वासुदेव_कृष्ण :आशुतोष राणा की कलम से.. {भाग ६}
स्तम्भ : मेरी माँ पवनरेखा जब अपने पितृगृह पहुँची तब वह अपने पति से विरह और हृदय की वेदना से बुरी तरह प्रभावित थी। मन की शांति के लिए वह संगीत साधना में रत रहने लगी। उसे विश्वास था की शीघ्र ही उग्रसेन अपने चित्त की सभी कुंठाओं, शंकाओं से मुक्त होकर स्वस्थ मन से उसे लिवा ले जाने के लिए स्वयं आएँगे या किसी दूत को भेजेंगे, क्योंकि जितना प्रेम वह उग्रसेन से करती है उतना ही प्रेम उग्रसेन भी उससे करते हैं। किंतु उसे यह आशा ना थी की उग्रसेन इतने जल्दी अप्रत्याशित रूप से उपस्थित होकर उसे आनंद के शिखर पर प्रतिष्ठित कर देंगे।
आषाढ़ का आरम्भ ही हुआ था और प्रकृति ने अपने रंग बदलने शुरू कर दिए थे, मेघमालाएँ कभी बरस जातीं तो कभी गरजकर ही हृदय को उल्लास से भर देतीं। धरती भी सौंधी सुगंध छोड़ती रहती, पेड़ पौधे फूल पत्ते पहले से अधिक चमकदार दिखने लगे थे। मंद हवाओं ने सारी ऊष्णता को जैसे सोख ही लिया था, सूख चुके पहाड़ी प्रपात नवजीवन को प्राप्त कर कलकलाने लगे थे। सम्पूर्ण सृष्टि के जीवधारीयों के हृदय जैसे श्रंगार रस से भरे हुए अपने प्रेमी का सानिध्य चाहते थे। वर्षा की मीठी फुहारें उनके हृदय में मदन को पुलकित कर रहीं थीं। माँ अपने राजभवन से लगे वन्यप्रदेश में एक शिला पर बैठी हुई जलप्रपात से गिरने वाली जलराशि के संगीत को आँख मूँद कर सुन रही थी, उसके हृदय में उसके पति उग्रसेन की विभिन्न प्रेमिल मुद्रायें आकार ले रहीं थीं।प्रकृति की राग से अपनी राग मिलाते हुए वह अनुराग के गीत को गुनगुना रही थी, की तभी किसी ने उसकी अधमुँदी आँखों को अपनी हथेली से ढाँक दिया, वह क्षण भर को सिहर कर रह गई किसी अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय काँप गया। साहस करके उसने शक्ति से उस व्यक्ति के हाथों को झटक दिया और पीछे पलटकर देखा तो स्तब्ध रह गई, धक्के से लड़खड़ाते हुए उग्रसेन उसकी ओर देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।
अपने इष्ट को अनायास ही सामने देख पवनरेखा हर्ष के अतिरेक से जड़वत हो गई, उग्रसेन अपनी प्रियतमा पत्नी की भावदशा से आनंदित हो गए वे भावुक प्रेमी की विवहलता से आगे बढ़े और अपनी पत्नी को प्रेमालिंगन में बद्ध कर लिया, तभी मेघों ने गड़गड़ाहट के साथ बरसना आरम्भ कर दिया।
उग्रसेन ने अपनी पत्नी को पकड़ा और कुंजलता की ओट में ले गए वर्षा की फुहार, और मेघों की गर्जना ने इस प्रेमी युगल के हृदय में सुप्त पड़े हुए अनंग को जागृत कर दिया, वर्षा की बूँदें हवा के माध्यम से पवनरेखा की देह का स्पर्श करना चाहतीं थीं, किंतु पवनरेखा अपने समर्थशाली पति की बाहों की ओट में निश्चिन्त थी उसे वर्षा के प्रयास पर हँसी आ रही थी क्योंकि वर्षा के लाख प्रयासों के बाद भी वर्षा की सभी बूँदे उग्रसेन के पृष्ठ से टकरा कर अपना दम तोड़ रहीं थीं।
उग्रसेन अपने वक्ष पर पवनरेखा की ऊष्ण साँसों के टकराने, उसके आरोह अवरोह से काम के वशिभूत हो गए थे। उग्रसेन के प्रत्येक स्पर्श से पवनरेखा को अनुभूत हो रहा था की उसका पति काम की ज्वाला से दग्ध है वह समझ रही थी की उग्रसेन पवनरेखा के सौंदर्य का अपने प्रत्येक रोम से रसपान करना चाहता है। और तभी उग्रसेन ने अपनी बलिष्ठ बाहों में पवनरेखा को उठाते हुए वर्षा के सम्मुख कर दिया, सौंदर्य की प्रतिमूर्ति को अपने समक्ष देख वर्षा वायु के सहयोग से कुछ अधिक वेग से उसकी देह के प्रत्येक रोम को अपने संसर्ग में ले लेना चाहती थी पलभर में ही पवनरेखा का रोम-रोम भीग चुका था उसके वस्त्र उसकी देह से जैसे एकाकार हो गए थे उग्रसेन का शरीर वर्षा में भीगने के बाद भी काम के ताप से तप रहा था, वे अपनी इस तपन को शांत करने के लिए अधीर हो उठे, किंतु प्रेम में अधिरता काम को उत्सव नहीं कुत्सव कृत्य में परिणित कर देती है परिणामस्वरूप काम प्रेमियों को उमंग नहीं उन्माद से भर देता है।
पवनरेखा ने अपने स्नेहसिक्त स्पर्श से उग्रसेन की अधिरता को धीरता में रूपांतरित करने का प्रयास किया किंतु उसके इस प्रयास से उग्रसेन और अधिक अधीरता से भरकर आक्रामक हो गए उन्होंने पवनरेखा के देह से चिपके हुए वस्त्रों को फाड़ना प्रारम्भ कर दिया, उनके इस कृत्य से पवनरेखा भौंचक्की रह गई ! उग्रसेन का व्यवहार अप्रत्याशित रूप से चकित करने वाला था, उनके स्पर्श में पवनरेखा की देह के प्रत्येक अंग को तोड़ देने का भाव था, उनकी प्रत्येक चेष्टा काम की कोमलता को नहीं, काम की कुंठा को व्यक्त कर रही थी। प्रेमियों के मध्य घटित होने वाला काम, सत्कार के जैसा होता है, किंतु उग्रसेन पवनरेखा के प्रेम के एकमात्र अधिकारी होने के बाद भी उसका बलात्कार करने के भाव से भरे हुए प्रतीत हो रहे थे।
पवनरेखा के लिए उग्रसेन का यह रूप अनदेखा, असोचित था वह विचलित होने लगी, उसे लगा जैसे उग्रसेन उसका अपमान करना चाहते हैं ? उसकी देह के प्रत्येक भाग का मर्दन करना चाहते हैं ? उनके लिए काम व्यवहार प्रेम का नहीं प्रतारणा का विषय हो गया है ? पवनरेखा को लगा कि यदि कहीं उसने उग्रसेन को रोकने का प्रयास किया तो वे हिंसक भी हो सकते हैं, उसने आत्मसमर्पण कर दिया।
उग्रसेन उन्मत्त की भाँति पवनरेखा की देह को भोग रहे थे और पवनरेखा एक यंत्र की भाँति निश्चेष्ट कामांधता के इस विकृत स्वरूप को देख रही थी, कि तभी उसे लगा की कोई पुरुष आकृति कुंजलता प्रकोष्ठ के द्वार पर खड़ी हुई है, और वह आकृति उन पति-पत्नी के बीच प्रेम के नाम पर घटित होने वाले इस घृणित कृत्य को स्पष्ट देख रही है।
उग्रसेन का शरीर स्वेद से भीगा हुआ था वे पिशाच की भाँति काम के चरम पर पहुँचकर चीत्कार कर रहे थे। पवनरेखा ने अपनी आँखों को तनिक सिकोड़ते हुए द्वार पर खड़ी हुई उस पुरुष आकृति पर केंद्रित किया, आकृति के स्पष्ट होते ही वह भय से काँप उठी, प्रकोष्ठ के द्वार पर उसे उग्रसेन खड़े दिखाई दिए !! तो फिर यह कौन है जो उग्रसेन का रूप धर के उसका बलात्कार कर रहा है ? उसे लगा की उसका हृदय बंद हो गया है, क्षण भर में ही उसकी समूची देह स्वेद से नहा गई, वो अपनी पूरी शक्ति से काम के आवेग में सित्कारते हुए उग्रसेन रूपी शरीर को अपनी देह से हटाना चाहती थी किंतु उसे लगा जैसे उसके शरीर का सारा रक्त बहकर उसे अशक्त कर गया है, वह हिल भी नहीं पा रही थी। उसका मस्तिष्क तो सक्रिय था किंतु देह ने जैसे मस्तिष्क के आदेशों को ना मानने का प्रण ही ले लिया था, तो क्या उसे पक्षाघात हो गया है ?
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