एजेन्सी/ उत्तराखंड में 24 छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का काम पिछले कई वर्षों से लटका पड़ा है। गैर सरकारी संगठनों और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) का कहना है कि इन परियोजनाओं की वजह से पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ रहा है। 2013 की त्रासदी के लिए भी वे काफी हद तक जलविद्युत परियोजनाओं को ही जिम्मेदार ठहराते हैं। एनजीटी और कुछ एनजीओ की आपत्तियों के बाद ऐसे मामले अब सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।
एनजीटी का कहना है कि वन एवं पर्यावरण के प्रावधानों के अनुपालन के बाद ही इन परियोजनाओं को मंजूरी मिलनी चाहिए। हालांकि केंद्र, राज्य सरकार और उत्तराखंड जलविद्युत निगम ने अदालत में हलफनामा दाखिल करके कहा है कि परियोजनाओं के निर्माण में सभी प्रावधानों का पालन किया जा रहा है।
दरअसल, उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2005 से 2010 के बीच दो दर्जन से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं की मंजूरी दी। तीस हजार करोड़ की लागत वाली इन परियोजनाओं के पूरा होने से 2944.80 मेगावॉट बिजली का उत्पादन होगा। गैर सरकारी संगठनों की ओर से एक-एक कर 24 छोटी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं का मामला अदालत में पहुंच गया। इस प्रकरण में एनजीटी भी शामिल हो गई।
इन जलविद्युत परियोजनाओं पर लगा है ग्रहण
बिजली संकट
अदालत के आदेश पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञों की 12 सदस्यीय समिति गठित की। कई महीने के अध्ययन के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को दे दी। मंत्रालय की ओर से यह रिपोर्ट अदालत को सौंप दी गई है।
जिन परियोजनाओं का काम लटका है, उसमें बाल गंगा- दो, झाला कोटी, भैरव घाटी, जालद्रीगढ़, सियानगढ़, ककोरागढ़, कोटलीभेल, कारमोली, जाढ़गंगा, रामबाड़ा, कोटलीभेल-दो, अलकनंदा, खिराव गंगा, उर्गम – दो, लाटा तपोवन, मालारीझेलम, जेलमतमक, तमकलाटा, भयंदरगंगा, ऋषिगंगा एक और दो, बिराहीगंगा – एक, गोहना ताल जैसी परियोजनाएं शामिल हैं।
‘जलविद्युत परियोजनाओं का मामला अदालत में विचाराधीन है। परियोजनाओं को मंजूरी देते समय सभी निर्धारित प्रावधानों का परीक्षण किया गया है। अदालत का फैसला आने के बाद ही इन परियोजनाओं का भविष्य तय हो सकेगा।’
– एसएन वर्मा (प्रबंध निदेशक, उत्तराखंड जलविद्युत निगम)