एजुकेशन को चाहिए क्वॉलिटी व इनोवेशन
राघवेंद्र प्रताप सिंह
उत्तर प्रदेश में प्राइमरी से लेकर उच्च शिक्षा तक को अब भी गुणवत्ता और संसाधनों की दरकार है। राज्य विश्वविद्यालय व डिग्री कॉलेजों में अब भी पूरी व्यवस्था सिर्फ प्रवेश व परीक्षा के इर्दगिर्द ही घूम रही है। विद्यार्थियों के लिए गुणवत्तापरक शिक्षा और बेहतर संसाधन पाना तो दूर की कौड़ी है। हालांकि राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान के तहत विश्वविद्यालय व डिग्री कॉलेजों को आर्थिक मदद दी जा रही है, लेकिन अब भी गुणवत्ता को सुधारने के लिए काफी प्रयास करने होंगे। इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट कॉलेजों की संख्या करीब 850 के आसपास है। मगर यूपी से हर साल लाखों विद्यार्थी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने पुणे, कर्नाटक व केरल आदि जगहों पर जाते हैं। इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए विभिन्न कोर्सेज में करीब ढाई लाख सीटें हैं, मगर राज्य प्रवेश परीक्षा की काउंसिलिंग से मात्र 53 हजार ही भर पाती हैं। बाकी समाज कल्याण विभाग की छात्रवृत्ति व शुल्क प्रतिपूर्ति को हड़पने के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज बोगस दाखिले का खेल करते हैं। दोनों के बीच आपसी साठगांठ होने के कारण आसानी से फर्जीवाड़े को अंजाम दे दिया जाता है।
माध्यमिक शिक्षा की हालत भी खस्ता है। यूपी बोर्ड का सिलेबस कई वर्षों से अपडेट न होने के कारण और प्राइवेट स्कूलों के सीबीएसई व सीआईईएससीई बोर्ड की ओर रुझान करने से यूपी बोर्ड के स्कूलों में अच्छे छात्र नहीं रह गए। यही कारण है कि देश में आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिले के लिए आयोजित ज्वाइंट एंट्रेंस एग्जाम एडवांस (जेईई एडवांस) में यूपी बोर्ड के बहुत कम छात्र चयनित होते हैं। इस मामले में पड़ोसी राज्य बिहार व नया नवेला बना राज्य तेलंगाना हमसे आगे हैं।
प्राइमरी स्कूलों में भी शिक्षक सिर्फ मिड-डे-मील खिलाने, स्कूल ड्रेस बांटने व अन्य सरकारी कागजों का पेट भरने के काम में ही लगे रहते हैं। यही कारण है कि गुणवत्तापरक शिक्षा स्कूलों में नहीं मिल पा रही है। अभिभावक कान्वेंट स्कूलों में मोटी फीस भरकर अपने बच्चों को पढ़ाने में मजबूर हैं। स्मार्ट क्लासरूम और एजुकेशन में बेहतर इनोवेशन होने के कारण मिशनरी स्कूलों में दाखिले के लिए हर साल लंबी कतारें लगती हैं। सरकार जब तक एजुकेशन में क्वॉलिटी व इनोवेशन के लिए बेहतर प्रयास नहीं करेगी, यूपी में न तो गुणवत्तापरक शिक्षा दे पाएगी और न ही यहां से प्रतिभा का पालन रोक पाएगी।
पहले बात उच्च शिक्षा की की जाए तो अच्छा होगा। ग्रास इनरोलमेंट रेसियो यानि जीईआर सिर्फ 18 फीसदी है। यानी इंटर पास करने के बाद 100 में से 18 विद्यार्थी उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ाते हैं। यूपी में राज्य विश्वविद्यालय शिक्षकों व संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर लखनऊ विश्वविद्यालय में ही शिक्षकों के 432 में से 216 पद खाली हैं। 42 करोड़ के घाटे में चल रहे इस विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक) में बी ग्रेड मिला है। अब दोबारा नैक मूल्यांकन करवाने के लिए शिक्षकों के पदों का विज्ञापन जारी किया गया है। अप्रैल 2016 में दोबारा नैक करवाने के लिए शिक्षकों के खाली पदों को भरने के लिए विज्ञापन निकाला गया है। इसके लिए राज्य सरकार से प्रथम चरण में लविवि ने करीब 70 करोड़ की आर्थिक मदद मांगी है। क्योंकि अपने संसाधनों से सिर्फ शिक्षकों व कर्मचारियों का वेतन ही यह दे पा रही है।
सूबे की राजधानी के इस विश्वविद्यालय ही नहीं अगर पूरे प्रदेश में दूसरे विश्वविद्यालय देखे जाएं तो वहां भी गुणवत्ता के नाम पर कुछ खास नहीं है। गुणवत्ता का पैमाना कहे जाने वाले राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक से मूल्यांकन) करवाने की अगर स्थिति देखी जाए तो 14 राज्य विश्वविद्यालय जो कि नैक ग्रेडिंग के दायरे में आते हैं, उनमें से सिर्फ पांच ने नैक मूल्यांकन करवाया। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी को केवल ए ग्रेड मिला है बाकी चार विश्वविद्यालय बी ग्रेड में हैं। आठ विश्वविद्यालयों का अब भी नैक से मूल्यांकन नहीं हुआ है। 138 राजकीय डिग्री कॉलेजों में से मात्र 31 ने ही नैक ग्रेडिंग करवाई है इसमें से 24 को बी ग्रेड व सात कॉलेजों को सी ग्रेड मिला है। ए ग्रेड किसी को न मिलना यह साबित करता है कि संसाधन व गुणवत्ता अभी भी नए जमाने से कदमताल नहीं मिला पा रहे। वहीं 331 सरकारी एडेड डिग्री कॉलेजों में 21 को ए ग्रेड, 87 को बी ग्रेड व 9 कॉलेजों को सी ग्रेड मिला है। इसी तरह 4277 सेल्फ फाइनेंस डिग्री कॉलेजों में से 24 को ए ग्रेड, 208 को बी ग्रेड, 27 को सी ग्रेड मिला है। आंकड़े बताते हैं कि सूबे में उच्च शिक्षा में गुणवत्ता कायम करना अब भी दूर की कौड़ी है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानि यूजीसी द्वारा च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम यानि सीबीसीएस को लागू करने के निर्देश दिए गए हैं। विश्वविद्यालय इसे लागू करने में हांफ गए, क्योंकि इसमें एक विभाग से दूसरे विभाग व फैकल्टी में अपने मनपसंद पेपर को पढ़ने की छूट है। विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी चाहे तो अपना कोई भी मनपसंद पेपर जैसे मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र, इकोनॉमिक्स, कॉमर्स आदि पढ़ सकता है। इसी तरह कला वर्ग व कॉमर्स वर्ग के विद्यार्थियों को भी इसे पढ़ने की पूरी छूट है। इसे विश्वविद्यालय ढंग से लागू कर पाने में फेल साबित हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर लखनऊ विश्वविद्यालय ने इसे लागू किया तो पीजी में सिर्फ साइंस फैकल्टी में और विद्यार्थियों को जो च्वाइस दी वह भी साइंस के विभागों की ही दी। यानी लविवि ने इसे अपनी सहूलियत से च्वाइस नहीं सिर्फ क्रेडिट सिस्टम में बदल दिया। यही हालत दूसरे राज्य के विश्वविद्यालयों में भी है। वहीं इंटीग्रेटेड कोर्सेज की डिमांड तेजी से बढ़ रही है। जैसे बीए-बीएड, बीए-एलएलबी ऑनर्स, बीकॉम-एलएलबी ऑनर्स आदि। बीते वर्षों में राजधानी में नई खुली डॉ. शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास यूनिवर्सिटी, ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती उर्दू, अरबी-फारसी यूनिवर्सिटी में नए-नए कोर्स पढ़ाए जा रहे हैं। डॉ. राम मनोहर लोहिया नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में लॉ के राष्ट्रीय स्तर के कोर्स पढ़ाए जा रहे हैं। विद्यार्थियों को इसमें दाखिला कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट यानि क्लैट के माध्यम से मिलता है। क्लैट का क्रेज बीते दिनों में इंटर पास विद्यार्थियों के बीच तेजी से बढ़ रहा है। वहीं बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने पिछले करीब तीन वर्षों में अपने यहां पर काफी नए कोर्स शुरू किए और कई नए विभाग भी खोले हैं।
सूबे में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की भी दुर्दशा है। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम प्राविधिक विश्वविद्यालय यानि एकेटीयू से संबद्ध करीब 850 इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट कॉलेजों में पढ़ाई के नाम पर सिर्फ खिलवाड़ हो रहा है। हर साल यूपी से लाखों विद्यार्थी पुणे, दिल्ली, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश आदि जगहों पर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने जाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई में गुणवत्ता नहीं है। बीटेक की डिग्री मिलने के बाद नौकरी हासिल करना यहां के विद्यार्थियों के लिए चुनौती है। प्लेसमेंट अच्छे नहीं होते। अब 25 प्रतिशत सीटें इस बार से राज्य प्रवेश परीक्षा यानि एसईई में दूसरे राज्यों के विद्यार्थियों के लिए आरक्षित की जा रही हैं ताकि दूसरे राज्यों के विद्यार्थी यहां पर आएं, मगर अपने विद्यार्थियों को यूपी से बाहर जाने से रोक पाना अभी चुनौती बना हुआ है। हालांकि एकेटीयू के नए कुलपति प्रो. विनय कुमार पाठक की ओर से इसके लिए काफी प्रयास किए जा रहे हैं। एकेटीयू ने इंजीनियरिंग कॉलेजों में इनोवेशन व इन्क्यूवेशन सेंटर खोलने का काम शुरू किया है। यहां पर विद्यार्थियों को नई खोज करने के लिए प्रेरित किया जाएगा। एक्सपर्ट विद्यार्थियों के आइडिया पर उन्हें रिसर्च करने में मदद की जाएगी और यहां पर उनके लिए अत्याधुनिक लैब भी मौजूद रहेगी। वहीं इंजीनियरिंग कॉलेजों में हॉबी लैब बनाए जाएंगे। यहां पर विद्यार्थी अपने हुनर को बेहतर ढंग से तराश सकेंगे। अभी यूएसए की कंपनी टेक्सास इंस्ट्रूमेंटेशन के साथ एमओयू कर एकेटीयू ने चार इंजीनियरिंग कॉलेज जिसमें आइईटी लखनऊ, केएनआइटी सुल्तानपुर, एआइटी मेरठ व जेएसएस नोएडा में अत्याधुनिक इलेक्ट्रानिक्स लैब स्थापित की है, जो इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों को नई तकनीकी से रूबरू करवाएगी और उन्हें इंडस्ट्री की जरूरत के अनुसार जॉब पाने लायक बनाएगी। इन सभी प्रयासों के बीच इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट कॉलेजों में दाखिले के लिए होने वाली राज्य प्रवेश परीक्षा यानी एसईई 2016 में महत्वपूर्ण बदलाव करने की तैयारी है। वहीं एकेटीयू ने 125 ऐसे कॉलेज जहां पर एमबीए कोर्स में दाखिले के नाम पर फर्जीवाड़ा किया गया उन्हें नोटिस जारी की है। इन कॉलेजों में 100 प्रतिशत से लेकर 50-50 प्रतिशत तक अभ्यर्थी प्रथम सेमेस्टर के एग्जाम में गायब हैं। दरअसल, समाज कल्याण विभाग द्वारा छात्रवृत्ति व शुल्क प्रतिपूर्ति के नाम पर हुए खेल के चलते यह फर्जी दाखिले किए गए। 29 बीटेक कोर्स चलाने वाले कॉलेजों को भी नोटिस जारी किया गया है। ऐसे में एकेटीयू को भी गुणवत्ता बनाने पर जोर देना होगा और दाखिले के नाम पर होने वाले फर्जीवाड़े को रोकना होगा।
यूपी में माध्यमिक शिक्षा पर अगर नजर दौड़ाई जाए तो केन्द्र सरकार की 75 प्रतिशत धनराशि के सहयोग से प्रदेश में सरकारी व सहायता प्राप्त इंटर कॉलेजों में इंफॉरमेशन एंड कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी यानि आईटीसी योजना के तहत दी जाने वाली कम्प्यूटर शिक्षा मजाक बनी हुई है। करीब 291 करोड़ की इस योजना को 1500 इंटर कॉलेजों में लागू किया गया। इसे दो मई 2011 को लागू किया गया, लेकिन इसे पिछली तारीख 20 दिसंबर 2010 से ही शुरू दिखा दिया गया। अधिकारियों ने गोलमोल कर यह योजना जो कि मई 2016 तक चलनी चाहिए थी उसे छह महीने पहले ही बंद करने की कोशिश शुरू कर दी। दिसंबर में करीब 12 करोड़ की स्टेशनरी व अन्य सामग्री भी विद्यालय नहीं भेजी गई। उप्र माध्यमिक शिक्षक संघ ने जब इसका विरोध किया तो अब इसे आगे पढ़ाने पर सहमति बनी है। यानि कम्प्यूटर शिक्षा देने की महत्वाकांक्षी योजना सिर्फ लूट-खसोट का जरिया बनकर रह गई। संविदा पर रखे गए कम्प्यूटर शिक्षकों को दस हजार मासिक मानदेय की जगह मात्र छह हजार रुपये ही दिए गए। फर्जी ढंग से चल रहे स्कूलों पर अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। राजधानी में ही करीब 221 फर्जी स्कूलों पर दो साल पहले एफआईआर लिखवाने के लिए तहरीर डीआईओएस की ओर से दी गई, लेकिन अब भी यह स्कूल धड़ल्ले से चल रहे हैं। कान्वेंट स्कूल जहां पर अभिभावकों से मोटी फीस वसूली जाती है, वह उनके लिए मजबूरी बन चुके हैं। क्योंकि अगर बच्चे का भविष्य बेहतर बनाना है तो उन्हें गुणवत्तापरक शिक्षा दिलानी ही होगी जो कि सरकारी स्कूलों में ढंग से नहीं मिल पा रही। ऐसे में वह मजबूरी में प्राइवेट व कॉन्वेंट स्कूलों की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। यूपी बोर्ड का सिलेबस अपडेट नहीं है, शिक्षा व्यवस्था में लालफीताशाही हावी होने के कारण अच्छे स्कूल या तो सीबीएसई की ओर भाग गए या फिर सीआईएससीई बोर्ड की ओर चले गए। यही कारण है कि यूपी बोर्ड के पढ़े विद्यार्थी आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में दाखिले के लिए आयोजित जेईई एडवांस में फिसड्डी रहते हैं। इस समय आईआईटी में दाखिले के मामले में हम बिहार व नए बने राज्य तेलंगाना से भी पीछे हैं। यूपी बोर्ड के मुकाबले सीबीएसई, आंध्र बोर्ड, सीआईएससीई बोर्ड, महाराष्ट्र बोर्ड आदि से पढ़े विद्यार्थी आईआईटी में ज्यादा सीटों पर कब्जा कर रहे हैं। सरकारी प्राइमरी स्कूलों में मिड-डे-मील, छात्रवृत्ति, नि:शुल्क ड्रेस, बस्ता आदि देने की तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं के बीच लखनऊ में ही ड्रापआउट होने वालों की संख्या काफी है। लखनऊ में 1369 प्राइमरी स्कूलों में 134749 पंजीकृत छात्र-छात्राओं में से 24063 ड्राप आउट रहते हैं। इसमें घरेलू समस्या, स्थान परिवर्तन, दूसरे जगह नामांकन, स्वास्थ्य संबंधी कारण और घुमंतू परिवार होना इसका बड़ा कारण है। वहीं लखनऊ में 462 पूर्व माध्यमिक स्कूलों में 42885 विद्यार्थियों में से 7214 विद्यार्थी ड्राप आउट हैं। यह रिपोर्ट खुद बीते सितंबर में बेसिक शिक्षा अधिकारी प्रवीण मणि त्रिपाठी द्वारा तैयार की गई है। डीएम के निर्देश पर यह रिपोर्ट तैयार की गई थी। सरकारी प्राइमरी स्कूलों में बेहतर शिक्षा न मिलने के कारण ही प्राइमरी स्तर पर अभिभावक प्राइवेट व कान्वेंट स्कूलों पर अधिक भरोसा जताते हैं, भले ही वहां पर मनमानी फीस लेने का आरोप लगता हो। यहां पर विद्यार्थियों को स्मार्ट क्लासरूम में पढ़ाई करवाई जाती है और शिक्षा में अत्याधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाता है। आज भी मिशनरी स्कूलों में दाखिले के लिए अभिभावकों की लंबी कतारें इसलिए ही लगती हैं क्योंकि वहां पर शिक्षा में क्वॉलिटी व इनोवेशन दोनों मिलता है।
बीते दिनों हाईकोर्ट ने एक शिक्षक के वाद पर राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह अपने यहां के अधिकारियों व नेताओं के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएं। फिलहाल यह आदेश अभी राज्य सरकार ने कानूनी दांवपेंच में फंसा रखा है। मगर सरकारी शिक्षा की जो स्थिति है, उसमें चपरासी भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाना चाहता।
वह भी प्राइवेट स्कूल में ही बच्चे को इस आस के साथ भेजते हैं कि यहां पर उन्हें एजुकेशन में क्वॉलिटी जरूर मिलेगी। प्रतियोगी युग में अगर विद्यार्थियों को यह न मिला तो फिर सचिवालय में चपरासी की भर्ती के लिए बीटेक, बीएससी व पीएचडी धारक लोग आवेदन करेंगे। बदलते दौर में एजुकेशन में क्वॉलिटी व इनोवेशन दोनों ही जरूरी हैं। तभी शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जा सकेगा। =