पर है। मां श्यामा के बगल में गणेश, वटुक भैरव व काल भैरव की प्रतिमाएं हैं। 1929 में महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु के चार वर्षों बाद उनकी चिता स्थल पर मां श्यामा की प्रतिमा की स्थापना की गई। श्यामा माई लोगों की आस्था व विश्वास को केन्द्र हैं। यह मिथिला का प्रसिद्ध काली मंदिर है। यहां प्रतिवर्ष लाखों भक्त पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। यह मंदिर दरभंगा राजवंश के धर्मानुराग का द्योतक है। मंदिर परिसर में आज शादी से लेकर हर मांगलिक अनुष्ठान व संस्कार होते हैं।

शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना में दरभंगा राज का बड़ा योगदान
पूरे देश में शिक्षा को बढ़ावा देने में दरभंगा राज का बड़ा योगदान है। आज दरभंगा में ही ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृति विश्वविद्यालय सहित बिहार में कई अन्य शैक्षणिक संस्थान दरभंगा राज के महल व भवन में चल रहे हैं। यहां तक कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में इस राजघराने का बड़ा योगदान है। दरभंगा नरेश रामेश्वर सिंह इसकी स्थापना के लिए उस समय पांच लाख रुपये दान दिए थे। ‘द इन्सेप्शन आफ बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी: हू वाज द फाउंंडर इन द लाइट आफ हिस्टोरिकल डाकुमेंट्स’ पुस्तक में लेखक तेजकर झा ने भी इसकी पुष्टि की है। उन्होंने लिखा है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना में मदनमोहन मालवीय जी के अलावा एनी बेसेंट और दरभंगा के नरेश रामेश्वर सिंह का बड़ा योगदान है। चार फरवरी 1916 को जब बीएचयू की नींव रखी गई तब उसी दिन से सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में पढ़ाई भी शुरू हो गई थी। नींव रखने लार्ड हार्डिंग्स बनारस आए थे।

इस समारोह की अध्यक्षता दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह ने की थी। बीएचयू में दरभंगा नरेश रामेश्वर सिंह विजिटिंग फैकल्टी प्रोग्राम भी चलता है। यह उनके योगदान को बताता है। महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना स्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) पटना विश्वविद्यालय को दे दिया था। 1920 में उन्होंने पटना मेडिकल कालेज व अस्पताल के लिए पांच लाख रुपये देने वाले सबसे बड़े दानदाता थे। उन्होंने आनंद बाग पैलेस और उससे लगे अन्य महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय को दे दिए। कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रंथालय लिए भी उन्होंने काफी धन दिया। दरभंगा मेडिकल कालेज और अस्पताल और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना में अपनी अहम भूमिका इस राजघराने की है।

दरभंगा में चलाई पहली रेल
दरभंगा राज के राजाओं की सोच काफी आधुनिक थी। चीनी मिल, कागज मिल, न्यूजपेपर एंड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना के अलावा कई अखबार व पत्रिकाओं का प्रकाशन इस राजघराने की ओर से किया गया। भारतीय रेलवे के स्वर्णिम इतिहास में एक पन्ना दरभंगा महाराज का भी जुड़ा है। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह ने 1873 में तिरहुत स्टेट रेलवे कंपनी बनाई थी। इस कंपनी के माध्यम से बरौनी के समयाधार बाजितपुर से दरभंगा तक रेललाइन का निर्माण कराया था। इस पर परिचालन एक नवंबर 1875 को शुरू हुआ था। महाराज ने तीन स्टेशनों का निर्माण कराया था। दरभंगा स्टेशन आम लोगों के लिए था, जबकि लहेरियासराय अंग्रेजों के लिए। उन्होंने अपने लिए नरगौना में निजी टर्मिनल स्टेशन का निर्माण कराया था। वहां उनकी सैलून रुकती थी। उनकी ट्रेन व सैलून से महात्मा गांधी और डा. राजेंद्र प्रसाद भी दरभंगा आए थे। तिरहुत स्टेट रेलवे का अधिग्रहण भारतीय रेलवे ने 1929 में किया था। रेलवे की150वीं जयंती पर प्रकाशित स्मारिका में दरभंगा महाराज के शाही सैलून की तस्वीर भी छापी थी। बताया जाता है कि महाराज कामेयवर सिंह के चाचा महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) के संस्थापकों में से एक थे।

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