अद्धयात्मदस्तक-विशेषफीचर्डस्तम्भ

वासुदेव_कृष्ण : आशुतोष राणा की कलम से..{भाग_७}

स्तम्भ : काम का ज्वर उतरते ही पवनरेखा की देह पर आरूढ़ उग्रसेन ने भी अपनी दृष्टि की कोर से प्रकोष्ठ के द्वार पर खड़ी उस पुरुष आकृति को देखा, ओह ये तो उग्रसेन है !!  वास्तविक उग्रसेन को प्रकोष्ठ द्वार पर उपस्थित देख दुर्मिल सिहर गया, उग्रसेन के रूप में उसे अपनी मृत्यु साक्षात दिखाई दे रही थी। दुर्मिल समझ रहा था की कोई भी पति अपनी प्राणप्रिय पत्नी के साथ हुए दुराचार को सहन नहीं कर सकता फिर तो ये अत्यंत तेजवान महाप्रतापी उग्रसेन हैं। दुर्मिल जानता था कि उग्रसेन से वह सम्मुख युद्ध में तब तक नहीं जीत सकता, जब तक वह उनके संकल्पित चित्त को भ्रमित और शंकित ना कर दे। दुराचारी होने के बाद भी उस बहुरूपिये को मनोविज्ञान की अच्छी समझ थी, उसने तुरंत निर्णय ले लिया की उसे क्रोधित उग्रसेन के क्रोध को और बढ़ाना चाहिए क्रोध के बढ़ते ही उग्रसेन कुंठित हो जाएँगे। क्रोध की प्रकृति होती है आघात करना किंतु क्रोध जब कुंठा में बदल जाता है तब व्यक्ति प्रतिघात नहीं, आत्मघात करता है।
उसने उग्रसेन के हृदय में उनके वंश, उनके अंश, उनके कुल और उनके गौरव को लेकर शंका का ऐसा बीज बो दिया जिसके कारण उग्रसेन भविष्य में भी नि:शंक ना हो सकें।

नि:शब्द अट्टहास करते हुए दुर्मिल बेहद कोमल, गर्विले और तनिक उच्च स्वर में पवनरेखा से बोलने लगा- देवी आज तुमने मेरी वर्षों की साध को पूर्ण किया है, तुम्हारे इस नेह का प्रतिदान हो ही नहीं सकता। हे प्रियतमा मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ की तुम्हारी कोख से पैदा होने वाला पुत्र परम प्रतापी होगा।
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पवनरेखा ने अपने ऊपर आरूढ़ उस पुरुष को देखा तो भय के चरम पर पहुँच गईं, यह तो दुष्ट #दुर्मिल है !! इसने कपट से महाराज उग्रसेन का रूप धारण करके आज अपने छल-बल से उनके शील को भंग कर दिया, और अब महाराज उग्रसेन को प्रकोष्ठ द्वार पर खड़ा देखकर यह नीच अधम पापी जानते हुए ऐसे शब्दों को बोल रहा है जिससे महाराज उग्रसेन को लगे की इस काम व्यवहार में पवनरेखा की भी बराबर रुचि थी, ये ऐसे व्यवहार कर रहा है जैसे इसने महाराज को देखा ही ना हो, तभी ये बेहद चालाकी से अपने छद्म रूप को छोड़कर तत्काल अपने वास्तविक रूप में आ गया ताकि महाराज उग्रसेन को पता ही ना चले की उनकी पत्नी के साथ छल हुआ है, दुर्मिल के द्वारा किए गए बलात्कार को महाराज उग्रसेन पवनरेखा की इच्छा से सहर्ष किया गया प्रेमाचार समझें।
पवनरेखा स्वयं को प्रवंचित, अपमानित, लूटा हुआ अनुभूत कर रही थी, उसे हृदयविदारक पीड़ा हो रही थी वह इसी क्षण स्वयं को समाप्त कर देना चाहती थी, किंतु उसे इस सत्य की जानकारी थी की वह मर कर अपने ऊपर लगे इस कलंक को समाप्त नहीं कर सकती, देह की समाप्ति क्या संदेह को समाप्त कर सकती हैं ? नहीं..भले ही उसे मरणांतक पीड़ा क्यों ना हो किंतु उसे जीवित रहना होगा, अपने चित्त और चरित्र को निष्कलंक सिद्ध करने के लिए। वह अवसादग्रस्त होकर लगभग अर्धमूर्छित अवस्था में पहुँच चुकी थी।
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दुर्मिल अपने वास्तविक रूप में आ चुका था, उस बहुरूपिये ने अपनी दुष्टता के चरम पर पहुँचकर उग्रसेन को ना देखने का अभिनय करते हुए बोलना जारी रखा- देवी तुमने सत्य कहा था कि तुम्हारे काम के वेग को उग्रसेन झेल नहीं सकते, किंतु मुझे विश्वास है कि मैंने तुम्हे पूर्ण तृप्त और संतुष्ट किया होगा ? देखो ना, उग्रसेन को अपने काम व्यवहार से थका डालने वाली मेरी प्रियतमा अपने प्रेमी के संसर्ग से कितनी क्लांत हो गई है ! और हँसते हुए बोला- तुम सत्य ही काम का प्रखर रूप हो प्रिये, तुम्हारी कामाग्नि को शांत करना उग्रसेन जैसे शांत सौम्य व्यक्ति के वश की बात नहीं है, वह तो मेरे जैसे परम पौरुषवान व्यक्ति के लिए ही सम्भव है। मेरे पौरुष को अपने समकक्ष मानने के लिए तुम्हारा धन्यवाद प्रिये।

पवनरेखा अपनी सम्पूर्ण शक्ति से चीख़ पड़ी- नीच, अधम, पापी दुराचारी अपने छल और बल से मेरे सतीत्व का हरण करने वाले दुष्ट दुर्मिल.. स्मरण रख सर्वसमर्थ यदुवंशी महाराज उग्रसेन अपनी स्त्री के साथ दुराचार करने के अपराध में तुझे जीवित नहीं छोड़ेंगे। महान उग्रसेन तुझे नर्क से भी अधिक भीषण यातना देते हुए तेरा सर्वनाश करेंगे।
किंतु दुर्मिल तब तक अपना काम कर चुका था वह अप्रभावित सा प्रकोष्ठ के दूसरी ओर से अट्टहास करता हुआ निकल गया।
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क्रोध और अपमान की ज्वाला में धधकते हुए उग्रसेन, पवनरेखा को देख रहे थे। उनके मस्तिष्क में दुराचारी दुर्मिल के द्वारा कहे गए शब्द हाहाकार मचा रहे थे, उग्रसेन को लगा की पवनरेखा अपने प्रेमी के साथ प्रत्यक्षत: पकड़ लिए जाने के कारण अपने दुष्कृत्य को छिपाने के लिए अभिनय कर रही है।


माँ रोते हुए अपने निरपराधी होने के हर सम्भव प्रमाण देती रही किंतु उग्रसेन तो जैसे कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे, वे अप्रभावित से माँ के करुण विलाप को उसका कपट प्रलाप मान बैठे थे।

केशव, दुष्ट व्यक्ति शिष्ट व्यक्ति के मनोविज्ञान को बहुत अच्छे से समझता है, किंतु शिष्ट व्यक्ति दुष्ट की दुष्टता का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता। उसे समझ ही नहीं आता कि वह कब दुष्ट की दुष्टता का मोहरा बन गया है, इसलिए अधिकतर सज्जनों पर दुर्जनों की विजय होती है।
दुर्मिल उग्रसेन की मनोदशा को भलीभाँति समझ रहा था, इसलिए उसने उग्रसेन के मन में व्याप्त शंका को और घना कर दिया, सर्वप्रथम उसने माँ को उसकी कोख से प्रतापी पुत्र होने का वरदान दिया, फिर उसने उग्रसेन के पुरुषार्थ पर चोट की, वह जानता था कि किसी पर-पुरुष के मुख से अपने पति के आसामर्थ्य की घोषणा सुनना पुरुष के अहम को चोटिल करता है, अहम के आहत होते ही पति राहत प्राप्त करने के लिए अपनी पत्नी को ही आहत करने पर आमादा हो जाता है, ये ऐसे आरोप हैं हृषिकेश, जो किसी भी व्यक्ति के विवेक को क्षण भर में नष्ट कर सकते हैं।

उग्रसेन किमकर्तव्यविमूढ से खड़े थे, वे निर्णय नहीं ले पा रहे थे कि जो उन्होंने अपनी आँखों से देखा वह सही है ? या जो उनकी पत्नी पवनरेखा कह रही है वह सही है ? उन्हें अपने नेत्रों पर विश्वास करना चाहिए या अपने कानों पर ? अनिर्णय की मानसिकता ने उन्हें का-पुरुष बना दिया था।
कंस राजोचित स्वर में श्रीकृष्ण से बोलने लगा- जनार्दन, सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रमुख उग्रसेन का इस भीषण परिस्थिति में इस प्रकार अनिर्णय की अवस्था में रहना सम्पूर्ण लोकतंत्र की अनिर्णित, शंकालु मानसिकता का प्रतीक था।
शंकालु चित्त को संदेह के निवारण में नहीं संदेह के कारण में अधिक रुचि होती है।
ऐसे लोग समाधान के नाम पर कंस जैसी नई समस्याओं को जन्म देते हैं। इनके द्वारा प्रस्तुत समाधान ही कालान्तर में समस्या बन जाता है।~#आशुतोष_राणा

#क्रमशः•••

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